इधर देखने में आ रहा शिक्षा मंदिरों का व्यवहार छात्रों और यहां तक कि अभिभावकों के प्रति बेहद क्रूरतापूर्ण और असंवेदनशील हो गया है। संबंधों में जिस तरह के सौहार्द और लचीलेपन की अपेक्षा की जाती है उसका लोप हो गया है। नियमों की आड़ में ये संस्थान सिर्फ स्वहित देखते हैं। ये निजी तकनीकी संस्थानों में अधिक देखने को मिल रहा है। इन संस्थानों को नियंत्रित करने वाला विश्वविद्यालय लाचार बेबस किंकर्तव्यविमूढ़ सा दिखता है और अभिभावक बच्चे को लिए फुटबॉल की गेंद की तरह यहां से वहां किक आउट होते रहते हैं। पता नहीं यह इनकी आपसी समझ वाला नूरा खेल है या कुछ और यह तो तकनीकी संस्थान और तकनीकी विश्वविद्यालय ही जानें।
हम बात कर रहे उत्तर प्रदेश के निजी इंजीनियरिंग कालेजों की जहां मामूली बात के लिए किस तरह छात्रों को प्रशासनिक दांव-पेंच और कानून की चौखट पर माथा पटकने को बाध्य होना पड़ रहा है। मानो इनकी डिग्री का यह भी हिस्सा है कि कोर्ट कचहरी करना सीख लो। उदाहरण के लिए किसी छात्र की उपस्थिति वर्ष में मानक 60 फीसद से .01 से लेकर .09 फीसदी तक कम हो जाती है और उसे परीक्षा देने से वंचित कर दिया जाता है। मतलब उसका एक साल बर्बाद हो जाता है। समय के साथ ही एक साल की फीस भी देनी पड़ जाती है। संस्थान अभिभावकों की एक नहीं सुनता है और विश्वविद्यालय एक शब्द में पल्ला झाड़ता है कि संस्थान स्तर पर इसका समाधान हो जाएगा। बाद में तो विश्वविद्यालय संवाद भी नहीं करता। अंत में लाचार अभिभावक को कोर्ट जाना पड़ता है और कोर्ट सहानुभूति पूर्वक विचार का निर्देश विश्वविद्यालय और संस्थान को दे देता है। अब एक बार फिर स्थिति संभालने का अवसर होता है लेकिन ये दोनों बच्चों का भविष्य निर्धारित करने वाली संस्था कोई सहानुभूति नहीं दर्शाती है और आवेदन निरस्त हो जाता है और कोर्ट जाने पर नाराजगी भी जताई जाती है। छात्र अगले साल की परीक्षा के साथ बैक देने का आग्रह करता है उसकी कोई सुनवाई नहीं होती है। यहां तक कि अभिभावक तक से विश्वविद्यालय प्रशासन मिलने की जहमत नहीं लेता। संदेश एक और फिर मिलता है फिर कोर्ट जाइए। इधर कोई सुनवाई नहीं होगी?
इस तरह की संवादहीनता तो तानाशाही का द्योतक है। क्या अभिभावक सिर्फ एटीएम मशीन है? वह सिर्फ पैसा देता रहे उसे अपने बच्चे के हितों के लिए विवि प्रशासन से बात करने का हक नहीं है। इस तरह के हालात में जो छात्र पढ़ रहे उनके मन मस्तिष्क पर क्या असर पड़ रहा समझा जा सकता है? एक शैक्षिक संस्थान तानाशाही तरीके से नहीं बल्कि व्यवहारिक और लचीले तरीके से चलना चाहिए। अनुशासन होना चाहिए लेकिन परस्पर संवाद के साथ समस्या के समाधान को भी स्थान देना चाहिए। जानकारी मिली कि ऐसे एक दो नहीं सैकड़ों की संख्या में छात्र है जिन्हें हाजिरी में कमी के नाम पर परीक्षा देने से वंचित किया गया। छात्रों अभिभावकों का कहना है कि संस्थान हाज़िरी कम हुई उसकी सूचना पहले गार्जियन को नहीं देते। इन लोगों का कहना है कि किसी बात को लेकर टीचर नाराज हैं तो बच्चे को जानबूझकर गैरहाजिर कर देते हैं। जिससे परीक्षा देने से रोका जा सके। एक से दो फीसद कम हाजिरी वाले ज्यादातर मामले ऐसे हैं। विश्वविद्यालय संस्थानों के साथ खड़ा है ऐसे में अभिभावक जाए तो जाए कहां? ऐसे में छात्र अभिभावक को शोषित होना ही है। इन लोगों का कहना है कि आप अभिभावक से भविष्य में ऐसा नहीं होगा लिखवाकर छात्र को परीक्षा की अनुमति देते। इससे छात्र दबाव में रहता। आप छात्र से ज्यादा उसके अभिभावक की प्रताड़ित कर रहे हैं। इसमें सरकार या राजभवन संज्ञान ले तभी छात्रों का भला होगा।
लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह की कलम से
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