डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

भारत के लोग अभी कोरोना वायरस के चंगुल से छूट भी नहीं पाए थे कि जब वातावरण का तापमान ठंडक का एहसास करा रहा था तभी उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर के फट जाने से प्राकृतिक आपदा का एक ऐसा तांडव सामने खड़ा हो गया जिसने देखते देखते धौलीगंगा को उस विकराल रूप में खड़ा कर दिया जिसमें मानव जीवन तिनके की तरह उड़ने लगा लाशें बिछ ने लगी सरकारी प्रोजेक्ट के द्वारा बनाए जा रहे बांध तहस-नहस हो गए और यह कोई पहली बार नहीं हो रहा था इससे पूर्व भी 2020 में पूरे विश्व में जिस तांडव को कोरोना वायरस जैसे 60 नैनोमीटर के प्राणी द्वारा मानव जीवन में देखा था उसने मानव जीवन को कीड़े मकोड़े की तरह स्थापित कर दिया था क्योंकि मानव जिस स्थायित्व के लिए संस्कृति का निर्माता बना था वह टूटे हुए पत्ते की तरह बिखरता हुआ दिखाई देने लगा और यही कारण है कि प्राकृतिक आपदा अब मनुष्य के जीवन का एक अभिन्न अंग बनने लगा है लेकिन मानव इस बात पर न सोचना चाहता है ना समझना चाहता है यदि को रोना जैसे ही प्राकृतिक आपदा पर विश्लेषण कर लें तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि कोरोना वायरस ने उन लोगों को ज्यादा प्रभावित किया है जिन्होंने भौतिक संस्कृति से अच्छादित जीवन को जिया है ग्रामीण संस्कृति में रहने वाले लोग इस प्राकृतिक आपदा से इतने प्रभावित नहीं हुए हैं जिसका एक स्पष्ट संकेत चाहे भारत जैसे देश में रहने वाले ग्रामीण लोगों का हो या अमेरिका जैसे देश में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का हो यह रहा है कि जो लोग प्रकृति से जुड़कर रह रहे हैं उनकी प्रतिरक्षण प्रणाली भी मजबूत है और वह अभी भी प्रकृति के अंग बने हुए हैं जिसके कारण प्रकृति ने उनकी सुरक्षा और संरक्षा की व्यवस्था का ध्यान स्वयं भी ज्यादा रखा है लेकिन वह सभी लोग जो प्रकृति से दूर होते गए और भौतिक संस्कृति को ज्यादा महत्व देते गए उनको प्रकृति में एक अप्राकृतिक प्राणी के रूप में चित्रित करते हुए ज्यादा प्रभावित किया है चाहे अमेरिका हो चाहे भारत जैसा विकासशील देशों दोनों प्रजातांत्रिक देशों में मृत्यु की दर शहर में रहने वाले लोगों की ज्यादा है जो यह बात स्थापित करने के लिए पर्याप्त है कि हमें प्रकृति के साथ जुड़कर रहना है हमें प्राकृतिक संपदा की रक्षा करनी है।

इस सामान्य से तत्व को मनुष्य ने कभी समझने का प्रयास किया ही नहीं कि क्या कारण है कि पृथ्वी एक समतल भूमि की तरह नहीं है उसके एक हिस्से में पहाड़ों से अच्छादित क्षेत्र है तो समुद्र के रूप में भी एक विशाल क्षेत्र है जो निश्चित रूप से यह संकेत देता है कि प्रकृति के संतुलन के लिए पहाड़ों की आवश्यकता है समुद्र की आवश्यकता है लेकिन मनुष्य ने अपने जीवन में जनसंख्या को जिस तरह से बढ़ाया है उसमें समतल भूमि की कमी को पूरा करने के लिए उसने पहाड़ों को काटना शुरू कर दिया है और सुरक्षा की दृष्टि से भी पहाड़ों को अपनी सुरक्षा संरक्षा का केंद्र बनाने के लिए वहां पर भी तकनीकी आयुध और तकनीकी विज्ञान का वह विकास फैलाया है जो उस प्राकृतिक संपदा के अंदर एक ऐसा विषाक्त वातावरण पैदा कर रहा है जिसे हम देख नहीं पा रहे हैं और यह वातावरण ठीक उसी तरह से है जैसे किसी भी पत्थर पर चोट करने पर हमें चोट वाली जगह पर हो सकता है कोई चिह्न दिखाई दे लेकिन उस स्थान से प्रवेश की गई ऊर्जा पत्थर के अंदर अपना एक विस्तार जरूर कर लेती है जिससे वह पत्थर मूल रूप से तो संपूर्णता में दिखाई देता है लेकिन आंतरिक रूप से उसमें एक बिखराव शुरू हो जाता है और यदि उस पत्थर को लगातार प्रहार किया जाता रहे तो एक दिन वह पत्थर बिखर जाता है यही स्थिति प्राकृतिक संपदा के साथ आज मनुष्य के द्वारा की जा रही है जिसके कारण रेलवे लाइन का पीछा ना हो चाहे सुरंगों का बनाना हो चाहे पहाड़ों की खुदाई करके वहां पर खनिजों का विकास करना हो वहां पर सड़कों का बनाना हो उन सब में अत्यधिक बारीकी से संतुलन का ध्यान रखने के बाद भी जो प्रहार पहाड़ों पर किए जा रहे हैं उनकी ऊर्जा पहाड़ों के अंदर प्रवेश करके उसके आकार प्रकार स्थिरता को प्रभावित कर रही है और यही आई स्थिरता निरंतरता के साथ 1 दिन उस स्थिति में आ जाती है जहां पर हमें ग्लेशियर फटने की घटना का सामना करना पड़ता है पहाड़ों के टूटने का सामना करना पड़ता है और हम इसे एक प्राकृतिक आपदा मानने लगते हैं जबकि यह एक मानव कृत आपदा है जिसके बारे में वह कभी सचेत नहीं होता है क्योंकि ऊर्जा के सिद्धांत पर चलते हुए वह जान ही नहीं पाता कि उसके द्वारा किया गया प्रत्येक प्रहार प्रकृति को धीरे-धीरे बिखराव की ओर ले जाता है और जिस दिन पहाड़ों के अंदर के छोटे-छोटे अनु अपने को इन ऊर्जा के कारण बांधने में असमर्थ हो जाते हैं।

उस दिन अकस्मात मानव सभ्यता को वन संपदा को दूसरे जीव जंतुओं को एक प्रलय का सामना करना पड़ता है इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि जब मानव अपनी संस्कृति में आगे बढ़ना चाहता है तो उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि कौन से निषिद्ध क्षेत्र हैं क्योंकि पृथ्वी पर चाहे मरुस्थल हूं चाहे समुद्र हो चाहे पहाड़ हो इनकी उपस्थिति के आधार पर ही समतल पर रहने वाले प्राणियों के स्थायित्व और स्थिरता की बात की जा सकती है यदि इस पृथ्वी के ऊपर आ समतल कुछ होने की आवश्यकता ना होती तो प्रकृति की परिभाषा भिन्न होती और आज इसी बात को समझने की आवश्यकता है कि अपने संतुलन के लिए प्रकृति ने जिस व्यवस्था को विस्तार दिया है उस विस्तार को मनुष्य अपनी ज्ञान अपनी सोच और अपनी अजेय शक्ति की स्थापना में बर्बाद ना करें क्योंकि पहले ही उसके इस प्रयोग से ना जाने कितने जीव जंतु विलुप्त हो चुके हैं समुद्र में करीब 10000 प्रजाति की मछलियां विलुप्त हो चुकी है समुद्रों की सांद्रता बढ़ रही है समुद्र में ऑक्सीजन की कमी हो रही है नदियां सूख रही है जमीनों में उर्वरक शक्ति कम हो रही है और इसका परिणाम व्यक्ति उस प्राकृतिक आपदा की ओर नहीं देख पा रहा है जो 1 दिन इस पृथ्वी से मानव को समाप्त कर देगी क्योंकि यह कोई पहली बार नहीं होगा जब पृथ्वी पर इस तरह के किसी प्रलय की घटना होगी क्योंकि इससे पूर्व भी पृथ्वी पर कम से कम 6 बार ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं जिसमें पृथ्वी पर प्रलय की स्थितियां पैदा हो गई है लगातार बर्फ की चादरों से पृथ्वी ढकी रही है पानी बरसाते हुए बादलों के द्वारा वर्षों तक पृथ्वी भीगती रही और कहीं पर भी किसी भी प्राणी का कोई अस्तित्व नहीं रहा है इसलिए आज जब उत्तराखंड जैसी घटनाएं घट रही है और कोरोना वायरस जैसी जानलेवा स्थितियों के सामने हम खड़े हुए हैं हमें इस बात के लिए भी सचेत रहना चाहिए कि आने वाले समय में हमें कोरोना वायरस जैसे और भी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है बिल गेट्स द्वारा इस बात की घोषणा भी की गई है कि इस से भी 10 गुना ज्यादा प्रलय कारी स्थिति आने वाले समय में हो सकती है जब कोई कोरोना भी ज्यादा गंभीर विषाणू पृथ्वी पर दस्तक देगा पर उसके लिए आवश्यक है कि हम प्रकृति के अंग बने न की प्रकृति के विजेता बनी जिस तरह से बिजली उत्पादन के लिए कोयला खदानों का क्रम जारी है और बिजली उत्पादन में जिस तरह से कोयले का उपयोग करके प्रदूषण का स्तर बढ़ाया जा रहा है जिससे प्रतिवर्ष भारत जैसे देश में ही लाखों लोग मर रहे हैं उस स्थिति से बचने के लिए जरूरी है कि हम प्रकृति के ही आवश्यक तत्वों के सहारे प्राकृतिक जीवन को जीने की और आगे बढ़े ताकि जिस समय मौत को जीतने के लिए मनुष्य ने संस्कृति का निर्माण किया उस संस्कृति की वास्तविक उपादेयता स्थापित हो सके आनुपातिक रूप से आज भी हम ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं जहां पर जंगल में रहने वाले मानव की तरह ही आज संस्कृति को बनाने वाला मानव अस्थिर हो गया है आज उसे भी अब या नहीं पता रहता कि कल का सूरज वह देखेगा कि नहीं देखेगा और ऐसा केवल उसके भस्मासुर बन जाने के कारण हो रहा है वह एक तरफ मानवाधिकार के संरक्षण की आवाज तो उठा रहा है।

लेकिन वह स्वयं या नहीं जान पा रहा है कि मानवाधिकार की स्थापना के लिए उसे किन तथ्यों को स्वयं जानना होगा वह अपने उन सीमाओं का रेखांकन वैज्ञानिक आधार पर भी नहीं जान पा रहा है जहां तक वह कोई कार्य करने के बाद विनाश की ओर बढ़ जाएगा और इसीलिए अखिल भारतीय अधिकार संगठन एक दशक से मानवाधिकार जैसे विषय में अधिकार विज्ञान को पढ़ाई जाने की आवश्यकता पर जोर दे रहा है क्योंकि जब तक मनुष्य को इस बात का ज्ञान नहीं होगा कि किस स्थिति के बाद वह मृत्यु के करीब हो जाता है यह किस उपयोग कारी स्थिति को लगातार दोहन करने के बाद मनुष्य अपने आप भस्मासुर बन कर मौत की तरफ बढ़ जाता है तब तक मानवाधिकार की स्थापना हो पाना वास्तविक अर्थ में असंभव है और उस स्थिति में मानव सिर्फ एक दोहन करने वाला प्राणी बनकर प्राकृतिक संपदा से खेलता चला जाएगा और जिस प्राकृतिक आपदा से बचने के लिए उसने कई तरह की तकनीकी आवरण बनाए थे वही आवरण के कारण वह मौत का प्रतिबिंब बनने लगेगा और इसका संदेश विगत 2 वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं ने बहुत ही अच्छे तरीके से मनुष्य को दिया है अब आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी की तरह उस पर विश्लेषण करते हुए अपने पर नियंत्रण करना आरंभ करें वह भौतिक संस्कृति के बजाय प्राकृतिक संस्कृति के साथ जीवन के साथ रहने का एक प्रयास करना आरंभ करें क्योंकि सिर्फ वर्तमान में जीने वाले मनुष्यों के लिए पृथ्वी नहीं होनी चाहिए आने वाले भविष्य के मानव के लिए अन्य प्राणियों के लिए भी या पृथ्वी होनी चाहिए और सुरक्षित होनी चाहिए यही प्रकृति का संदेश लगातार दिया जा रहा है जिसको आज समझने की आवश्यकता है

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