सलिल पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार, मिर्जापुर.

 

 

मृत्यु का फिल्मीकरण करना संवेदनशीलता नहीं

एक चैनल के समाचार-वाचक रोहित सरदाना का कोरोनाई-मौत के पंजे में फंस जाना राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोरोना के भय को बहुत ही अधिक व्यापक बना गया । कोरोना के दुष्चक्र में जिनती भी मौतें हो रही वह 21वीं सदी के अति वैज्ञानिक दौर को चुनौती ही है। कोरोना के क्रूर-पंजे में यूपी के जाने माने IAS पीके त्रिवेदी, बिहार सरकार के मुख्य सचिव, हिंदी के शीर्षस्थ साहित्यकार कुंअर बेचैन, एक सांसद के भाई, एक विधायक और उनकी पत्नी, अनेक जिलों में अन्य बड़े आफिसर, व्यापारी, जाने-माने पत्रकार, डॉक्टर-स्वास्थ्य कर्मी, चुनाव ड्यूटी देते सरकारी आफ़िसर और कर्मचारी, चुनाव लड़ते प्रत्याशी, डेढ़ सौ से अधिक शिक्षक आदि ऐसे अनगिनत लोग हैं, जिनकी असमय मृत्यु से आमजनमानस दहल गया है।

संचार माध्यम भी कम गुनहगार नहीं

भय की सुनामी में फंसते दौर के लिए संचार माध्यम कम दोषी नहीं हैं। बीते सालों में सवाल व्यवस्था से करने के बजाय अशक्तों से करते रहे। पहली लहर में व्यवस्थापकों को वाहवाही का सर्टिफिकेट देने में लगे रहे। हर मामलों में मीडिया-ट्रायल और ज्ञान देने वाले संचार माध्यमों के अनेक प्लेटफार्म वालीवूड का ग्लैमर परोसते रहे। सुशांत-कंगना के मैटर को खुफिया एजेंसियों की तरह न जाने किन-किन पहलुओं में खुद भी उलझे और दर्शकों को भी उलझाते गए। कोरोना पर विशेषज्ञों की राय लेना जोखिम भरा लगने लगा। यदा-कदा चिकित्सा-विज्ञान से अनभिज्ञ राजनीतिक प्रवक्ताओं से कोरोना ओर सलाह लेते रहे, जिन्हें मेडिकल साइंस का ABCD नहीं मालूम। कुल मिलाकर महामारी को मनोरंजन का विषय बनाने में संचार माध्यम के तमाम ठिकाने लगे रहे।

बाजार का आंसू

बाजार का आंसू घड़ियाली होता है। समाचार भी किसी कम्पनी के प्रोडक्ट की तरह हो गया है। ऐसी स्थिति में कतिपय संचार माध्यमों का आंसू बहाना प्राकृतिक कम फिल्मी ज्यादा लग रहा है। क्योंकि आंखें नहीं रोती। रोता तो मन है। जब मन रोता है तो शब्द गायब हो जाते हैं। इसलिए किसी की मृत्यु को फिल्मी बनाना मानवीय नहीं कहा जा सकता। कोरोना से मृत आत्माओं को विंध्यधाम से मौन-श्रद्धांजलि ।

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