डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

सुना ही नहीं सब जानते भी है कि हमाम में सभी नंगे होते है फिर भी हम इस नंगे सच को नहीं मान पा रहे है कि भारत आज से नही सहिषुण्ता को मान रहा है बल्कि उसने जिओ और जीने दो के नारे को हमेशा से विश्व के सामने रखा | विश्व कि प्राचीनतम और पूर्ण भाषा के रूप में स्थापित संस्कृत भाषा में ……..अयं निजः परोवेति …गणना लघुचेतसाम्..उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुंबकम ( ये अपना ये पराया है …इस की गणना छोटे दिल वाले करते है ……..उदार दिल वालो के लिए तो पूरी धरती ही कुटुंब के समान है ) क्या ये काफी नहीं है ये बताने के लिए भारत हमेशा से सहिष्णु देश रहा है |

भारत का नाम आर्यावर्त , ब्रह्मावर्त , भारत रहा है पर जब आक्रमणकारियों ने इस देश में रहने वालो को हिन्दू ( सिंधु नदी के किनारे रहने वाले लोग क्योकि भर का उत्त्तर पश्चिम हिस्सा ऐसा था जिससे होकर आक्रमण कारी सीधे आ सकते थे और सिंधु नहीं के कारण यह का रहने वाला हिन्दू कहलाने लगा ) इस नाम का दिया जाना ये स्पष्ट करता है कि इस देश में आने वाले असहिष्णु लोगो को आक्रमणकारी मनाने के बजाये हमने अपने देश में ना सिर्फ जगह दी बल्कि कालांतर में उनको अपने ही देश का मान लिया |भारत हमेशा से संतोषम परम सुखम के सिद्धांत पर चलने वाला देश रहा है और इसी लिए उसने कभी सीमा विस्तार या दूसरे देशो को हथियाने की सोची जिसका प्रभाव ये है कि दूसरे धर्मो का विस्तार विश्व के कई देशो में पाया जाता है क्योकि आक्रमण कभी भी सहिषुण्ता के अंतर्गत नहीं आता है |और आक्रमण करने वालो ने अपने धर्म की पवित्रता को बनाये रखते हुए दूसरे धर्मो के धार्मिक स्थानो को नष्ट किया वह पर कुतबमीनार बनाया | सोम नाथ मंदिर असहिष्णुता का जीता जागता प्रमाण है | शायद सहिषुण्ता का मतलब हज़ारों साल से यही इस देश में प्रतिध्वनित होता रहा है कि अपनी बर्बादी को स्वीकार कर दूसरों को जीने का मौका दिया जाये | इसी लिए देश में बूत परस्ती को ना मैंने वालो ने बुतपरस्ती वाली जगह पर अपने पूजा स्थनो का निर्माण किया क्योकि वो ना तो अपने धर्म को मैंने में विश्वास कर रहे थे और ना ही दुसरो के धर्म को मान पा रहे थे | इसी लिए आज भी अपने धर्म और लोगो को बर्बाद होते देख कर ही सहिषुण्ता को परिभाषित किया जा रहा है | क्या १९४७ में धर्म के नाम पर एक राष्ट्र की संकल्पना सहिषुण्ता का उदहारण है | क्या १९८८ में बांग्लादेश को एक धर्मिक राष्ट्र घोषित करके वह के अन्य धर्मो के लोगो का शोषण सहिषुण्ता का उदहारण है | आज भारत के साहित्यकार सहिषुण्ता को एक नया जामा पहनाने में लगे है | किसी को टॉलरेट करना ही अगर सहिषुण्ता है तो इस देश ने तो हज़ारो साल से सबको सहन किया है \ और इसी लिए वही सब होते रहने देने की वकालत शयद साहित्यकार कर रहे है |

समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है और जो भारतीय संस्कृति का आधार है | हमारे देश में विबाह को सात जन्मो का सम्बन्ध बता कर परिभाषित किया गया था | सम्बन्ध विच्छेद का तो कही नाम ही नहीं था | आज के समाज विधि और मानवधिकारों के प्रकाश में एक ऐसी विधि को प्रचलिति किया गया कि दो आत्माओ का सम्बन्ध बता कर सहिषुण्ता को साकार करने वाला ये बंधन सबसे ज्यादा क्षणभंगुर हो गया है | आज देश में औरत को जिस तरह से कानून बना कर ये कुछ भी टॉलरेट ना करने को प्रगति का सूचक बताया गया है ( सुनने में ये बात महिला के विपरीत लगती है पर असहिषुणता को समझने के लिए ये समझना जरुरी है कि किस तरह सब हो रहा है ) | देश में बच्चो को ये अधिकार दिए जा रहे है कि वो अपने माँ पिता को भी ना सहन करें और कुछ भी हो तो उसे शोषण का जामा पहना कर शिकयत कर सकते है | जब घर परिवार को प्रगतिशील बनाने के लिए असहिषुणता की और ले जाया जा रहा है | जो ऐसी शिक्षा पाने वाले कैसे घर से इतर लोगो को सहन करेंगे | भारत का संविधान का प्रस्तवना ” हम भारत के लोग ……..” तो ये बताता है कि देश सहिषुण्ता पर ही चलेगा पर इस प्रस्तावना के बिलकुल उलट जिस तरह से धर्म निरपेक्षता का सतयानाश करते हुए अंदर के अनुच्छेदों में अनाप स्नेप अधिकार प्रदान किये गए है उससे अनेकता में एकता वाले सिद्धांत को क्षति पहुचनी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और अगर समय से बुद्धिजीवियों( मैं साहित्यकारों को इसमें शामिल नहीं कर रहा हूँ और ना ही फिल्मकारों को जो कल्पना में ही रहकर देश को गलत प्रस्तुति दे रहे है ) ने इस पर विवेचना नहीं की तो आने वाले समय में देश जलते हुए देखें सबके लिए एक पूर्व में निश्चित घटना से ज्यादा कुछ नहीं होगा | सहिषुण्ता भारत था और है पर संविधान के अनाप सनाप अधिकारों ने असमानता को इतना गहरा कर दिया है कि समाज के कई समूहों को अपने अस्तित्व का खतरा दिखाई दे रहा है और उसी के विरोध को आज कुछ लोग अशिषुणता कह कर रोटी सेक रहे है और देश के लोगो को सच से कोसों दूर ले जा रहे है | हो सकता है आपको चाणक्य की एक बात से मेरी बात ज्यादा समझ में आये कि कोई व्यक्ति पहले दिन अतिथि , दूसरे दिन भर और तीसरे दिन कंटक हो जाता है और इसी लिए आज भी कोई किसी को अपने घर में ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करता और होटल इसी लिए बढ़ गए | जब चाणक्य को उस समय ये सब समझ में आ रहा था तो आज तो बढ़ती जनसँख्या , घटते संसाधनो के बीच हर किसी को एक दूसरे में कंटक ही दिखाई देना एक सामान्य बात है और हम उसके इलाज़ के बजाये असहिषुणता की चिंगारी फैला कर अपनी रोटी सेक कर घर चलना चाहते है | क्या आप असहिष्णुं नहीं है ???

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here