डॉ आलोक चांटिया
इक्ष्वाकु वंश के प्रथम राजा इक्ष्वाकु और कुल मिलाकर 18 राजा हुए जिसमें रामचंद्र जी भी प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में एक कौशल नरेश दशरथ के पुत्र थे इसी क्रम में यदि हिंदू धर्म के दसों अवतार की बात करें तो सातवां अवतार भगवान श्री राम कथा जो चैत्र नवमी के दिन इस पृथ्वी पर अवतरित हुए यहां पर यह भी समझने की नितांत आवश्यकता है कि किसी भी मनुष्य को जो दिखाई दे रहा है उसे ही पूर्ण सत्य नहीं माना गया है जो उसकी यह संसारी का आंखें नहीं दे पा रही हैं वही अमूर्त सत्य है और उसकी खोज करना ही उस परम सत्ता को प्राप्त करने का अंतिम लक्ष्य होता है लेकिन हर व्यक्ति उस परम सत्ता को पाने के लिए इस अमूर्त स्थिति के माध्यम से होकर नहीं गुजरता है और यही कारण है कि वह स्थूल रूप में उस परम सत्ता को इस पृथ्वी पर अवतारवाद के माध्यम से महसूस करता है देखता है और इसी क्रम में त्रेता युग में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ यदि हम भगवान श्री राम के जन्म को एक दृष्टिकोण के आधार पर देखने का प्रयास करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जब समाज सतयुग की स्थिति से बाहर निकलकर त्रेता में प्रवेश कर रहा था अर्थात जब बिना किसी नियम को बनाए हुए समाज में एक स्थिति को जीने वाला प्रत्येक मनुष्य एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहा था जब संबंधों परंपराओं के लिए एक नियम की लकीर खींची जा रही थी और इसी अर्थ में जब प्रभु श्रीराम के जीवन को कोई मनुष्य सार्थक रूप से समझने का प्रयास करता है तो उसे सबसे पहली बात यही समझ में आती है किराम का काल एक ऐसा काल था जिसमें संबंधों को परिभाषित किया जा रहा था जिसमें परंपराओं को परिभाषित किया जा रहा था जिसमें दायित्व को परिभाषित किया जा रहा था मर्यादा को परिभाषित किया जा रहा था और यही कारण है कि राम के संपूर्ण जीवन में माता-पिता की सर्वोच्चता को जिस तरह से स्थापित किया गया है वह वर्तमान के समाज में एक आदर्श प्रकाश पुंज की तरह स्थापित होना चाहिए कि माता-पिता के द्वारा निकले हुए शब्द उनकी संतानों के लिए अंतिम सत्य के रूप में होने चाहिए और उन शब्दों की स्थापना के लिए व्यक्ति को अपने किसी सुख अपनी किसी लालच अपने किसी उद्देश्य को सामने नहीं आने देना चाहिए जैसे श्रीराम ने पिता के निर्देशों का सम्मान करते हुए अयोध्या के पद पर आरूढ़ होने के बजाय वन गमन करना ज्यादा श्रेष्ठ कार्य समझा लेकिन इसी के समानांतर जहां पर केकई को दिए गए वरदान को निभाने के लिए दशरथ ने अथाह दर्द से कर भी राम को वनवास का आदेश दिया वहीं पर पति-पत्नी के संबंधों में उर्मिला द्वारा लक्ष्मण के आदेश मानना और सीता द्वारा अपने पति की अनुगामी बनकर वन की ओर प्रस्थान करना वर्तमान के परिवेश में भी है स्थापित करता है पति पत्नी के बीच संबंध नाभिक के उस प्रोटॉन और न्यूट्रॉन की तरह होनी चाहिए जिनसे किसी परमाणु की संरचना का स्थायित्व सुनिश्चित होता है और समाज का स्थायित्व पति-पत्नी के इसी सोच और इसी संबंधों से स्थापित होता है जो राम के त्रेतायुग का सबसे बड़ा संदेश है
वन गमन के दौरान केवट के रूप में निषादराज की सहायता लेना शबरी के बेर खाना श्रीराम द्वारा इस तथ्य को परिभाषित करने के सबसे बड़े उद्देश्य हैं कि समाज में प्रत्येक वर्ग जाति उपजाति के लोग एक दूसरे के सहायक होते हैं उनको भोजन के आधार पर कार्य के आधार पर अलग नहीं किया जा सकता है मानव होने के आधार पर किसी भी व्यक्ति का सम्मान होना चाहिए यही नहीं मां सीता का अपहरण और उसके लिए प्रभु श्री राम का रावण से युद्ध करना फिर उसी पति पत्नी के संबंध की सर्वोच्चता की स्थापना को दर्शाता है जहां पर पति के लिए इस्पात की नैतिकता सर्वोच्च होनी चाहिए कि जिस पत्नी को विवाह करके वह लाया है यदि वह किसी संकट में फंस गई है यदि वह किसी संकट से निकलने में अपने को असमर्थ पा रही है तो वहां किसी भी विवेचना के बजाय सर्वप्रथम पति को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए विवाह के समय ली गई शपथ के प्रकाश में पत्नी के गरिमा अस्तित्व की रक्षा करनी चाहिए और यही नहीं तत्कालीन समय की लंका में भी चाहे सुलोचना हो चाहे मंदोदरी हो वे लोग भी अपने पति के साथ कदम से कदम मिलाकर ही खड़ी थी
लेकिन श्रीराम जब लोक मंगलकारी भावना के तहत अयोध्या के राजा बनते हैं तब वहां पर परिवार स्वयं का जीवन समाज और देश से गौण हो जाते हैं और इसका सबसे सुंदर उदाहरण भी श्री राम द्वारा ही प्रस्तुत किया गया जब उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पराकाष्ठा में अपने साम्राज्य के सबसे छोटे स्तर के व्यक्ति के द्वारा मां सीता के लिए कहे गए अपने विचार को सर्वोच्च स्तर प्रदान करते हुए उस धोबी को कोई सजा देने के बजाय या उसका तिरस्कार करने के बजाए या उसे इस बात का आरोपी बनाने के बजाय कि तुमने राजा या रानी के विरुद्ध से कैसे कहा उन्होंने लोकतंत्र की सुंदर कल्पना में या स्थापित किया कि लोकतंत्र वही है जहां छोटे से छोटा व्यक्ति राजा पर उंगली उठाने के लिए स्वतंत्र होता है और राजा भी उसकी किसी भी वक्तव्य को उपेक्षित करने के बजाए उस पर तथ्यात्मक निर्णय लेने के लिए अग्रसर होता है जो श्रीराम द्वारा मां सीता के वनवास के निर्णय से परिलक्षित होता है
प्रभु श्रीराम के जीवन से यह भी एक निष्कर्ष वर्तमान समाज के सामने भी निकल कर आता है कि राज्य और स्वयं का व्यक्तिगत जीवन अलग जरूर होता है लेकिन व्यक्ति राज्य के हित में लिए गए निर्णय से यदि स्वयं के परिवार को प्रभावित होते देखता है तो अपने परिवार के विरुद्ध लिए गए निर्णय से अपने को भी उतना ही प्रभावित मानकर जीवन जीता है जितना उसके परिवार को कष्ट सहना पड़ा है यदि मां सीता को वनवास दिया गया तो प्रभु श्री राम ने भी जिस तरह अपने जीवन में जमीन पर सोना खाना खाने की परंपरा आज का परित्याग किया वह बताता है श्री राम इस बात को स्थापित करने में हमारे समक्ष एक प्रकाश पुंज की तरह रहे कि संबंधों के आधार पर राज्य नहीं चलते हैं लेकिन संबंध के लिए व्यक्तिगत जीवन में व्यक्ति को जिम्मेदार अवश्य होना चाहिए
जहां कबीर ने श्री राम को निराकार का एक तत्व माना है और दुल्हनी गांवो मंगल चार जैसे रहस्यवाद को लिखकर निराकार और साकार प्रभु की स्थापना किया है वैसे ही गोस्वामी तुलसीदास ने प्रभु श्री राम को साकार मानते हुए रामचरितमानस जैसे महाकाव्य की रचना कर दी
वर्तमान की भागती दौड़ती जिंदगी में जो व्यक्ति अपने धर्म की जटिलताओं से अपने को दूर पड़ता है तब राम नाम का बीजक मंत्र उसको उन सारे लाभों से लाभान्वित करता है जो वह किसी बड़ी उपासना को करके पाता और यही कारण है कि जब कोई राम-राम कहता है तो वह सिर्फ नमस्ते नहीं करता है बल्कि राम-राम को यदि अंकों के आधार पर जोड़ा जाए तो उसका जोड़ 108 होता है और यदि 27 नक्षत्रों और उनके चारों कलाओं को आपस में गुणित कर दिया जाए तो भी 108 ही होता है और इसीलिए माला जपने में जिस 108 मोतियों को हम गिनते हैं व्हाट्सएप राम राम कहने भर से ही पूर्ण हो जाती है
निराकार और साकार तत्वज्ञान में श्री राम की महत्ता के कारण ही मृत्यु के बाद अर्थी के साथ चलने वाले लोग यह कहते हैं राम नाम सत्य है क्योंकि इसके अतिरिक्त जो भी आप देख रहे हैं सत्य मानकर वह वास्तव में सत्य नहीं है वह सिर्फ आभासी सकते हैं जो कुछ समय बाद झूठ बन जाएगा जैसी आंखों को दिखाई देने वाला आकाश का रंग सत्यता से परे होता है ठीक ऐसे ही दुनिया में जो भी स्थूल रूप से दिखाई दे रहा है वह सत्य नहीं है सत्य जो है वह वही परम तत्व है जो श्री राम के रूप में त्रेता युग में इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ
यह तो कहा गया है संतोषम परम सुखम लेकिन इसका विस्तार यह कहकर किया गया है की होई है वही जो राम रचि राखा और इसका तात्पर्य भी यही है कि जीवन में सुख दुख खुशी दर्द जो भी है वह सिर्फ इसलिए है क्योंकि यही निर्धारित किया गया है हम सिर्फ उसको निभाने वाले एक पात्र हैं और इसको समझने के बाद ही व्यक्ति में संतोष आ जाता है जब वॉइस स्कूल दुनिया के सत्यता को समझ लेता है तो फिर वह किसी भी सुख दुख से प्रभावित नहीं होता जैसे कहा भी गया है चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग ।
चैत्र रामनवमी हर वर्ष हर हिंदू के जीवन से होकर गुजरता है भगवान श्रीराम का जन्म दिवस एक अवधारणा एक संबल एक आलंबन बनकर हर व्यक्ति के जीवन में नया उल्लास जगाता है लेकिन वर्तमान में श्री राम को लेकर जिस तरह से व्यक्ति स्थूल रूप से इस नाम के साथ दौड़ रहा है उसमें राम को सही रूप से स्थापित करने के लिए अपने जीवन में उसे राम के द्वारा प्रस्तुत किए गए उन आदर्शों को भी अपने जीवन में पिरोना होगा जिससे वह भारत जैसे देश में रहते हुए इस बात को महसूस कर सके की स्वर्णमई लंका लक्ष्मण मे ना रोचते जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी और जब इस तरह के निराकार भाव से एक हिंदू धर्म को मानने वाला व्यक्ति अपनी जन्मभूमि अपने माता-पिता अपने संबंधों को जीने लगेगा तो प्रभु श्री राम मंदिरों से नहीं प्रत्येक व्यक्ति के अंतस में स्थापित होंगे और उसका प्रभाव यह होगा होगा कि जब जब हमारे चारों और रावण अपना सिर उठाकर हमारी अखंडता हमारे ऐश्वर्य हमारी अस्मिता हमारे नारी शक्ति को हानि पहुंच आएंगे तब तक हमारे अंदर बैठे हुए राम नियमों और आदर्शों के मार्ग पर चलते हुए ऐसे रावण का संहार करने में स्वयं सक्षम होंगे लेकिन महत्वपूर्ण उसके लिए यही होगा कि हम राम की उन नैतिकता कोई स्मरण करें और उसको अपने अंदर स्थापित करने का प्रयास करें यही रामनवमी का अभीष्ट परिणाम होगा।