“ऋष्यशृंग-शांता : वनकुमार व राजकुमारी की किंवदंतियां”
डा. अशोक दूबे, सदस्य, उoप्रo, संस्कृत संस्थान, लखनऊ
जैसा कि अब तक हम लोगों ने रामायण- एक अद्भुत व अनोखी कहानी पार्ट-1 के बारे में गहराईयों से जाना…. अब उसके आगे चलते हैं रामायण- एक अद्भुत व अनोखी कहानी पार्ट-2 की तरफ। कुछ कथाएँ व किंवदंतियाँ अनगिनत हैं। मुखर शांता प्रायः आजीवन मौन रहीं। एक उल्लेख है कि राम ने जब सीता का परित्याग कर दिया था। एक शांता ही थी। जिसने विरोध में संदेश भिजवाया था। वह विदुषी थीं, ऋषिका थीं, पति और पिता के प्रतिष्ठित वंश की थीं, पर ग्रंथ और गाथा में उनका आगे नाम नहीं।
इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है, उनके पति उनके भाइयों के लिए जिस तरह जुड़ते थे। वह राज को स्वीकार हो सकता था। समाज को भी स्वीकार रहा हो, यह स्पष्ट नहीं।
शांता के नाम भी स्थान-स्थान पर कुछ बदलते रहे हैं
कृत्तिवास रामायण के बंगवासी संस्करण की पाद टिप्पणी में एक छंद उद्धृत है, जिसमें शांता का नाम ‘कान्ता’ रखा गया है। इंडोनेशियाई रामायण “सेरी राम” में इनका नाम कीकवी है। कृत्तिवास रामायण में दशरथ कौशल्या की पुत्री का नाम हेमलता है, जिसे वे दशरथ को देते हैं। चन्द्रावती कृत रामायण में कुकुआ नामक कैकेयी की एक पुत्री का उल्लेख है, जो शांता का अपर नाम लगता है।
कुछ कहानियों में दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ कराने से पूर्व ही रोमपाद ने अकाल निवारणार्थ शांता का विवाह ऋष्यशृंग से कर दिया था. कहानी में वर्णन यह भी है कि ऋष्यशृंग को लुभाने या बुलाने शांता नहीं गईं थीं, वरन् वारांगनाएँ या देवदासियाँ गईं थीं। इस पर ऋष्यशृंग के पिता विभांडक राजा रोमपाद पर बहुत रुष्ट हुए थे। रोमपाद ने उन्हें शांत करने के लिए शांता का विवाह ऋष्यशृंग से कर दिया। यदि यह सत्य है, तो कहानी प्रेम कहानी तो नहीं रह जाती।
वाल्मीकि रामायण के विभिन्न पाठों में शान्ता के विषय में मतैक्य नहीं है। वाल्मीकि रामायण के चार पाठों दाक्षिणात्य,
उदीच्य, गौडीय तथा पश्चिमोत्तरीय में बहुत मतांतर है। गौडीय तथा पश्चिमोत्तरीय पाठों के अनुसार शान्ता दशरथ की ही पुत्री थी, जिसे दशरथ ने अपने निःसन्तान सखा रोमपाद को प्रदान किया था। दाक्षिणात्य व उदीच्य पाठों में भी शांता लोमपाद की पुत्री मानी गई है। दाक्षिणात्य पाठ में कुछ अस्पष्टता भी है।
दाक्षिणात्य पाठ में दशरथ तथा रोमपाद की घनिष्ठता की ओर निर्देश किया गया है (अंगराजेन सख्यं १, ११,३; सख्यं संबंधकं चैव तदा तं प्रत्यपूजयत १, ११, १८)। साथ-साथ इसका भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया गया है कि शांता रोमपाद की ही पुत्री थी (दे० १, ६, १३ और १, ११, १९), जिसे रोमपाद ने ऋष्यश्रृंग को पत्नीस्वरूप प्रदान किया था ( ०१, १०, ३२)। सुमंत्र के परामर्श के अनुसार दशरथ रोमपाद के यहाँ जाकर निवेदन करते हैं कि ऋष्यशृंग अयोध्या में अश्वमेध का अनुष्ठान करें। अत: ऋष्यशृंग सपत्नीक दशरथ के साथ अयोध्या आते हैं। इस अवसर पर कहीं भी संकेत मात्र भी नहीं मिलता कि शान्ता अपने मायके वापस आ गई हैं (१, ११, ३०)। इसके अतिरिक्त दशरथ को ‘अनपत्य’ अर्थात् नि:संतान कहा गया है (१, ११, ५) ।
महाभारत में लोमपाद को दशरथ का मित्र (सखा दशरथस्य- ३, ११०, १९) कहते हुए इसका कई स्थलों पर स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि लोमपाद ने अपनी पुत्री शान्ता ऋष्यश्रृंग को प्रदान किया था (द०३, ११०,५; १२, २२६, ३५; १३, १३७, २५)।
पुराणों में शांता का बहुत उल्लेख किया है.
हरिवंश, मत्स्य, वायु तथा ब्रह्म पुराणों के अनुसार अंगराज चित्ररथ के पुत्र के दो नाम थे : दशरथ तथा लोमपाद । अतः शान्ता पहले अंगराज दशरथ की पुत्री तो मानी गई थी, किन्तु अयोध्या नरेश (अज-पुत्र) दशरथ कहीं अधिक विख्यात थे, अतः शान्ता बाद में उन्हीं दशरथ की पुत्री मानी जाने लगी होंगी। हरिवंश का उद्धरण इस प्रकार है-
अथ चित्ररथस्यापि पुत्र दशरथोऽभवत् ।
लोमपाद इति ख्यातो यस्य शांता सुताऽभवत् ॥४६॥
(पर्व-1, अध्याय- 31)
रामकथा संबंधी परवर्ती रचनाओं में बहुधा अयोध्यानरेश दशरथ की पुत्री शान्ता का उल्लेख किया गया है; उदाहरणार्थ विष्णु पुराण (५,१५,१८); भागवत पुराण (६, २३, ८); भवभूति का उत्तररामचरित (अंक १ को प्रस्तावना); स्कंद पुराण (नागर खण्ड, अध्याय ६८) ; पद्म पुराण के गौडीय पाठ के पातालखण्ड (अध्याय १२) (१, १, ; आनन्द रामायण, १६-१७); असमिया बालकाण्ड (अ. १८) 3 मराठी भावार्थ रामायण, सारला दास का उड़िया महाभारत। बलराम दास रामायण में शांता कौशल्या की पुत्री है। भावार्थ रामायण में इंद्र दशरथ को शांता तथा ऋष्यशृंग का विवाह सम्पन्न करने का परामर्श देते हैं (१, १)। रामायण के टीकाकार गोविन्द राज ने अपने उद्धरण (१, ९, १६ ) में शान्ता को दशरथ की औरस पुत्री माना है।
“जामाता रोमपादस्य दशरथस्यापि वा।
दशरथस्यौरसी शांता दत्ता रोमपादस्य।”
इसके अतिरिक्त रामायण के सर्ग ११ में निम्नलिखित उद्धरण है-
इक्ष्वाकूणां कुले जातो भविष्यति धार्मिक:।
नाम्ना दशरथो राजा श्रीमान्सत्यप्रतिश्रवः ॥ २ ॥
अंगराजेन सख्यं च तस्य राज्ञो भविष्यति।
कन्या चास्य महाभागा शान्ता नाम भविष्यति ॥ ३ ॥
इसमें ‘अस्य’ स्पष्ट रूप से अंगराज से सम्बन्ध रखता है, किन्तु अमरेश्वर ठाकुर के संस्करण से पता चलता है कि बंगाल तथा बड़ौदा संस्करण की कुछ हस्तलिपियों में ‘अस्य’ के स्थान पर ‘तस्य’ मिलता हैं, जिससे शान्ता दशरथ की पुत्री सिद्ध होती हैं। इसी श्लोक के अनन्तर गौडीय तथा पश्चिमोत्तरीय पाठों में दशरथ द्वारा अपनी पुत्री शान्ता को प्रदान करने का वृत्तान्त दिया गया है :
अंगराजोऽनपत्यस्तु लोमपादो भविष्यति ।
स राजा दशरथ प्रार्थयिष्यति भूमिपः ॥४॥
अनपत्याय मे कन्यां सखे दाता त्वमहं सि ।
शान्तां शांतेन मनसा पुत्रार्थ वरवणिनी ॥५॥
(गौ० रा. सर्ग 10; प० रा० सर्ग- 9)
रामायण के सर्ग 11 में रोमपाद तथा दशरथ के ‘संबंधों’ का जो उल्लेख है, उसे राम वर्मा तथा गोविन्दराज यह अर्थ देते हैं कि शान्ता दशरथ की पुत्री थी, जिसे उन्होंने रोमपाद को प्रदान किया था (दे० १, ११, १८)। कृत्तिवास (१, २६) के अनुसार दशरथ ने निस्सन्तान लोमपाद को अपनी पहली सन्तान देने की प्रतिज्ञा की थी। अतः जब उनकी पत्नी (भार्गव राजा की पुत्री) एक कन्या को जन्म देती है, दशरथ उसका नाम हेमलता रखकर उसे लोमपाद के यहाँ भेजते हैं । बाद में हेमलता नाम का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु दशरथ द्वारा दी हुई कन्या का नाम शान्ता ही माना जाता है। बङ्गाल की रामकथाओं में दशरथ की पुत्री का प्रायः उल्लेख मिलता है। अद्भुताचार्य के रामायण में इसका नाम शान्ता ही है, किन्तु चन्द्रावती कृत रामायण में कुकुआ नामक कैकेयी की एक पुत्री की चर्चा है।
पुराने उद्धरणों के अनुसार सुवर्चस् रामायण में सीता द्वारा शान्ता को शाप तथा उसके पक्षि-योनि प्राप्त करने की कथा होने का उल्लेख मिलता है, लेकिन यह ग्रंथ अब अनुपलब्ध है।
विदेशों की रामकथा ग्रंथों में कुछ में शान्ता का उल्लेख..
विदेशों की रामकथा ग्रंथों में कुछ में दशरथ की पुत्री का उल्लेख है। हिन्देशिया (इंडोनेशिया) के सेरी राम में इसका नाम कीकवी है और वह भरत-शत्रुघ्न की सहोदरी मानी जाती है। श्याम के राम जातक तथा पालक पालाम में दशरथ की पुत्री शांता का विवाह रावण के साथ सम्पन्न हो जाता है। दशरथ जातक में सीता को दशरथ की पुत्री माना गया है। शान्ता की जन्मकथा माधवदासकृत विचित्र रामायण के अनुसार इस प्रकार है।
इन्द्र के यहां जाते समय दशरथ ने उतावली के कारण गोमाता तथा मुनि ताराक्ष्य की अवज्ञा की थी और मुनि ने उन्हें निस्सन्तान होने का शाप दिया था। लौटते समय दशरथ फिर उस मुनि से मिले। दशरथ की अनुनय-विनय को सुनकर मुनि ने शाप बदलकर कहा- तुम्हारी पहली सन्तान एक लड़की होगी; तुमको उसे ऋष्यशृंग को देना चाहिये। ऋष्यशृंग से यज्ञ करवा कर तुम्हें पुत्र उत्पन्न होंगे। बाद में शान्ता के स्वयंवर के अवसर पर परशुराम आ पहुँचते हैं तथा ऋष्यशृंग के साथ कन्या का विवाह कराने का आदेश देते हैं; इस पर एक वेश्या को भेजा जाता है, जो ऋष्यशृंग को ले आती है और ऋष्यशृंग तथा शान्ता का विवाह सम्पन्न हो जाता है ।
ऋष्यशृंग नाम स्वयं में विचित्र सा लगता है। यह नाम शायद ही दुहराया गया। महाभारत के भीष्मपर्व में ऋष्यशृंग नामक राक्षस के पुत्र अलंबुष की कथा है, जो अर्जुन की नागवंशी पत्नी उलूपी के पुत्र इरावान् की छलपूर्वक गरुड़ रूप में हत्या कर देता है। महाभारत में ऋष्यशृंग नामक राक्षस का उल्लेख उसे भारतीय संस्कृति से इतर होने का संकेत देता है। यही संकेत रोमपाद नाम से भी मिलता है। कुछ विचारकों का मानना है कि रोमपाद मूलतः रोमन संस्कृति के थे। ऋष्यशृंग के पिता विभांडक कश्यप गोत्र के थे. कश्यप को संस्कृति की विभिन्न जातियों का जनक माना जाता है. उनका क्षेत्र कैस्पियन सागर के पास माना जाता रहा है, जो प्राचीन काल में कश्यप सागर कहा जाता था।
वैसे राम की कथा जितनी दूर तक फैली, उसे देखते हुए अप्रत्याशित नहीं लगता. इसी तरह सुमेरियाई संस्कृति के महाकाव्य गिलगमेश में जिस एनकिदु नामक नायक का चित्रण है, वह ऋष्यशृंग का ही रूपांतर माना जाता है। एनकिदु को देवताओं ने मिट्टी और पानी से बनाया था, उरुक लोगों के बर्बर राजा गिलगमेश के संहार के लिए. वह मोग्गलि की तरह जंगल में जानवरों के द्वारा पला बढ़ा.
ऋष्यशृंग का अर्थ है, ऋषि-अशृंग अर्थात् वह ऋषि जो अशृंग रहा हो या कर दिया गया हो। भारतीय ग्रंथों ने इसकी व्याख्या में यह कहा कि जन्म से ही ऋष्यशृंग के माथे पर एक सींग (शृंग) था, अतः उनका यह नाम पड़ा। परंतु गिलगमेश में एनकिदु ने किसी सींग वाले साँड़ को सींग पकड़ कर मार डाला था। ऐसे में यदि एनकिदु की कहानी से जोड़ें, तो ऋषि-अशृंग का अर्थ होगा, वह ऋषि, जिसे अशृंग कर दिया हो। एनकिदु को आगे चित्रों में बैल के सींग जैसा मुकुट लगाये दिखाया गया है।
ऋष्यशृंग व एनकिदु दोनों जंगल में पले हैं, सांसारिकता से दूर हैं, स्त्री जाति को उन्होंने देखा तक नहीं है। भारतीय कहानियों के अनुसार ऋष्यशृंग विभाण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। विभाण्डक ने इतना कठोर तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशी को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया, जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी। उर्वशी का लक्ष्य पूरा हो चुका था, अत: ऋष्यशृंग के जन्म के बाद वह विभांडक ही नहीं, पुत्र को भी छोड़कर स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान कर गई। इससे विभण्डक इतने आहत हुये कि उन्हें नारी जाति से घृणा हो गई तथा उन्होंने अपने पुत्र ऋष्यशृंग पर नारी की छाया भी न पड़ने देने की ठान ली।
इसी उद्देश्य से वह ऋष्यशृंग का पालन-पोषण एक अरण्य में करने लगे। एक कथा के अनुसार वह अरण्य अंगदेश की सीमा से संलग्न था। उनके घोर तप तथा क्रोध के परिणाम अंगदेश को भुगतने पड़े, जहाँ भयंकर अकाल छा गया। अंगराज रोमपाद (चित्ररथ) ने ऋषियों तथा मंत्रियों से मंत्रणा की तथा इस निष्कर्ष में पहुँचे कि यदि किसी भी तरह से ऋष्यशृंग को अंगदेश की धरती में ले आया जाता है, तो उनकी यह विपदा दूर हो जायेगी। अतः राजा ने ऋष्यशृंग को रिझाने के लिए देवदासियों का सहारा लिया, क्योंकि ऋष्यशृंग ने जन्म लेने के पश्चात् कभी नारी का अवलोकन नहीं किया था। और ऐसा ही हुआ भी। ऋष्यशृंग का अंगदेश में न केवल हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया गया, अपितु उनके पिता के क्रोध को कम करने व ऋष्यशृंग को प्रसन्न करने के लिए रोमपाद ने अपनी पुत्री शान्ता का हाथ ऋष्यशृंग को सौंप दिया।
भारत के कई जातियों ने ऋष्यशृंग को अपना पूर्वज माना..
ऋष्यशृंग को भारत में कुछ जातियों ने अपना पूर्वज माना है। ब्राह्मणों में शृंगी और राजपूतों में सेंगर उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं। उल्लेखनीय है कि साधु-संन्यासियों का एक वर्ग शृंग धारण करता रहा है। यह प्रायः वाद्य यंत्र के रूप में काम आता था। उसमें नाथ संप्रदाय के भर्तृहरि के अनुयायी योगी भी सम्मिलित हैं। बौद्धों में भी कुछ में शृंग धारण की परंपरा रही है, जो प्रायः नमक रखने के काम आता है।
सुना है, जिस स्थान पर ऋष्यशृंग ने यज्ञ करवाये थे। वह अयोध्या से लगभग 39 कि.मी. पूर्व में था और वहाँ आज भी उनका आश्रम है और उनकी तथा शांता की समाधियाँ हैं। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में शृंगी ऋषि का मंदिर भी है। कुल्लू शहर से इसकी दूरी करीब 50 किमी है। इस मंदिर में शृंगी ऋषि के साथ देवी शांता की प्रतिमा विराजमान है। कर्नाटक के शृंगेरी का नामकरण भी उन्हीं के नाम पर हुआ मानते हैं।