शारदा शुक्ला, वरिष्ठ पत्रकार।
राजकपूर का परिचय लिखकर लेख की शुरूआत करना मेरे हिसाब से समय और शब्द दोनों की बर्बादी करना है। मेरी सात साल की बेटी राजकपूर को टेलीविजन के पर्दे पर देखकर अगर आवारा-आवारा कहने लगती है और बूट पॉलिश फिल्म वो एक बार में पूरी देख जाती है तो इसके मायने क्या निकाले जायें, यही ना कि राजकपूर आज भी सामायिक है। उनकी कही कहानियां आज भी हर उम्र भर वर्ग के दिलों को छूती है,और दिमाग से सोचने वालों के लिए उनके विषय आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने उस काल में थे जब उन्हें सोचा गया और सुना गया।
राजकपूर आजादी के बाद नये भारत के नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित थे। चूंकि उनका अस्त्र सिनेमा था इसलिए उस समाजवाद को उन्होंने सिनेमा के जरिए दिखाया।उनकी फिल्में एक वर्ग के पूरे मनोविज्ञान को लेकर आगे बढ़ती हैं। उनका युवा नायक एक ओर प्रेम में सारी सीमाएं लांघता है और बेरोजगारी से परेशान हैं।वो डिग्री हाथ में लिए नौकरी के लिए जगह जगह धक्के खाता फिरता है।लॉण्ड्री में कपड़े प्रेस करता है। जुआरी बनता है, पॉकेटमार बनता है।वो रोटी के लिए संघर्ष करते करते जेल की सलाखों के पीछे पहुंच जाता है।वो ग़लत होते हुए भी सहानुभूति का पात्र है।विषय की यही व्यापकता राजकपूर को देश-काल के परे ले जाती है और वो सोवियत रूस से लेकर चीन तक लोकप्रिय हो जाते हैं। ‘आवारा’ माओ त्से तुंग की पसंदीदा फिल्म बन जाती है।
विराट था राजकपूर का सिनेमा। उसका कैनवस इतना बड़ा होता था कि उसमें संगीत, कहानी,विषय, कॉस्ट्यूम, लोकेशन, कैमरा, एडीटिंग, लाइटिंग सब कुछ विशाल और कलात्मक होते थे। यहां तक कि कैमरा कितना ज़ूम इन करेगा, दृश्य कैसे फेड आउट हो रहा है, उसमें भी एक कहानी छिपी होती थी। उनका फिल्माया गीत प्यार हुआ इकरार हुआ है,प्यार से फिर क्यों डरता है दिल , हिंदी सिनेमा का अब तक का सबसे रोमांटिक गीत है।इस गीत जैसी बरसात क्या दर्शकों को कहीं और देखने को मिलती है।
राजकपूर की एक और फिल्म है जिसने उन्हें वैश्विक पटल पर पहचान दिलाई। फ़िल्म है ‘जागते रहो’। इस फिल्म को कार्लोरीवेरी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ग्रैंड प्रीं पुरस्कार मिला। ये फिल्म दोहरा जीवन जीने वाले समाज के मुंह पर एक तमाचा थी शायद इसलिए इस फिल्म को शुरुआती दौर में लोगों ने नकार दिया था।
श्री420, चोरी चोरी, अनाड़ी,नीलकमल, बरसात, दास्तान,बावरे नैन,सरगम, बेवफा, छलिया,जिस देश में गंगा बहती है, दिल ही तो है,संगम, तीसरी कसम,मेरा नाम जोकर,प्रेम रोग,सत्यम् शिवम् सुंदरम् राजकपूर की कुछ सफल और चर्चित फिल्में हैं। ऐसा नहीं है कि राजकपूर ने कभी असफलता का स्वाद नहीं चखा। शुरुआती दौर में दिल की रानी, चितौड़ विजय,अमर प्रेम, उनकी असफल फ़िल्में थी।’आग’, के लिए तो यहां तक कहा गया कि इस फिल्म में राजकपूर का सब कुछ जलकर खाक हो गया था। हां ये बात और है कि सालों बाद इसी फ़िल्म को उन्होंने दोबारा थोड़े बहुत फेर बदल के साथ बनाया। नाम दिया ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ । ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही।
इसके अलावा श्रीमान सत्यवादी, आशिक,मेरा नाम जोकर आदि उनकी नाकाम फिल्में रहीं। हालांकि ‘मेरा नाम जोकर’ को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली और वो कालजयी फिल्म साबित हुई।
राजकपूर ने अपने समय की लगभग सभी नायिकाओं के साथ काम किया, लेकिन उनमें से नरगिस विशेष चर्चा में रहीं। नरगिस के अतिरिक्त जो नायिका राजकपूर के साथ रुपहले पर्दे पर सबसे ज्यादा दिखाई दी वो थी हिंदी सिनेमा की वीनस मधुबाला। मीना कुमारी के साथ वो ‘शारदा’ फ़िल्म में नज़र आये,तो वहीं नरगिस का साथ छूटने के बाद नूतन के नायक बने फिल्म अनाड़ी में। इस फिल्म के लिए राजकपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला। 1987 में वो दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजें गये। उन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन् 1971में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
जिस देश में गंगा बहती है (1962 ) और संगम (1965) के लिए भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर सम्मान मिला।संगम के लिए राजकपूर को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का भी सम्मान प्राप्त हुआ।
राजकपूर सिनेमा के बाज़ीगर थे।वो अपनी फिल्मों में जिन बेनाम रिश्तों की वकालत करते रहे दरअसल वही उनके जीवन का दर्शन था।जिसकी सबसे बड़ी मिसाल नरगिस के साथ उनका जगजाहिर रिश्ता है। इसी तरह शंकर जयकिशन, हसरत जयपुरी, मुकेश से भी वो ताजिंदगी प्रेम और कला के रिश्ते में बंधे रहे। ललिता पवांर और डेविड उनकी फिल्मों की जान हुआ करते थे।
शैलेंदर सिंह और शारदा जैसे गायक गायिका राजकपूर ने फिल्म इंडस्ट्री को दिये। निम्मी, डिंपल कपाड़िया,पद्ममिनी कोल्हापुरी सरीखी अभिनेत्रियों का परिचय रुपहले पर्दे से करवाया। रामानंद सागर जैसे लेखक को भी राजकपूर ही हिंदी सिनेमा में ले कर आएं।
2 जून 1988 को सिर्फ 63 साल की उम्र में राजकपूर हमें अलविदा कह गए, लेकिन खेल में ना होते हुए भी वो महफ़िल में मौजूद हैं और मौजूदगी भी ऐसी कि दर्शकों की नज़र उनसे हटती ही नहीं।