इस आलेख के लेखक डा.आशीष तिवारी मुंबई के प्रसिद्ध वरिष्ठ चिकित्सक, कवि, कहानीकार और ब्लाॅगर हैं
तारीख़ के पन्नों में झांक कर बिखरे पड़े हुए तमाम खूबसूरत और जख़्मी लम्हों के टुकड़ों को समेट कर एक मुकम्मल दस्तावेज़ी इमारत खड़ी कर देना किसी जादूगर के बस की ही बात हो सकती है । कुछ ऐसा ही हुआ जब उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर इटावा से मुम्बई आये आसिफ करीमुद्दीन जिन्हे हम सब के.आसिफ के नाम से जानते हैं । उनके डायरेक्शन में केवल 2 फिल्में ही रिलीज हुईं और इनमें से एक भारत की फिल्मी तारीख़ के पन्नों पर सुनहरे हर्फों में दर्ज हो गयी । मैं बात कर रहा हूँ मुग़ल-ए-आज़म की । एक ऐसी फिल्म जिसका रुतबा आज तक किसी मुग़लिया सल्तनत की अज़ीम शानोशौकत से कम नही रहा है । ये हिन्दी सिनेमा का एक ऐसा मुकाम है जिसके पार जाना अब मुमकिन नही ।
मुग़ल-ए-आज़म फिल्म के साथ जुड़े किस्से जितने मशहूर है उतने दिलचस्प भी । इस फिल्म के बनने से जुड़ी ऐसी ऐसी रोमांचक बातें और किस्से हैं कि लोग बस सुनते रह जायें । 1944 की सोच को आगे बढ़ाते हुए 1946 में इस फिल्म का निर्माण शुरू हुआ था । पर 1947 में बंटवारे के समय इसके प्रोड्यूसर शिराज़ अली भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गये और उसके कुछ समय बाद इस फिल्म के हीरो चंद्रमोहन की मौत हो गयी । इसके बाद इस फिल्म का काम रुक गया । के. आसिफ 1950 में देश के विख्यात हीरा व्यापारी शापूरजी पालनजी (शापूरजी पालनजी ग्रुप वाले) से मिले और उन्हे फिल्म को फायनेंस करने के लिए आखिरकार राजी कर लिया । शापूरजी पालनजी द्वारा निर्मित यह पहली और आखिरी फिल्म थी हालांकि गंगा जमुना में उन्होने दिलीप कुमार को फायनेंस किया था । यह फिल्म 16 साल में बनकर तैयार हुई जो कि आज तक एक रिकार्ड है ।
शहंशाह अक़बर के किरदार में पृथ्वी राज कपूर को लिया गया था । उन्होने इस महान किरदार को दिलोजाँ से निभाते हुए उन दस सालों में केवल एक ही दूसरी फिल्म में काम किया था । मुग़ल-ए-आज़म में सलीम के किरदार के लिए के.आसिफ ने दिलीप कुमार को पहले नकार दिया था और बाद में दिलीप कुमार तैयार नही हुए पर शापोरजी पालनजी की कोशिशों से दिलीप कुमार बड़ी मुश्किल से तैयार हो गये । अनारकली का रोल पहले सुरैया को मिलना था बाद में वो मधुबाला को मिला । इस फिल्म के सेट्स 6 हफ्तों में तैयार हुए थे । “प्यार किया तो डरना क्या” गाने का सेट यानी कि खूबसूरत,नक्काशीदार,जादुई शीशमहल जो कि 150 फीट लंबा, 80 फीट चौड़ा और 35 फीट उँचा था । उसे बेल्जियम से लाये गये शीशों से उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद के कारीगरों ने बनाया था । इस सेट को बनाने में दो साल लगे और खर्च आया लगभग 15 लाख रुपये । याद रहे कि उस समय फिल्में लगभग 3-4 लाख रुपये में बन जाती थीं । कास्ट्यूम्स दिल्ली के जरदोजी एक्सपर्ट दर्जियों ने सिले । जूते और जूतियाँ आदि आगरा के कारीगरों से और आभूषण हैदराबाद के कारीगरों से बनवाये गये । तमाम ताज, मुकुट आदि कोल्हापुरी कारीगरों से बनवाये गये थे । हथियार और दूसरे युद्ध के सामान राजस्थान के कारीगरों ने बनाये थे ।
इस फिल्म के आलीशान और रोमांचक युद्ध के दृश्यों को फिल्माने में उस समय लगभग 2000 ऊंट, 4000 घोड़े और 8000 व्यक्तियों का इस्तेमाल हुआ इनमें से कुछ सेना के जवान भी थे । इस फिल्म का हर शाॅट 3 बार फिल्माया गया था क्यों कि इसे 3 भाषाओं हिन्दी, तमिल और अंग्रेजी के लिए बनाना था । उस समय शूटिंग 14 कैमरों के साथ हुई थी । उर्दू की गुफ़्तगूँ लिखने के लिए उर्दू के चार महारथियों कमाल अमरोही, अमानउल्लाह खान,वज़ाहत मिर्ज़ा और एहसान रिज़वी को एक साथ बैठाया गया । डायलाॅग्स कैसे लिखे गये थे अगली किश्त में बताऊंगा ।
इस फिल्म की शूटिंग में बड़ी मुसीबतें आयीं । कभी कभी एक छोटे शाॅट को फिल्माने में 8-8 घंटे लग जाते थे । उन दिनों जब तमाम फिल्मों की शूटिंग 60-100 दिन में पूरी हो जाती थी तब इस फिल्म की शूटिंग में 500 से अधिक दिन लग गये थे। फिल्म का काफी हिस्सा बन जाने के बाद उस समय रंगीन फिल्म बनाने की तकनीक भारत में आयी तब के.आसिफ ने “प्यार किया तो डरना क्या” गाना और 4 रील की फिल्म को टेक्नीकलर में फिल्मा लिया। वो पूरी फिल्म को रंगीन में रिशूट करने को तैयार थे लेकिन बजट अधिक हो जाने व बहुत देरी हो जाने के कारण यह ख्याल छोड़ना पड़ा । आमतौर पर एक 3 घंटे की फिल्म की लंबाई 18000 फीट होती है । इस फिल्म की लंबाई 19700 फीट थी पर शूटिंग करते करते इस फिल्म की कुल रील की लंबाई 10 लाख फीट से अधिक हो चुकी थी । ऐसे में इसकी एडीटिंग करके इसे 19700 फीट तक सही सही काटना एवरेस्ट चढ़ने से कम ना था । इस फिल्म में भगवान कृष्ण की जो मूर्ति दिखाई गयी थी वो शुद्ध सोने की बनी हुई थी ।
फिल्म में संगीत नौशाद का था और गीत लिखे थे शकील बदायूँनी ने । आसिफ एक दिन रुपयों का भरा बैग लेकर नौशाद के घर पहुँच गये और उनसे कहा कि मुझे इस फिल्म के लिए एक यादगार मौसिकी चाहिए और उस मौसिकी के लिए नौशाद को मुँहमांगी कीमत देने की बात कह दी । अपने संगीत को रुपयों में तुलता देखकर नौशाद नाराज़ हो गये और वो रुपये खिड़की से से बाहर फेंक दिये । फिर नौशाद की बेगम के कारण बड़ी मुश्किल से बात बन सकी । आसिफ इस फिल्म में महान क्लासिकल गायक बड़े ग़ुलाम अली खाँ से एक दो गाने गवाना चाहते थे । खाँ साहब फिल्मों से बड़े दूर थे इसलिए मना कर दिया । पर आसिफ तो धुन के पक्के थे बोले कि खाँ साहब मुँह मांगी रकम दूँगा तो खाँ साहब बोले कि एक गाने के 25000 लूँगा । यह ऐसी रकम थी जिसे देना असंभव था क्यों कि उस समय के सुपरस्टार गायक रफी और लता की फीस 300 रुपये हुआ करती थी । पर आसिफ तुरंत राजी हो गये और 25000 एडवाँस निकाल कर खाँ साहब को दे दिये ।इस तरह खाँ साहब को इस फिल्म में दो गाने गाने पड़े । यह यह फिल्म लगभग 20 रील की थी जो कि 197 मिनट लंबी थी जिसमें 12 गाने लगभग 49 मिनट के डाले गये थे हालांकि नौशाद ने 20 गाने रिकार्ड किये थे और हर गाने का खर्चा रु 3000 आया था पर केवल 12 गाने फिल्म में लिये गये थे । शकील बदायूँनी को “प्यार किया तो डरना क्या” वाले गाने को करीब 110 बार लिखना पड़ा था और “ऐ मोहब्बत जिंदाबाद” गाने को रफी के साथ मिलकर 100 गायकों ने गाया था ।
इस फिल्म की मार्केटिंग के लिए मशहूर पेंटर जी. कांबले को पोस्टर बनाने के लिए लिया गया और उस समय की मशहूर पेंट कंपनी विंसर एंड न्यूटन का करीब करीब सारा पेंट 6 लाख रुपये में खरीद लिया गया था । उस समय एक अच्छी फिल्म हर टेरीटरी में 3 से 4 लाख रुपये में बिकती थी । यह फिल्म हर टेरीटरी में 17 लाख रुपये में बिकी । जो कि एक रिकार्ड था । मुंबई के मशहूर मराठा मंदिर को एक मुग़लिया किले की तरह बनाया और सजाया गया । फिल्म में बनाये गये शीशमहल के सेट को इस सिनेमाघर तक लाया गया और फिल्म देखने वाले हर दर्शक को इसे देखने का मौका मिला । इस फिल्म के दावतनामें को बादशाह अक़बर के जमाने के शाही दावतनामें की तरह बनाया गया था । फिल्म की रील्स को हाथी पर सजाकर गाजे बाजे के संग मराठा मंदिर तक लाया गया था ।
बुकिंग के एक दिन पहले टिकट पाने के लिए लगभग एक लाख लोगों की भीड़ इकठ्ठी हो गयी थी जो कि आज तक का रिकार्ड है और दंगा फसाद की नौबत आ गयी थी । उस समय टिकटों की कीमत लगभग 1.5 रुपये हुआ करती थी पर इस फिल्म की टिकट्स 100 रुपये की थीं । लोग चार से पाँच दिन तक लाईन में लग कर टिकट खरीदने को उतावले रहते थे । भीड़ और उपद्रव के कारण मराठा मंदिर को शुरू में 3 हफ्ते बुकिंग बंद करनी पड़ी थी । यह फिल्म देश के 150 सिनेमाघरों में रिलीज हुई जो कि एक रिकार्ड था और इसने पहले ही हफ्ते में 40 लाख कमा लिए थे यह भी एक रिकार्ड था । आखिरकार 1.5 करोड़ में बनी फिल्म ने 11 करोड़ कमाये और निर्माता को 3 करोड़ का मुनाफा हुआ । मराठा मंदिर में यह फिल्म लगातार 3 साल चली थी ।
के.आसिफ एक आम फिल्म डायरेक्टर नही थे । अलबत्ता वो किसी शहंशाह की रूह लिए एक अज़ीम शख्सियत थे । इस कदर सपनों की रुपहली दुनिया में मरहूम किरदारों को जिन्दा कर देना किसी करिश्में से कम नही था । वो करामाती जादूगर हमारे दिल की जमीं पर सदियों पुरानी एक कहानी को गढ़कर अपना जलवा बिखेर गया । जब जब फिल्मों की बात चलेगी तब तब के.आसिफ और मुग़ल-ए-आज़म का जिक्र होना लाज़िमी होगा । जब जब बादशाह अकबर पर बनी फिल्मों का जिक्र होगा तब तब मुग़ल-ए-आज़म के.आसिफ की हथेलियों पर सजी पहले पायदान पर खड़ी मिलेगी ।