- इनका शहर निकाला, गांव निकाला बंद हो
- आश्रय स्थल स्थायी विकल्प नहीं हो सकता।
- शहर में जिनके पास जगह हो एक गाय रखें उसका गोबर चार्ज वसूल कर नगर निगम लें।
- गांव में भी गोपालकों से गोबर खरीद हो जैविक खाद तैयार किया जाय।
गोभक्तों की सरकार के जमाने में गोवंश ही सबसे संकट में है। गांव से निकाला, शहर से निकाला। आखिर ये जाएं तो जाएं कहां। सरकारी आश्रय स्थल स्थायी विकल्प हो ही नहीं सकता। इस बीच छत्तीसगढ़ की सरकार ने गोवंश की उपयोगिता बढ़ाने के लिए गोपालकों से गोबर खरीदना शुरू किया। अब बनारस से खबर है कोई कंपनी गोपालकों से गोबर खरीदने जा रही है। इससे समझा जा सकता है कि गाय की उपयोगिता कितनी है पर हमारे नीति-नियंता इसे विलेन बनाते जा रहे हैं।ऐसे तो गोपालन ही खत्म हो जाएगा।
सरकार लगातार नियमों के पेंच में गोपालन को बांधती जा रही है। यदि यही हाल रहा तो गोपालक इस कार्य से पूरी तरह किनारा ही कस लेंगे। पहले कोर्ट से चाबुक अब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से।
अब बोर्ड का फरमान है कि डेयरी गोशाला के गोबर और मूत्र से प्रदूषण फैलता है। इस कारण आवास और नदी या तालाब के पास न रखा जाय। अब कोई इनसे पूछे कि गाय घर के पास नहीं बंधेगी तो जंगल में बंधेगी। नदी और तालाब के निकट रहने पर जानवर आसानी से पानी पी लेते हैं। गोबर और गोमूत्र से ज्यादा खतरनाक तो तमाम कंपनियों से निकलने वाला केमिकल युक्त सीवर का पानी है जो सीधे नदियों में जा रहा है। प्रदूषण के नाम पर भारत के एक पारंपरिक घरेलू उद्योग को बर्बाद किया जा रहा है। एक गरीब आदमी एक दो मवेशी रख अपने जीवन का निर्वाह कर लेता था। वह उससे तौबा कर लेगा। दूध का उत्पादन घटेगा और गायें कुसेवा की शिकार होंगी। पाकेटबंद दूध बढ़ेगा। बड़ी कंपनियों की मोनोपली हो जाएगी। अपने देश का एक पुराना कार्य जो आस्था विश्वास से भी जुड़ा है बंदिशों की जकड़न के कारण मृत हो जाएगा।
होना तो यह चाहिए कि गोपालन की पक्षधर सरकार अपनी पशुशक्ति को नियोजित करती और उनसे निकलने वाले गोबर का कलेक्शन करा कृषि सहकारिता विभाग के माध्यम से कंपोस्ट खाद किसानों को कम से कम दाम में उपलब्ध कराती। इससे रासायनिक खादों का उपयोग घटता और जैविक खेती को प्रोत्साहन मिलता। ये प्रदूषण की तलवार नहीं चलती। ये पंचायतों और नगर निगमों की इनकम का अच्छा स्त्रोत हो जाता। नगर क्षेत्र में निकाय हर तीसरे दिन या नियमित गोबर उठवाकर शहर के बाहरी हिस्से में गोबर गैस प्लांट लगा बिजली कंपोस्ट खाद तैयार कराएं। वह कृषि विभाग से भी टाइअप कर सकती है। वैसे पार्क और पेड़ों के लिए भी खाद सुलभ होगी। नगर की मलिन बस्ती को खाना बनाने की गैस और लाइट मिल सकेगी। ऐसे में गोपालन को डिस्करेज करने के बजाय नियोजन के साथ प्रोत्साहित करना चाहिए वरना एक बार खत्म होने के बाद फिर से इसे खड़ा करना कठिन होगा। वैसे भी गांवों में भी पशुपालन की दशा ख़राब है। उसे प्रोत्साहन चाहिए। गांव के खादी सहित तमाम कुटीर उद्योग पहले ही उखड़ चुके हैं। पशुपालन को प्रदूषण के कथित नियमों के अंकुश से बाहर करना होगा और उसे सकारात्मक दृष्टिकोण से जोड़ कर देखना होगा वरना देश की सेहत के साथ लोगों की रोजी-रोटी भी जाएगी। जब अच्छा दूध पिएगा तभी तो देश रहेगा नंबर वन। याद रखिए पाकेट के दूध से नहीं दौड़ेगा भारत।
यह स्पष्ट है कि गाय दूध के साथ ही गोबर व गोमूत्र से भी मुनाफा देती है इसके लिए नियोजित प्रयास की आवश्यकता है। भारत में गाय गंगा की कद्र नहीं तो किसकी कद्र होगी।
फिलहाल सरकार को गाय गोबर और गोमूत्र के महत्व के साथ ही अर्थशास्त्र को समझना होगा। यदि कोई शहर में भी पाले तो उसके गोबर की उठान नगर निगम सुनिश्चित करें और संबंधित व्यक्ति उसे पैसा दे। यह इतना अधिक न हो कि वह उसे देने में तबाह हो जाय। हां, उसे गाय सड़क पर छोड़ने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। सफाई बराबर होनी चाहिए। नगर निगम उस गोबर को कंपोस्ट में बदल अपने सभी उद्यान में डाल पैसों की बचत कर सकेगा। इसके अलावा मलिन बस्ती के आसपास गोबर गैस प्लांट बना लाइट और गैस की सप्लाई कर सकेगा। नगर निगम के लिए मुनाफे का सौदा हो सकता है पर अफसरशाही इतना टेंशन क्यों लें? कह दिया सर बहुत गंदगी होती है बहुत रोग फैलता है। मंत्रीजी भी क्यों टेंशन लें। इस तरह गोवंश दुर्दशा की स्थिति में है। उसके फायदे नहीं नुकसान प्रचारित किए जा रहे हैं। हैरानी की तो यह बात है कि कोई सरकारी गोभक्त कोई प्रतिवाद नहीं कर रहा है।
फिलहाल बनारस कि अच्छी सूचना गोबर खरीद हो रही इस पर खुशी हुआ जा सकता है। ईश्वर करें अन्य शहरों में इसका विस्तार हो।
http://ourthoght.blogspot.com/2020/08/blog-post_30.html