डा आलोक चांटिया
10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना हुई और उसी दिन 30 अनुच्छेदों वाला सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र भी जारी हुआ और यही कारण है कि 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस बात को सुनिश्चित किया गया कि प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाया जाएगा जिसके प्रकाश में ही 28 सितंबर 1993 को भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार अधिनियम 1993 बनाया गया लेकिन आज के समय में देखने में आ रही है कि लोग मुहावरे की तरह मानवाधिकार का उपयोग करने लगे हैं लेकिन वास्तविकता में वह मानवाधिकार को समझने से बहुत दूर है इसीलिए आज सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस पर प्रत्येक व्यक्ति न्यूनतम रूप से यह जाने कि जब व्यक्ति के जीवन स्वतंत्रता गरिमा और समानता और न्याय पाने का अधिकार स्थापित होता है या उसका प्रयास होता है तभी मानवाधिकार का जन्म होता है और इसीलिए 1979 में इस बात पर विवेचना की जाने लगी कि मानवाधिकार को भी श्रेणी कृत किया जाना चाहिए यदि वर्तमान में किसी व्यक्ति से यह कहा जाए कि वह ग्रीन मानवाधिकार रेड मानवाधिकार जैसी श्रेणियों से होकर अपना जीवन चला रहा है तो एक अजीब सी स्थिति पैदा हो जाएगी जबकि अप्रत्यक्ष रूप से प्रथम श्रेणी का मानवाधिकार व्यक्ति के सिविल और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित है जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद तीन से 21 तक समझा जा सकता है क्यों किया वह अधिकार है जो व्यक्ति को मिलना ही है लेकिन उसके बाद यह भी महसूस किया गया कि केवल इन्हीं अधिकारों से कोई बात नहीं बनेगी और व्यक्ति के जीवन में आर्थिकी सामाजिकता और सांस्कृतिक मानवाधिकार की बात होनी चाहिए और यह दूसरे श्रेणी का मानवाधिकार हो गया।
इसके अंतर्गत व्यक्ति को एक मानक के अनुरूप मकान होना एक मानक के अनुरूप भोजन की व्यवस्था होना एक मानक के अनुरूप स्वास्थ्य की व्यवस्था होना आदि की कल्पना की गई है लेकिन यह अधिकार की श्रेणी में होते हुए भी या राज्य के संसाधनों पर निर्भर करता है कि वह अपनी जनता का किस स्तर तक और किस मानक तक दूसरे श्रेणी का मानवाधिकार पूर्ण कर सकता है कोई जरूरी नहीं है कि एक करोड़पति के घर की तरह एक गरीब का भी घर सरकार बना कर दे सके और यही कारण है कि रेड मानवाधिकार कह कर संबोधित किया जाता है लेकिन जागरूकता के दौर में और वैश्वीकरण के दौर में मानवाधिकार की तीसरी श्रेणी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि इस स्थिति में व्यक्ति द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि वह किसी अपना जनप्रतिनिधि चुने और मत देने का अधिकार इसके अंतर्गत महत्वपूर्ण तरीके से आता है लेकिन जिस तरह से मतों का प्रयोग धर्म जाति क्षेत्र आदि के रूप में प्रयोग किया जा रहा है उससे इस बात को समझा जा सकता है कि प्रजातांत्रिक परिधि में रहने वाले देशों में भारत जैसे देश सिर्फ इस अधिकार को लालच देकर व्यक्ति को गुमराह करने के लिए प्रयोग ज्यादा करते हैं यही कारण है कि व्यक्ति अपनी चेतना के आधार पर मतों का प्रयोग करने के बजाय सिर्फ अपने दूसरे श्रेणी के मानवाधिकार को पूर्ण करने के लालच में ऐसे जनप्रतिनिधियों का चुनाव करता है जो चेतना से दूर होते हैं यही कारण है कि तीसरी श्रेणी के मानवाधिकार की स्थापना पूर्णतया नहीं हो पाई है लेकिन इन तीनों श्रेणी के मानवाधिकारों के बीच जिस तरीके से विज्ञान ने अविष्कारों के द्वारा पूरी दुनिया को एक घर जैसा बना दिया है उसमें तकनीकी और दूरसंचार का योगदान बहुत ज्यादा है जिस तरह से आज मोबाइल कंप्यूटर के माध्यम से व्यक्ति सेकंडो में अपने घर में बैठे-बैठे पूरे विश्व को ना सिर्फ देख लेता है महसूस कर लेता है बल्कि अपना काम कर लेता है उसमें इस चौथी श्रेणी के मानवाधिकार का महत्व बढ़ गया है लेकिन यह मानवाधिकार भी सभी लोगों को दिया जा सकता है जब सरकार के पास संसाधन उतने हो और तीसरी श्रेणी के मानवाधिकार का प्रयोग करते हुए किसी भी देश के नागरिक में एक अच्छे जनप्रतिनिधि को चुना हो यही कारण है कि मानवाधिकार को श्रेणी मैं बांट करके इस बात का तो आभास कराया जाने लगा कि मानवाधिकार अपने विकास के क्रम में बहुत आगे जा चुका है लेकिन भारत जैसे देश में अभी भी प्रथम श्रेणी के ही मानव अधिकार को सुनिश्चित नहीं किया जा सका है हां कुछ-कुछ प्रतिशत में सारे मानवाधिकार की स्थापना है जिसको इस सुखद आधार पर महसूस किया जा सकता है कि भारत जैसे देश में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जग रही है लोगों में अधिकारों को पाने की चेतना जग रही है दूसरी श्रेणी के मानवाधिकार का सबसे अच्छा उदाहरण वर्तमान मैं चल रहा किसान आंदोलन है जिसमें सरकार के संसाधनों के विपरीत सरकार से उन मांगों को किया जा रहा है जिसको दे पाने में सरकार सक्षम नहीं दिखाई देती है और इसी व्यवस्था को तीसरी श्रेणी के मानवाधिकार से जोड़कर लोकतांत्रिक देश में चुनावी राजनीति की जाती है मतों को अपनी और लालच देकर आकर्षित करने का प्रयास किया जा रहा है।
इसलिए मानवाधिकार की स्थापना में लोगों के जागृत होने की आवश्यकता है क्योंकि जो मत का अधिकार उन्हें प्राप्त हुआ है उसका प्रयोग उन्हें अपनी चेतना के अनुसार करना था जो नहीं हो रहा है वर्ष 2021 में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस की थीम असमानता को घटाना और मानवाधिकार के लिए बढ़ना है जिससे भी स्थापित होता है कि 4 श्रेणियों में वर्गीकृत होने के बाद भी मानवाधिकार अभी भी प्रथम श्रेणी के मानवाधिकार में वैश्विक स्तर पर अपनी स्थापना के लिए लड़ रहा है पूरे विश्व में धर्म के अंतर्गत कई विभेद है जातियों के अंदर विभेद है रंग के आधार पर भी भेद हैं जिसके कारण लोगों के जीवन जीने का अधिकार सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है और यही कारण है कि मानवाधिकार का सबसे बड़ा मूल मंत्र आज भी असमानता को दूर करके सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र के प्रथम अनुच्छेद के अनुरूप सभी में इस भाव को स्थापित किया जाना शेष है कि सभी बराबर हैं सभी जन्म से स्वतंत्र हैं और सभी में बुद्धि और चेतना समान रूप से है लेकिन वैश्विक स्तर पर यह एक भगीरथ प्रयास होगा जब हम प्रथम श्रेणी के मानवाधिकार अर्थात सिविल और राजनीतिक अधिकारों को सुनिश्चित कर सकें जिसकी शुरुआत 1215 में इंग्लैंड द्वारा मैग्नाकार्टा की स्थापना से शुरू की गई थी और इस बात को स्वीकार करने में किसी को भी हिचक नहीं होगी कि सारे मानवाधिकारों में सबसे बड़ा अधिकारी यह है कि मनुष्य में धीरे-धीरे अपने जीवन के प्रति अनिश्चितता को लेकर एक भय बैठ रहा है और वह अपने को असुरक्षित पा रहा है उसे सुरक्षा और न्याय में होने वाले विलंब से डर लगने लगा है और इसलिए एक संप्रभु देश में पैदा होने के बाद भी वह अप्रत्यक्ष रूप से अपने को एक गुलाम और किसी तरह जी लेने वाला प्राणी समझकर ज्यादा देख रहा है जहां पर आकर मानवाधिकार हारता हुआ प्रतीत होता है और इसके लिए आवश्यक है कि कानूनों के जाल का विस्तार करते हुए लोगों में कानून के प्रति भय और शीघ्र न्याय देने की प्रक्रिया की स्थापना की जाए ताकि सजा पाने की स्थितियों में व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को बाधित पाते हुए एक नैतिकता का जीवन जीने का प्रयास कर सके यदि मानवाधिकार को एक सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो वृद्ध आश्रमों की बढ़ती हुई संख्या महिलाओं के साथ बढ़ने वाले बलात्कार छेड़छाड़ यौन उत्पीड़न एक तरफ जहां मानवाधिकार की विफलता को बताते हैं वही मानवाधिकार को कानून की चादर में लपेटकर लिविंग रिलेशन और अन्य कानूनों में संशोधन करके तथा वयस्क होने की आयु तथा उसके अंतर्गत संबंधों को लेकर दी जाने वाली स्वतंत्रता के आधार पर नागरिकों को न्यायिक प्रक्रिया से दूर करके या स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि धीरे-धीरे मानवाधिकार लोगों को ज्यादा प्राप्त हो रहा है जबकि सत्यता से कोसों दूर है।
ऐसा करके सिर्फ मानवाधिकार उल्लंघन को स्वतंत्रता के दायरे में लाकर इसे निजता का प्रकरण बताकर एक ऐसी स्थिति में ले जाया जा रहा है जहां पर व्यक्ति यह सोचकर अपने अधिकारों पर होने वाले अतिक्रमण और अपने शोषण को महसूस करता हूं अभी चुप रहे क्योंकि कानून की नजर में उसने स्वयं बिना किसी विरोध के इस तरह से रहना स्वीकार किया है और इस अर्थ में मानवाधिकार के उस पार यह देखने की आवश्यकता है कि जिसे मानवाधिकार संरक्षण कहा जा रहा है क्या वह सिर्फ तकनीकी के आधार पर विधिक व्यवस्था का वह विस्तार है जिसमें चाह कर भी अब व्यक्ति या नहीं कह सकता कि उसके अस्तित्व गरिमा के विरुद्ध होने वाला कार्य मानवाधिकार उल्लंघन है और इसी को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार पर समझने की आवश्यकता है उसके प्रति चेतना जगाने की आवश्यकता है डॉक्टर आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन (लेखक विगत दो दशकों से अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार जागरूकता के कार्यक्रम चला रहा है)