डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

आज की जिंदगी ऐसी हो गयी है कि व्यक्ति बिना मीडिया के रह ही नहीं सकता है और इसी लिए मीडिया अपने चरम पर है और इसमें सोशल मीडिया की पहली बात कर ले \ शोध ये कहते है कि अगर आप एक घंटे तक इलेक्ट्रिक डिवाइस पर लगातार काम करते है ( लैपटॉप डेस्क टॉप आदि ) तो ११ वाट का बल्ब से जितना कार्बन डाई ऑक्साइड निकलता है उतना आपके कमरे में फैला जाता है यानि आप अपनी मौत के बहुत करीब रहते है लेकिन मैं आज इस मीडिया की बात नहीं कर रहा हूँ मैं प्रिंट मीडिया की बात कर रहा हूँ जिससे आपकी सुबह शुरू होती है यानि समाचार पत्र …एक समाचार पत्र जब एक साल तक चल जाता है तो वो सरकार के यहाँ पंजीकृत समाचार पत्र हो जाता है जिसे अनुदान मिल सकता है और इसी लिए कुकुरमुत्तों की तरह रोज समाचार पत्र पंजीकृत हो रहे है क्योकि इससे एक साल बाद आप को अनुदान तो मिल ही सकता है इसके अल्वा आप के अधिकृत प्रत्कार का प्रमाणपत्र पा जाते है और अब आप कीजिये यात्रा और लीजिये छूट का मजा पर मैं ये भी नहीं कहना चाहता क्योकि समाचार पत्र में आज कल शुरू के ज्यादातर तीन चार पेज तो पूरे पूरे विज्ञापन के होते है और पूरे समाचार पत्र में तो पूछिये ही नहीं कितने विज्ञापन होते है अब समाचार पत्र विज्ञापन पत्र ज्यादा हो गए है |

आपको पता है कि अब सरकार और देश की ज्यादातर बड़ी कंपनिया आपको इस बात के लिए प्रेरित करती है की आप कागज का कम से कम उपयोग करें और साडी सूचनाये मोबाइल , ईमेल से प्राप्त करें अब ट्रैन का छोटा सा टिकेट हो या फिर आपका टेलीफोन बिल सब कुछ इस लिए इ लर्निंग दुनिया में उत्तर गए क्योकि कागज का कम से कम उपयोग हो | आप जानते ही है कि कागज को लकड़ी की लुगदी बनाकर बनाया जाता है जितना कागज उपयोग होगा उतने ही पेड़ काटे जायेंगे और पर्यावरण पर बुरा असर पड़ेगा , मौसम जड़ा गर्मी सब अस्त व्यस्त हो जायेंगे और इसी लिए ज्यादातर ग्रीन इंडिया का नारा दिया जाता है और ये सब वही कंपनी और सत्ता के लोग प्रचार करते है जिनके बड़े बड़े पूरे पूरे पेज के विज्ञापन आप रोज समाचार पत्र में देख सकते है | क्या रोज इतने व्यापक स्तर पर कागजो का उपयोग पर्यावरण को बर्बाद नहीं कर रहा है क्या ये खुला मानवाधिकार उल्लंघन नहीं है देश के नागरिको का !!!!!!!!!!!! सरकार इनको अनुदान क्यों दे रही है जब इनको विज्ञापन छाप कर देश में पर्यावरण ही बिगड़ना है क्या इस के लिए कोई नियम पर्यावरण संरक्षण अधिनियम १९८६ में कुछ नहीं दियाहै | सरकार को चाहिए कि समाचार पत्रों के लिए भी नियम बनाये कि वो ८य १० पेज से ज्यादा दैनिक अखबार नहीं निकाल सकते है वो किसी भी प्राइवेट कंपनी का विज्ञापन पूरे पेज पर नहीं छाप सकते और सरकार ये भी मानक तये करें कि कितने आकर का विज्ञापन छापने से पेड़ो की कटाई पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा और देश के लोगो का मानवाधिकार उल्लंघन नहीं होगा | क्या आपको नहीं लगता है की जिस देश में ग्रीन इंडिया का नारा दिया जा रहा है आपको इसी लिए कोई कागजी बिल नहीं दिया जा रहा है उसी देश में बेवजह के विज्ञापन से सीधे तौर पर पेड़ो की कटाई को बढ़ावा देकर सिर्फ जनता के मानवधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है और ये संविधान के अनुच्छेद २१ के विपरीत भी है जो जीने के अधिकार को सुनिश्चित करता है क्या संचार पत्र इस तरह विज्ञापन छाप कर लोगो को पेड़ रहित समाज में रहने को मजबूर कर सकते है अगर नहीं तो इस मानवाधिकार उल्लंघन पर सोचिये और कुछ लिखिए …………

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