डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
बेटी दिवस का अर्थ कितना तदर्थ विश्व में जब भी मानव की बात होती है तो सबसे पहले सभ्यता संस्कृति की पंक्ति में जो मानव समूह खड़ा होता है वह जनजाति कहलाता है भारतीय संदर्भ में यह संख्या करीब 700 के आसपास है इन इनमें से कुछ जनजातियां बहुपति विवाह को अपने यहां प्रचलित करे हुए हैं लेकिन इसके पीछे का कारण घटती हुई बेटियों की संख्या है ऐसी ही एक जनजाति तमिलनाडु के नीलगिरी मैं रहने वाली टोडा जनजाति है इस जनजाति में भैंस का बहुत महत्व है जब टोडा जनजाति में कोई लड़की पैदा होती है तो पुलोल के निर्देशानुसार उसे भैंस के बाड़ा में छोड़ दिया जाता है यदि पूरी रात उन जंगली भैंसों के बीच हुआ छोटी सी नन्ही सी बच्ची जिंदा बच गई तो उसे समूह में शामिल कर लिया जाता है अन्यथा वह बच्ची मार दी जाती है आधिकारिक तौर पर यह प्रथा समाप्त हो चुकी है लेकिन इस तथ्य को समझने इसलिए आवश्यक है कि हम संस्कृति बनाकर कहां खड़े हो गए इसको समझ सके पृथ्वी पर कितने जीव जंतु पाए जाते हैं उनमें सभी में मादा इतनी स्वतंत्र होती है किन्नर को उस पर आधिपत्य जमाने के लिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता है लेकिन मानव संस्कृति में कुछ ऐसा हुआ की अभ्यास की वह परंपरा शुरू हुई की जन्म से ही औरत को यह मान लेना पड़ा कि पुरुष शक्तिशाली है और वह उसके अधीन है ऐसे में बेटी दिवस कमन्नाना जाना निश्चित रूप से प्रासंगिक है समीचीन है 11 अक्टूबर 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व में महिलाओं की घटती संख्या और बेटियों के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने के लिए यह प्रस्ताव रखा था कि सितंबर माह के चौथे इतवार को विश्व में बेटी दिवस मनाया जाएगा लेकिन जिस तरह से पिछले 24 घंटे में समाचार पत्रों न्यूज़ चैनल आदि में बेटी दिवस के बारे में कोई भी कार्यक्रम कोई भी सूचना न दिखाई देना यह बताता है कि बेटी दिवस के प्रति हम अभी संवेदनशील नहीं हुए यह भी सच है की बेटी के रूप में हम संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण पायदान धर्म में अपने अंदर फर्श शक्ति को समेकित करने के लिए नवरात्रि जैसी पूजा को करने के लिए काफी आगे बढ़ गए हैं।
लेकिन यह भी सच है की 2007 की बच्चों के लिए भारत सरकार की रिपोर्ट से यह स्थापित है बेटियां सुरक्षित नहीं रह गई हैं यदि स्टाप जैसे एनजीओ की रिपोर्ट पर विश्वास कर लिया जाए तो हर दिन 200 बेटियों का भारत में अपहरण हो जाता है हर सबसे महत्वपूर्ण बात बेटी दिवस पर यहां हो जाती है की बेटी के लिए करोड़ों रुपया पढ़ाई और इच्छाओं पर खर्च करने वाले भारतीय संस्कृति में बेटी के लिए उस तरह का भाव नहीं रखा जाता है 3 लड़के पैदा हो जाए कोई बात नहीं है लेकिन भारतीय कानून में यदि 2 लड़कियां पैदा हो गई है तो तीसरी लड़की का आप गर्भपात करा सकते हैं जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि लड़की को अभी भी बाहर समझा जाता है और लड़की के जन्म को इसलिए जरूरी बताकर विधि के अनुसार पैदा करना आवश्यक बना दिया गया ताकि मानव कौन थे यह शब्द भी समझना मुश्किल ना हो जाए नहीं तो 3 लड़कियां 4 लड़कियां पैदा करना कोई बुराई का कार्य नहीं था और उन सबसे ज्यादा बड़ी बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ही नहीं वैश्विक संस्कृति में भी आकर्षण की परिधि में लड़कियों को अपने चारों और देखना पुरुष प्रधान समाज को अच्छा तो लगता है लेकिन स्वयं के घर की बेटी की तरफ कोई देखे यह अच्छा नहीं लगता है और इस द्वैध प्रकृति के कारण मानव किसी भी कर्तव्य और संस्कारों से बचने के लिए सबसे सरल कार्य पाता है कि वह है गर्भ पर अधिकार कर ले और स्वयं यह सुनिश्चित करें कि गर्व के मालिक के रूप में हुआ उस गर्भ से लड़की को इस दुनिया में आने देना चाहता है या नहीं यह बात और है विधिक रुप से कम से कम 2 लड़कियों को पैदा होने के लिए वह बाध्य है लेकिन यही बाध्यता बताती है इस संस्कृति ने सबसे ज्यादा नुकसान जिसका किया है वह महिला या औरत का सबसे प्रारंभिक स्वरूप बेटी है जिस तरह से अफगानिस्तान में छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहा है वाह बेटी दिवस की सच्चाई को कहने में समर्थ है जिस तरह से मां बाप अपनी बेटियों को घर के बाहर और भीतर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं उससे बेटी दिवस की प्रासंगिकता समझी जा सकती है लेकिन हमें संस्कृति के इस पहलू को समझना होगा कि अनुकरण की पद्धति में हमने स्वयं बेटियों को इस तरह से सिखाना शुरू कर दिया है कि वह पुरुष के सापेक्ष दोयम दर्जे की नागरिक और मनुष्य बनकर रहने लगी है जिसके कारण इस तरह के बेटी दिवस महिला दिवस अनंत काल तक मनाई जाने की आवश्यकता पड़ती रहेगी जो एक मानवाधिकार के विपरीत ऐसी स्थिति है जिसको खुलकर हम स्वीकार भी कर रहे हैं लेकिन हम बेटी को सिर्फ बेटी समझकर समाज में खुलकर जीने का मौका नहीं दे पा रहे हैं और इसी अर्थ में बेटी दिवस पर एक विमर्श की आवश्यकता है मंथन की आवश्यकता है ताकि हम बेटी का अर्थ दो पैरों पर खड़ा हुआ जिंदा मांस समझने के बजाय एक ऐसे स्वरूप में देखना शुरू करें जिसमें दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती की तरह धन बुद्धि और शक्ति से पुरुष को बहुत पीछे छोड़ने की क्षमता है तभी बेटी का मानवाधिकार स्थापित हो पाएगा।
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