अंश पूर्ण नहीं होता। सदा अपूर्ण होता है। अंश के आधार पर पूर्ण का विवेचन नहीं हो सकता। विवेचन में देश काल के प्रभाव का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। सम्यक विवेचन में समग्र विचार आवश्यक होता है। देश काल के प्रभाव में समाज बदलते रहते हैं। मान्यताएं भी बदलती रहती हैं। रामायण और महाभारत विश्वप्रसिद्ध महाकाव्य हैं। वाल्मिकि रामायण का रचनाकाल लगभग ईसा पूर्व 500 वर्ष माना जाता है। तुलसीदास ने रामकथा पर आधारित रामचरितमानस सोलहवीं सदी में लिखी थी। ऐसा लोकप्रिय ग्रंथ विश्व में अनूठा है। एक अनुमान के अनुसार गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इस ग्रंथ की लगभग सात करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। माना जाता है कि तुलसीदास ने 1574 की रामनवमी के दिन यह ग्रंथ लिखना प्रारम्भ किया था। इसकी रचना में कई वर्ष लगे। प्रथम अध्याय बालकाण्ड में तुलसी ने घोषणा की है कि “यह रचना उन्होंने अपने सुख के लिए की है। – स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।“ रामचरितमानस उत्कृष्ट काव्य है। देश और दुनिया के करोड़ों हिन्दू इसे धर्मग्रन्थ की तरह सम्मान देते हैं। एक समय सूरीनाम, मारीशस, कम्बोडिया, थाईलैण्ड आदि देशों में भारत से जाकर बसने वाले लोग रामचरितमानस की प्रतियां भी साथ ले गए थे। लेकिन भारत के कुछ राजनेता मानस की नारी अपमान आदि चैपाइयों को लेकर आक्रामक हैं। वे इसे जलाने या प्रतिबंधित करने की मांग भी कर रहे हैं। उनके वक्तव्यों को लेकर समाज का वातावरण बिगड़ रहा है। समाज रामचरितमानस के साथ खड़ा है।
सभी प्राचीन ग्रंथ अपने समय की देश काल परिस्थिति के आधार पर लिखे गए हैं। इनमें तत्कालीन समाज का सौंदर्य बोध है, प्रीति और प्रेम भी है। सैकड़ों वर्ष बाद उनके कुछ अंशों की संगति आधुनिक काल के मूल्यों से भिन्न हो सकती है। हम इसी आधार पर पूरे ग्रंथ को खारिज नहीं कर सकते। बुद्ध पंथ ईसा पूर्व 500 वर्ष पुराना है। बौद्ध ग्रंथ ‘अंगुत्तरनिकाय चक्कतुनिपात‘ में कहा गया है कि, ‘‘स्त्री वर्ग सन्तापी ईष्र्यालु और बुद्धिहीन है।‘‘ मार्क्सवादी चिंतक डॉ० रामविलास शर्मा ने अंगुत्तरनिकाय (भाग 1) पृष्ठ 29 से उद्धरण दिए गए हैं, ‘‘भिक्षुओं इस बात की सम्भावना नहीं है कि स्त्री अर्हत, सम्यक, सम्बुद्ध हो। इस बात की सम्भावना है कि पुरुष अर्हत, सम्यक, सम्बुद्ध हो। भिक्षुओं इस बात की सम्भावना नहीं है कि स्त्री चक्रवर्ती राजा हो सके। इस बात की सम्भावना है कि पुरुष चक्रवर्ती राजा हो सके।‘‘ स्त्री सम्बंधी ऐसे विचार आधुनिक काल में शुभ नहीं माने जा सकते। मूलभूत प्रश्न है कि क्या इस तरह के वाक्यों के आधार पर हम विश्व विख्यात बुद्ध दर्शन को खारिज कर दें। बुद्ध उपास्य हैं। हम उनका और उनके कथनों का आदर करना नहीं छोड़ सकते।
कबीर (पंद्रहवीं सदी) भारत के महान संत थे। उनके भजन सबद लोकप्रिय हैं। उनमें शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन है। भक्ति और मुक्ति के ध्रवतारा थे कबीर। लेकिन नारी के विषय में कबीर की उक्ति है, ‘‘नारी नसावे तीनि सुख जा नर पास होई/भक्ति मुक्ति निज ज्ञान में पैसि न सके कोई।‘‘ – अर्थात नारी किसी पुरुष की निकटता में तीन गुणों का नाश करती है। भक्ति, मुक्ति व ज्ञान की क्षति करती है।“ इसी तरह एक और दोहे में कहते हैं, ‘‘नारी कुण्डा नरक का बिरला थांबे बाग/कोई साधू जन उबरै सब जग मुअन लाग।‘‘ – अर्थात नारी नरक का कुआं है। बिरले ही इससे बच पाते हैं। शेष इसमें गिर कर मर जाते हैं।“ कहते हैं, ‘‘नागिन के दोये फन, नारी के फन बीस जाका डसा न फिर जीये, मरि हैं बिस्वा बीस‘‘। इसका अर्थ सुस्पष्ट है। अन्य दोहे में कहते हैं, ‘‘नारी की झांई पड़त, अँधा होत भुजंग कबीरा तिन की कौन गति, जो नित मारी को संग‘‘ – नारी की झांई पड़ते ही सांप तक अँधा हो जाता है, फिर साधारण इंसान की बात ही क्या? एक अन्य दोहे में कहते हैं, ‘‘कबीर मन मिरतक भया, इंद्री अपने हाथ तो भी कबहु न कीजिये, कनक कामिनी साथ।‘‘ – कबीर कहते हैं कि यदि इच्छाएं मर चुकी हैं और भोग की इन्द्रियां भी नियंत्रण में हैं, तो भी धन और नारी की चाह न करें। ऐसे उद्धरण आधुनिक सन्दर्भ में किसी को भी अनुचित लग सकते हैं। लेकिन कबीर के तमाम दोहे व भजन प्रगतिशील भाव से भरे पूरे हैं। महासंत कबीर का मूल्यांकन कथित अपमानजनक उद्धरणों के आधार पर ही नहीं किया जा सकता और न ही इन उद्धरणों के आधार पर उनकी निंदा की जा सकती है। विश्व दर्शन में यूनानी दार्शनिक प्लेटो का ज्ञान और यश बड़ा है। ‘रिपब्लिक‘ (गणतंत्र) उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना है। उनके लेखन में भी स्त्री अपमान जैसी बाते हैं। प्लेटो ने ‘द डायलॉग्स ऑफ प्लेटो‘ खण्ड 2 (रिपब्लिक) में बताया है, ‘‘जो काम पुरुष के हैं। वे सब नैसर्गिक रूप से स्त्रियों को दिए जा सकते हैं लेकिन इन सब में स्त्री पुरुष से कमजोर होती है।“ यहाँ स्त्री की क्षमता पर प्रश्न है। आगे कहते हैं कि स्त्रियों और बच्चों की समझ में रंग बिरंगी चीजें सबसे आकर्षक होती हैं। प्लेटो लिखते हैं, ‘‘जिनके लिए हम चिंता प्रकट करते हैं, जिनके लिए कहते हैं कि उन्हें अच्छा आदमी बनना चाहिए, उन्हें हम स्त्रियों का अनुकरण न करने देंगे। स्त्री बूढी हो या युवा हो। पति से लड़ रही हो या अपने सुख के मद में देवों के विरुद्ध प्रयत्नशील हो अथवा कष्ट में हो, निश्चय ही हम उसका अनुकरण न करने देंगे।‘‘ ऐसे ही अनेक प्रसंग हैं। ऐसे प्रसंग आधुनिक समाज के मूल्यों के विपरीत दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन इस तरह के कुछ एक प्रसंगों के आधार पर क्या हम प्लेटो की कालजयी रचना ‘रिपब्लिक‘ को फूंक देने का नारा लगाएंगे? विश्व में अनेक प्रतिष्ठित काव्य रचनाएं हैं। भारत में उनकी संख्या ज्यादा है। इनके कुछ अंश विशेष संदर्भ में है। कुछ आधुनिक समाज की कालसंगति में नहीं है। हम उन्हें पसंद करें न पसंद करें यह हमारा अधिकार है। लेकिन ऐसी रचनाओं को कुछ कथित आपत्तिजनक अंशों के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।
अंश के आधार पर समग्र विश्लेषण नहीं हो सकता। अमरीकी विद्वान जॉन गॉडफ्रे सैकसे ने एक सुंदर कविता में लिखा है कि, ‘‘6 अंधे लोग ज्ञान प्राप्ति के लिए हाथी देखने गए थे। पहले ने हाथी के पेट को सहलाया और कहा “हाथी और कुछ नहीं दीवार होता है।“ दुसरे ने गजदंत छुए और कहा हाथी और कुछ नहीं भाला है। तीसरे के हाथ में सूंड़ आई, उसने कहा हाथी सांप है। चैथे के हाथ में घुटने आए, उसने कहा हाथी पेड़ है। पांचवे के हाथ में कान आए, उसने कहा कि हाथी पंखा है। छठवें के हाथ में पूँछ आई, उसने कहा हाथी रस्सा है। छहों अपने अपने अल्प अनुभव के आधार पर झगड़ा करने लगे। अंशतः छहों सही थे। सम्पूर्णता में छहों गलत थे। यही स्थिति रामचरितमानस के निंदकों की है। वे मानस के आदर्श संदर्भ नहीं देखते और मानस में सीता का आदर्श व्यवहार भी नहीं। रामराज्य के आदर्श भी नहीं। खंडित विचार और दृष्टिकोण ही उन्हें प्रिय है लेकिन इससे सामाजिक विभाजन का खतरा है। समग्रता में विचार ही एक रास्ता है।