डॉ आलोक चांटिया, लेखक
जीवन के स्वर ,
जब भी आते है ,
मौत से कुछ दूर ,
हम निकल आते है ,
खिलते है, बिखरते है ,
और मुरझाते भी है ,
पर पीछे अपनी महक ,
भी छोड़ जाते है ,
मेरी ना मानो तो ,
पूछ लो आलोक से ,
जिस से सपने रोज ,
सच बन के आते है ,
पूरब का मन कभी ,
भी ऊबा ही नही ,
जीवन के नित नए रंग ,
दौड़े चले आते है ,
प्रेम तो बस एक ,
कतरा है बहने का ,
मेरी तो यादो में हर ,
चेहरे चले आते है ,
क्या कहूं किस से ,
अब आज के दिन ,
हम तो पूरे बसंत ,
मधु मास मानते है
.डॉ आलोक चांटिया