डॉoअशोक दुबे, सदस्य,उoप्रo संस्कृत संस्थान, लखनऊ।

“ऋष्यशृंग-शांता : वनकुमार व राजकुमारी का प्रेम”

राम के माता-पिता, भ्राता और वंशावली के बारे में तो प्रायः सभी जानते हैं, लेकिन कम लोगों को मालूम है कि राम की एक बहन भी थीं, जिनका नाम शांता था। वे आयु में चारों भाइयों से काफी बड़ी थीं। शांता दशरथ और कौशल्या की पहली पुत्री थी।एक बार अंगदेश के राजा रोमपाद और उनकी रानी वर्षिणी अयोध्या आए। रोमपाद का नाम कहीं लोमपाद भी मिलता है। वर्षिणी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं। उनके कोई संतान नहीं थी।

राजा दशरथ ने अपनी बेटी शांता को संतान के रूप में देने का प्रस्ताव दिया. कहते हैं दशरथ ने शां‍ता को इसलिए गोद दे दिया था, क्‍योंकि वह लड़की होने की वजह से उनकी उत्‍तराधिकारी नहीं बन सकती थीं।
कुछ लोग कहते हैं कि अयोध्या में अकाल के कारण दशरथ ने अशुभ मान लिया था।

राजा रोमपाद और वर्षिणी को शांता के रूप में संतान मिल गई। उन्होंने बहुत स्नेह से उसका पालन-पोषण किया और माता-पिता के सभी कर्तव्य निभाए। शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। वे जितनी सुंदर थीं, उतनी ही गुणवान् भी. जिस युग में स्त्रियाँ शिक्षा कम ही पा पातीं थीं, शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत हो चुकी थीं ।

इधर न जाने शांता के जाने का प्रभाव पड़ा या फिर बस संयोग ही कि आगे तीन रानियाँ होने के बावजूद दशरथ वृद्धावस्था तक संतानहीन बने रहे. पुरोहितों ने परामर्श दिया कि अब संतान बस पुत्रेष्टि यज्ञ से ही संभव है. यह यज्ञ वही करा सकता था। जिसने सकामता नहीं, निष्कामता साधी हो। ऐसे में केवल एक ऋषि का नाम सामने आया-ऋष्यशृंग.

ऋषि गण चाहे जितने सिद्ध या ज्ञानी रहे हों, वे निर्मल और निष्काम भी रहे हों, यह संदिग्ध है। ऋष्यशृंग ऋषि विभाण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। कहते हैं, विभाण्डक ने इतना कठोर तप किया कि
देवतागण भयभीत हो गये. उनका भय सदा काम को अस्त्र बनाता था। अप्सराएँ चाहे जितनी रही हों,
उनमें काम की शायद कम ही थीं। हर बार प्रायः वही मेनका, उर्वशी, रंभा।

इंद्र ने उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशी को भेजा। तप का एक उद्देश्य शायद अप्सरा भी रहती हो,
इसलिए वे सहज ही तप से विरत कर देती थीं। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया,
जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी। संतान जन्म के बाद अप्सराओं का काम पूर्ण हो जाता था,
अब संतान की जिम्मेदारी पिता की हो जाती. आजीवन परिवार विहीन रहे ऋषिगण के लिए
अब नया संकट हो जाता. विभांडक ने पुत्र का नाम रखा ऋष्यशृंग.

यह नाम कुछ विचित्र लगता है। कहते हैं कि जन्म के समय उनके माथे पर हिरन की तरह एक सींग (शृंग) था। अत: उनका यह नाम पड़ा। वैसे तो ऋष्यशृंग का अर्थ ऋषि+अशृंग से बिना सींग वाला ऋषि होना चाहिए पर यह कहना भी उतना ही विचित्र होगा।जो हो उन्हें सरलता के लिए शृंगीऋषि या एकशृंग भी कहा जाता था. पता नहीं उनकी यह विरूपता थी या कि उर्वशी के व्यवहार से विभांडक के मन में उपजा स्त्री विरोध। उन्होंने ऋष्यशृंग को किसी स्त्री से कभी मिलने ही नहीं दिया.

ऋष्यशृंग वन में भी एकांत में ही रहते थे। समस्या हुई कि उन्हें समाज और राज तक लाने का क्या उपाय किया जाए। समाधान वही तलाशा गया। जो देवता गण अपनाते रहे थे। अप्सरा की जगह वारांगनाएँ थीं,
वैसे भी जैसे कुछ ऋषि अप्सरा के लिए वन में तप करते थे। कुछ ऋषि राजकन्या के लिए राजाओं के यहाँ यज्ञ कराते थे। तो तय हुआ कि गणिकाओं के साथ कोई राजकुमारी भी रखी जाए। यदि वारांगनाएँ विफल हो जाएँ। तो राजकुमारी अपना कौशल दिखाएँ। ऋषि को राजा की ओर से सहमत कराने के लिए।

अब राजकुमारी कहाँ से आती। संकट में शांता की याद आई। रोमपाद को संदेश भेजा। शायद शांता को पितृ ऋण का वास्ता भी दिया हो। कार्य न नैतिक हो, न आध्यात्मिक, तब भी धार्मिकता उसे वैसा अनुभूत करा देती है। शांता ने अपने मन में कोई सपनों का राजकुमार न सोचा हो। ऐसा मान लेना बहुत सुसंगत तो नहीं लगता पर धर्मसंकट में उसने सहमति दे दी।

शांता का अपना धर्मसंकट था। वे राजकुमारी थीं और उन्हें वारवनिता की भूमिका निभाना था। वे मर्यादित विदुषी थीं और उन्हें अप्सरा की भूमिका निभाना था। जिस तरीके से ऋष्यशृंग की माता ने ऋष्यशृंग के पिता को रिझाया था। उसी तरीके से ऋष्यशृंग को रिझाना था।

यह सरल भी था। ऋष्यशृंग ने आजीवन कभी किसी स्त्री को देखा-जाना ही नहीं था। कम से कम होश संभालने के बाद। ऐसे में उसका तो सहज मुग्ध हो जाना स्वाभाविक था। पर शांता ने दूसरा रास्ता चुना.
पहले वार-वनिताएँ ऋष्यशृंग के पास भेजीं। ऋष्यशृंग तो पहले समझे कि ये कोई देवता हैं। देवलोक से आए हुए।

वे उनका अनुसरण करने लगे सरल मुग्ध भाव से, मृगशावक की तरह और तब आगे शिविर में शांता दिखीं। मृगनयनी, पर साध्वी सी दिव्य। जो मन वार-वनिताओं के पीछे चला था। वह काम का था।
पर जो शांता के आगे आ ठहरा। वह प्रेम का था। प्रेम स्मित से प्रारंभ नहीं करता। विस्मित होने से करता है।

ऋष्यशृंग ने बाद में जाना कि वे सृष्टि की अर्धांगिनी स्त्री हैं। वही तो मूल सर्जिका हैं। ऋष्यशृंग ने बहुत बाद में जाना कि शांता तो राजकुमारी हैं। शांता की भी दशा विचित्र थी। क्षुब्ध होकर चली थीं, मुग्ध होकर रह गई थीं। कोई इतना सरल कैसे हो सकता है। शशक सा, शावक सा. सपनों के राजकुमार के सपने देखने की आयु में शांता ने किसी तपस्वी के वनकुमार का स्वप्न देखा, महल का संसार छोड़ कर जंगल के आश्रम में रहने का संकल्प लिया, पर अब तक सब मन ही मन था।

शांता ने ऋष्यशृंग को पिता के पुत्रेष्टि यज्ञ के लिए अयोध्या आमंत्रित किया। ऋष्यशृंग तो तत्पर हो गए। पुत्रेष्टि यज्ञ के अंत में जब ऋष्यशृंग से दक्षिणा पूछी गई,संपदा दी गई, तो ऋष्यशृंग ने कहा-वनेचर को क्या चाहिए। वह भी किसी एकाकी संन्यासी को। मन में संकोच है एक अदम्य कामना को लेकर। दक्षिणा में वामा को माँगना तो उचित नहीं लगता, पर यदि आमंत्रणकर्त्री वनजीवन को आदर्श मानती हों। तो मेरा यह सौभाग्य होगा।

कहते हैं, राजा रोमपाद और वर्षिणी थोड़ी संकुचित हुई, क्योंकि शांता राजकुमारी थी। जिसे ऋषि से शादी के बाद आश्रम में रहना पड़ता। पर शांता की वृत्ति, प्रीति और सहज स्वीकृति जानकर दशरथ और कौशल्या ने शांता का हाथ उनके हाथों में दे दिया।

वह जो प्रलोभन बनाकर भेजी गई थी। प्रेयसी और प्रिया बनी, तो समर्पण की प्रतिमूर्ति बन गई। कथा सुखांत है।


 

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