सलिल पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार, मिर्जापुर.
कड़कदार जाड़े का महीना पूस-माघ पूरे रौब-रुआब से आ गया। 31 दिसम्बर ’20 के प्रातः 8:32 के बाद पूस लग जाएगा जो 28 जनवरी ’21 की मध्यरात्रि 12:32 तक रहेगा। पूस का भाई ही है माघ भी। यह भी ठंड से ठिठुराने वाला महीना तो है, पर यह असहायों, निरीहों, बेसहारों की उस ढंग से इम्तहान नहीं लेता, जैसा पूस (पौष) लेता है। माघ महीने के लिए कहावत है कि ‘आधे माघे कामर काँधें’। मतलब आधे माघ के ठंड कुछ नरम पड़ जाता है और कम्बल कंधे पर लोग रखने लगते हैं।
पूस दानियों का भी इम्तहान लेता है
100 साल पहले 1921 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारत की सम्पन्नता इंग्लैंड चली जा रही थी, लिहाजा उन दिनों 3/- वाला कम्बल कथाकार मुंशी प्रेमचंद के ‘पूस की रात’ कहानी के मुख्य पात्र हलकू को नहीं कोई दे सका, जिसके चलते ठंड से ठिठुरते हलकू की खेती नीलगाएं चर गईं और हलकू भूमिधर किसान होकर खेती के बजाय मजदूरी करने का निर्णय लेता है।
लेकिन युग बदला है। अध्यात्म का समंदर हर तरफ बह रहा है। देश का GDP 1.50% धार्मिक यात्राओं से बढ़ता है। आध्यात्मिक गुरुओं का रेला चतुर्दिक दिखाई पड़ता है। कच्चे और झोपड़ी वाले आश्रम टाइल्स के महल से होते जा रहे हैं। प्रायः पावरफुल लोगों की धार्मिक यात्राएं सुर्खियों में रहती हैं पर समाज के तमाम हलकू टाइप के लोग अभी भी प्रेमचंद की कहानी के हलकू की तरह ही जी रहे हैं।
बंटेगा कम्बल पर माघ के आखिरी पक्ष के बाद
धर्म के बल पर भगवान को भी बेवकूफ बनाने वाली संस्थाएं कम्बल बांट कर समाजसेवी बनने का खिताब लेगीं तो जरूर पर वे आधे माघ के बाद जब भगवान भास्कर दयालु होकर कुछ गर्मी देने लगेंगे, तब भारी भरकम शो आयोजित कर कंबल दान महोत्सव आयोजित करेंगी
क्यों ऐसा करती हैं ये संस्थाएं?
प्रेमचंद के 100 साल पहले वाला 3/- रु0 का कंबल इन दिनों 300/- रु0 से कम नहीं मिलेगा। इन संस्थाओं को दानवीर का कोटा पूरा करने के लिए 70/-रु0 वाला कंबल बांटना होता है। जिसकी जिंदगी गर्भस्थ भ्रूण की तरह होती है। इसी को गर्भ में नष्ट करना भ्रूण-हत्या का अपराध माना जाता है। यही 70/- वाला कंबल घर लाते लाते बगावती तेवर दिखाने लगता है। अतः तमाम संस्थाएं आधा माघ, 11 फरवरी ’21 के बाद कंबल बांटेगी जबकि जरूरत पूस की रात 30/31 दिसंबर से ही है।