भारतीय शास्त्रों ने प्रकृति के संक्रमण काल में उपासना का विशेष महत्व बताया है। इससे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। नवदुर्गा के नौ दिन इसका अवसर प्रदान करते है। इस अवधि में भक्त जन मां दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हैं। इसमें इक्यावन शक्तिपीठों के प्रति भी आस्था उपासना का भाव समाहित रहता है। सभी देविधामों को विलक्षण महिमा है। विंध्याचल धाम के त्रिकोण में स्थित मंदिरों की रचना भी अद्भुत है। यह पूरा क्षेत्र देवी उपासना की दृष्टि से सिद्ध माना जाता है-
निशुम्भशुम्भमर्दिनी, प्रचंडमुंडखंडनीम।
वने रणे प्रकाशिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम।
त्रिशुलमुंडधारिणीं, धराविघातहारणीम।
गृहे गृहे निवासिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम।
दरिद्रदु:खहारिणीं, संता विभूतिकारिणीम |
वियोगशोकहारणीं, भजामि विंध्यवासिनीम।
देवी विंध्यवासिनी की महिमा आदि काल से विख्यात है। नवदुर्गा में यहां साधना उपासना का विशेष महत्व है। यहां के त्रिकोण क्षेत्र आध्यात्मिक वातावरण का सृजन स्वयं प्रकति करती है एक मान्यता के अनुसार विंध्यवासिनी मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। मीरजापुर में गंगा जी के तट पर मां विंध्यवासिनी का धाम है। यहां देवी के तीन रूपों का धाम है। इसे त्रिकोण कहा जाता है। विंध्याचल धाम के निकट ही अष्टभुजा और काली खोह का मंदिर है। अष्टभुजा मां को भगवान श्रीकृष्ण की सबसे छोटी और अंतिम बहन माना जाता है। श्रीकृष्ण के जन्म के समय ही इनका जन्म हुआ था। कंस ने जैसे ही इन्हें पत्थर पर पटका,वह आसमान की ओर चली गयीं थी। अष्टभुजा धाम में इनकी स्थापना हुई। यह मंदिर एक अति सुंदर पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी पर गेरुआ तालाब भी प्रसिद्ध है। मां अष्टभुजा मंदिर परिसर में ही पातालपुरी का भी मंदिर है। यह एक छोटी गुफा में स्थित देवी मंदिर है। त्रिकोण परिक्रमा के अंतर्गत काली खोह है। रक्तबीज के संहार करते समय माँ ने काली रूप धारण किया था। उनको शांत करने हेतु शिव जी युद्ध भूमि में उनके सामने लेट गये थे। जब माँ काली का चरण शिव जी पर पड़ा। इसके बाद वह पहाडियों के खोह में छुप गयी थी। यह वही स्थान बताया जाता है। इसी कारण यहां का नामकरण खाली खोह हुआ। भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से उनका निवास स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है।महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं-
विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।
हे माता!
पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचल पर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है-
विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीष से हुआ।
मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती
देवी माहात्म्य के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं-देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी नंद बाबा की पुत्री।कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं । इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है। आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं,विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है।
सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है।
लसत्सुलोललोचनां, लता सदे वरप्रदाम |
कपालदरिद्रदु:खहारिणींशूलधारिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम |
करे मुदागदाधरीं, शिवा शिवप्रदायिनीम |
वरां वराननां शुभां, भजामि विंध्यवासिनीम |
ऋषीन्द्रजामिनींप्रदा,त्रिधास्वरुपधारिणींम |
जले थले निवासिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम।
विशिष्टसृष्टिकारिणीं, विशालरुपधारिणीम।
नवदुर्गा के अष्टम दिवस पर मां गौरी की उपासना होती है-
श्वेत वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचि:। महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥ महागौरी गौरवर्ण है। इसलिए इन्हें महागौरी कहा गया। उन्होंने कठिन तपस्या से मां ने गौर वर्ण प्राप्त किया था।उन्हें उज्जवला स्वरूपा महागौरी,धन ऐश्वर्य प्रदायिनी,चैतन्यमयी त्रैलोक्य पूज्य मंगला भी कहा गया। वह माता महागौरी है। इनके वस्त्र और आभूषण आदि भी सफेद ही हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। महागौरी का वाहन बैल है। देवी के दाहिने ओर के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले हाथ में त्रिशूल है। बाएं ओर के ऊपर वाले हाथ में डमरू और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनका स्वभाव अति शांत है। इनकी उपासना से शुभ प्रवृत्त कर्मों का जागरण होता है। सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। नैतिक व पवित्र आचरण का बोध प्राप्त होता है। सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है- सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्।
डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।
वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥