मुकेश पाण्डेय, वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ.

 

यूपी की मौजूदा सियासत में बने नये समीकरण को देखते हुए कल क्या होगा यह तो पता नहीं। पर इतना जरूर है कि सूबे के मुखिया ने देश की सर्वोत्तम सेवा से आए अरविंद शर्मा को यूपी की सत्ता का खास चेहरा बनने से रोककर काफी दूर तक संदेश दिया है। आने वाले दिनों में यूपी की सियासत में तमाम उठापटक देखने को मिले पर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ अपने तेवर से भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि उनके नेतृत्व वाली सरकार में कोई रिटायर अफसर उनको सुपरशीट नहीं कर सकता। यह संदेश उन सभी राजनैतिक दलों के लिए भी है जो आईएएस और आईपीएस की सेवा में 60 साल तक मलाई काटने के बाद नौकरशाहों को सत्ता सुख बांटते रहे हैं। हालांकि इसके पीछे भी दलों का अपना पूर्व का स्वार्थ जुड़ा होता है। यूपी में नौकरशाहों का राजनीति प्रेम कोई नया नहीं है। हाल ही में एमएलसी बने अरविंद कुमार शर्मा के चलते सत्तासीन भाजपा में उठापटक कोई नया उदाहरण भी नहीं है। इसके पहले भी सत्ता में शामिल कई नौकरशाहों के चलते सियासत गर्म होती रही हैं। रिटायर नौकरशाह अरविंद कुमार शर्मा ने वीआरएस लिये और पट से भाजपा में शामिल हो गए। यही नहीं दूसरे ही दिन विधान परिषद के टिकट से निर्विरोध उच्च सदन के माननीय सदस्य बन भी बन गए। इसके पहले अरविंद शर्मा का न तो यूपी से नाता रहा न ही उनका यहां के लिए कोई विशेष योगदान रहा। गुजरात कैडर, मुख्यमंत्री कार्यालय तथा केंद्र में प्रधानमंत्री कार्यालय में रहकर शर्मा यूपी की बात तो दूर अपने गृह जनपद के लिए भी कुछ नहीं कर सके। अरविंद्र कुमार शर्मा के भाजपा में शामिल होने पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने सवाल उठाया था कि ‘शर्मा को बताना चाहिए कि वे अब तक सरकारी सेवा कर रहे थे या एक पार्टी की सेवा में लगे थे.’। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष को इस मामले में अपनी पार्टी के इतिहास को भी देखना चाहिए।

आइये एक नजर नौकरशाहों के राजनीतिक प्रेम पर डालते हैं। आजादी के बाद प्रदेश में संभवतः पहला वाकया रहा होगा जब अयोध्या में दिसंबर 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने के बाद फैजाबाद के डीएम केके नायर आईसीएस (कृष्ण करूणाकरण नायर) निलंबन और बहाली के बाद सेवामुक्ति लेकर 1952 में जनसंघ में शामिल हो गए। उनकी पत्नी हिंदू महासभा के टिकट पर पड़ोसी जिले से सांसद चुनकर लोकसभा पहुंच गईं। नायर पहले प्रयास में खुद तो हार गए पर उनकी पत्नी और ड्राइवर चुनाव जीत गये। बाद में नायर 1967 में जनसंघ के टिकट पर बहराइच से लोकसभा पहुंच गए। अयोध्या में 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के आरोप में तत्कालीन एसएसपी आईपीएस देवेंद्र बहादुर राय (डीबी राय) निलंबन और बर्खास्तगी के बाद अगले ही चुनाव में फैजाबाद के पड़ोसी जिले सुल्तानपुर से भाजपा के टिकट पर लोकसभा पहुंचने में कामयबा रहे। श्रीचन्द्र दीक्षित आईपीएस और फैजाबाद के एसपी एवं प्रदेश के डीजीपी (1984) रहे अस्सी के दशक में भाजपा में शामिल हुए विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष हुए और राममंदिर आंदोलन के दौरान उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। भाजपा से वे वाराणसी से सांसद निर्वाचित हुए। यह सीट पहली बार भाजपा ने जीती। पूर्व आईपीएस और विहिप नेता अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल भी भाजपा में शामिल होने के बाद राज्यसभा गए। मुलायम सिंह यादव की सरकार के दौरान यूपी की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव के पति महेंद्र सिंह यादव आईपीएस से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर भाजपा में शामिल हुए और विधायक निर्वाचित हुए थे। वैसे तो नौकरशाहों की राजनीति से कोई पार्टी मुक्त नहीं है. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में नौकरशाहों को महत्वपूर्ण जगहें और प्रतिनिधित्व मिलता रहा है। इधर दो दशकों में इसकी गति में और तेजी आ गई है।

मायावती सरकार के दौरान अतिप्रिय अधिकारियों में पन्नालाल पूनिया आईएएस तथा बृजलाल आईपीएस थे। पूनिया प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री रहे, तो बृजलाल पुलिस महानिदेशक के पद से रिटायर होकर सांसद की भूमिका में हैं। आश्चर्य यह हुआ कि पूनिया ने कांग्रेस की शरण में चले गए और एक दलित चेहरा बनकर बाराबंकी से लोकसभा टिकट पाकर सांसद बन गए और बृजलाल भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए और अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के अध्यक्ष बना दिए गए. बाद में पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया। ईएएस अधिकारी रहे देवी दयाल रिटायर होने के बाद कांग्रेस में शामिल हुए, भले ही सांसद नहीं बन पाए। ग्रेस में शामिल होने वालों की भी अच्छी खासी तादाद रही है। ईएएस रहे राजबहादुर, ओमप्रकाश ने रिटायर होकर कांग्रेस की सदस्यता ली। एपीसी रहे आईएएस अधिकारी अनीस अंसारी ने भी रिटायर होने के बाद कांग्रेस की सदस्यता ली। आईपीएस अधिकारी रहे अहमद हसन ने समाजवादी पार्टी का रास्ता पकड़ा तो उसी के हो गए। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सरकार में मंत्री, विधान परिषद सदस्य और परिषद में अब नेता विपक्ष की भूमिका में हैं।

लोकसभा 2019 के चुनाव के ऐन वक्त पर इस्तीफा देकर पीसीएस अधिकारी रहे श्याम सिंह यादव बहुजन समाज पार्टी की सदस्यता लेते ही लोकसभा का टिकट पाकर लोकसभा के सांसद हो गए। तकनीकी सेवा के पूर्व अधिकारी पीडब्ल्यूडी के मुख्य अभियंता के रूप में सेवानिवृत्त हुए त्रिभुवन राम (टीराम) बसपा में शामिल होकर विधायक बन गए। बाद में भारतीय जनता पार्टी की शरण में चले गए।

एसके वर्मा, आरपी शुक्ला और बाबा हरदेव सहित कई नौकरशाह सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय लोक दल में शामिल हो गए, कुछ तो अपनी अलग पार्टी बनाकर सत्ता सुख का सपना आज भी संजोए हुए हैं। पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्रपाल ने अपनी आदर्श समाज पार्टी बनाई और पूर्व पीसीएस तपेंद्र प्रसाद ने सम्यक पार्टी बनाई। दोनों ही ज्यादा राजनीति नहीं कर सके। नौकरशाहों के अलावा अब तो न्यायाधीश भी सेवा के दौरान पार्टियों की सेवा करके रिटायर होकर लोकसभा और राज्यसभा पहुंचना चाहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगाई बिना किसी पार्टी में शामिल हुए रिटायर होते ही राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा नामित कर दिए गए, जबकि न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा ने लंबा समय व्यतीत करने के बाद कांग्रेस में शामिल होकर राज्यसभा को सुशोभित किया। जहां तक नौकरशाहों के राजनीतिक प्रेम का प्रश्न है कोई भी व्यक्ति अपनी विचारधारा से किसी पद पर रहकर उससे मुक्त नहीं हो सकता है उसका प्रभाव उसके कार्यो पर परोक्ष या अपरोक्ष तरीके से पड़ता ही है। ऐसे में जब वह किसी पार्टी का हिस्सा हो जाता है तब प्रथमदृष्टया यही लगता है कि जरूर उसने सेवावधि में निष्पक्ष रहकर अपने कार्यो को अंजाम नहीं दिया होगा।

नौकरशाह हमेशा अपने को राजनेताओं की अपेक्षा सर्वोच्च समझता है। सेवा की लंबी पारी का उनका अनुभव अवश्य होता है लेकिन अबतक जो लोग सेवा के बाद राजनीति में आए, न तो वो वोट बैंक बना सके न ही कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर सके। इससे यही लगता है कि सेवा में रहते हुए वे राजनीतिक स्वार्थो से मुक्त नहीं रहते हैं और किन्हीं भावी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कार्य कर रहे होते हैं। आईपीएस-आईएएस जो एक लंबी अवधि तक सेवा कर चुके होते हैं, जो काम वे अपने इतनी लंबी सेवा अवधि में जनसेवा में नहीं कर पाए, जब उनके पास असीमित अधिकार थे, क्योंकि राजनेता के कार्यो को अंजाम देने का कार्य नौकरशाह के रूप में वहीं कर रहे होते हैं, उसे करने के वादे अक्सर दिखावा-सा लगते हैं। जिस प्रकार न्यायाधीशों के लिए नियम है कि रिटायर होने के बाद वे उन अदालतों में वकील के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर सकते, उसी प्रकार रिटायर होने के तत्काल बाद नौकरशाह राजनीतिक पारी में शामिल न हो सके, इसके लिए उन्हें पांच या दस वर्षों के लिए रोका जाना चाहिए। आने वाले दिनों में नौकरशाहों का राजनीति में प्रवेश बंद नहीं हुआ तो गांव का वह कार्यकर्ता जिसकी पार्टी की सेवा करते-करते चप्पलें घिस गईं उसका विश्वास निश्चत रूप से सेवा, समर्पण और निष्ठा से उठ जाएगा। वह आजीवन खुद को ठगा महसूस करता रहेगा कि उसकी सेवा का हश्र के रूप में उसे क्या मिला।
खैर ….

उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे

सभी दलों और निष्ठावान कार्यकर्ताओं के लिए यह लेख समर्पित…

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