डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

अखिल भारतीय अधिकार संगठन का विश्लेषण पृथ्वी पर शायद ही कोई ऐसा मनुष्य हो जो स्वस्थ और अच्छे तरीके से जीना चाहता हूं पहले सिर्फ सांस्कृतिक समूह के होने के कारण लोगों में संतोष की भावना को जागृत करने के लिए इसे भाग गया भगवान की मर्जी आदि से जोड़ दिया गया था ताकि व्यक्ति उदास ना हो उद्विग्न ना हो निराश ना हो पर जैसे-जैसे सभ्यता अपनी जटिलता की तरफ बढ़ा और राष्ट्र राज्य की संकल्पना हुई वैसे ही राज्य द्वारा भाग्य भरोसे बैठे रहने के बजाए इस बात पर जोर दिया गया कि चिकित्सा विज्ञान के द्वारा भी व्यक्ति के जीवन को सुरक्षित और बेहतर बनाया जा सकता है आरंभिक चरणों में यह संकल्पना एक अद्भुत कल्पना लगती है और लोगों को भी इससे अपने जीवन और औसत आयु को बढ़ाने में काफी सहयोग मिला लेकिन जैसे-जैसे चिकित्सा विज्ञान व्यवसाय और जीविकोपार्जन का एक पहलू बन गया वैसे-वैसे मनुष्य के स्वास्थ्य से ज्यादा चिकित्सा विज्ञान के लिए मनुष्य मानव संसाधन ज्यादा बन गया चिकित्सा विज्ञान से जुड़े लोग अंधाधुंध पैसा तो कमाने लगे लेकिन जिन लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की संकल्पना की गई थी वह दूर होने लगी लोग अस्वस्थ रहते हुए पैसे के अभाव में मरने लगे और यह सब एक खुला मानवाधिकार उल्लंघन था या एक ऐसा अप्रत्यक्ष नरसंहार और हत्या का प्रयास था जिस पर न कभी विचार किया गया और ना ही कोई मजबूत काम किया गया क्योंकि किसी के पास पैसे के अभाव के कारण इलाज न करा पाने की स्थिति को न तो राज्य द्वारा स्वीकार किया गया ना ही किसी चिकित्सा विज्ञान से जुड़े संस्था द्वारा स्वीकार किया गया।

यह सच है कि इन स्थितियों से मुकाबला करने के लिए राज्य द्वारा चिकित्सा विज्ञान में सरकारी अस्पताल खोले गए लेकिन सरकारी अस्पतालों में ज्यादातर मरीजों को दवाएं उपलब्ध ही नहीं होते उन्हें बाजार की तरफ देखना पड़ता था इस स्थिति के कारण भी स्वास्थ्य सदैव से एक आत्महत्या करने वाली स्थिति से ज्यादा बेहतर नहीं रहा आधे अधूरे जीवन में लोग जीते हुए इस तथ्य से तो इनकार नहीं कर सकी कि उनको सरकार द्वारा उचित चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध नहीं कराई जा रही है लेकिन वह संपूर्ण रूप से स्वस्थ कभी नहीं हो सके और इस संपूर्णता के अभाव में मानवाधिकार की अवहेलना सदैव भारत जैसे देश में बनी रहे वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा जनता के हाथों से दूर होती दवाओं को उनके जीवन में पहुंचाने के लिए बहुत सी जेनेरिक दवाओं की दुकानें जन औषधि केंद्र के रूप में खोली गई है लेकिन वहां पर भी दुकाने तो खुली हुई है लेकिन उनमें दवाई ज्यादातर नहीं मिल पाती हैं छोटे शहरों का हाल तो और बदहाल है यह भी एक सिंडीकेट का कारक हो सकता है कि जो बड़ी-बड़ी औषधि की कंपनियां हैं जो उन दवाओं को बना रही है वह जन औषधि केंद्र तक दवाओं को पहुंचने नहीं दे रही है क्या औषधि केंद्र में उन दवाओं को वितरण के लिए जनता के सामने नहीं आने दे रही हैं क्योंकि जनता में किसी भी व्यक्ति के पास या विधिक अधिकार नहीं है कि वह किसी जन औषधि केंद्र का स्टॉक देख सके और ऐसी स्थिति में जनता को स्वास्थ्य के लिए बार-बार बाजार और बड़ी कंपनियों की ओर देखना पड़ता है बड़ी कंपनियों द्वारा किस तरह का भ्रष्टाचार किया जा रहा है।

मनुष्यता और आवश्यक सेवाओं में चिकित्सा विज्ञान को ना रखते हुए सिर्फ बड़ी कंपनियों के धनकुबेर बनाने की प्रक्रिया में जब अखिल भारतीय अधिकार संगठन द्वारा बाजार का निरीक्षण किया गया तो यह पाया गया कि जेनेरिक मेडिसिन वाली जन औषधि केंद्र में सर्जिकल से संबंधित कोई भी सामान नहीं मिलता है बहुत सी गंभीर बीमारियों की दवाई नहीं मिलती है मोरपेन जैसी कंपनी द्वारा बनाया जाने वाली शुगर की मशीन के साथ मिलने वाली स्ट्रिप रिटेल जनरल औषधि शॉप पर ₹950 की मिलती है लेकिन जब थोक बाजार में इस को खरीदा जाता है तो यही एक आम आदमी को सिर्फ ₹980 में मिलती है हड्डियों में कैल्शियम की कमी हो जाने के कारण विटामिन D3 की कमी हो जाने के कारण एक विशिष्ट तरह का पाउच कैलशिरोल मार्केट में उपलब्ध है जिसकी कीमत रिटेल शॉप पर 36 से ₹40 तक लिया जाता है लेकिन जब एक व्यक्ति थोक बाजार पाउच को खरीदना है तो उसे सिर्फ ₹9 में 1 पाउच मिलता है यही नहीं कैल्शियम की सिपला जैसी कंपनियां जिन दवाओं को बना रही है 15 गोलियों का एक पत्ता ₹87 में ओपन मार्केट में मिलता है जबकि थोक मार्केट में एक पत्ता सिर्फ ₹22 का मिलता है पेरासिटामोल का एक पत्ता रिटेल मार्केट में ₹10 का मिलता है जबकि थोक मार्केट में यह सिर्फ तीन रुपए का मिलता है लेकिन हर शहर में ना तो थोक मार्केट है और ना ही लोग थोक मार्केट के बारे में जानते हैं उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अमीनाबाद के लाटूश रोड पर मेडिसिन मार्केट है जहां पर कोई भी सामान्य व्यक्ति जाकर इन महंगी दवाओं को बहुत सस्ते दाम में खरीद सकता है जिसका वर्णन किया गया है।

यही कारण है कि शहर में जितने लोग हैं उतना ही कुकुरमुत्ता की तरह मेडिकल की शॉप खुली दिखाई देती है क्योंकि लाभ का स्तर क्या है यह आसानी से जाना जा सकता है इस लाभ में किसी भी मनुष्य के जीवन का कोई मतलब नहीं है किसी गरीब की आह नहीं है किसी की परेशानी को सुनना नहीं है सिर्फ किसी तरह से पैसा कमाने की जुगत है यह एक आश्चर्य की बात है कि जब सरकार यह जानती है कि थोक मार्केट में दवाई इतनी सस्ती हैं तो उन थोक मार्केट से सिर्फ रिटेल शॉप तक आने में दवाओं के दाम में इतना अंतर क्यों हो रहा है क्या या मानवाधिकार उल्लंघन नहीं क्या इस पर रोक नहीं लगनी चाहिए क्या थोक मार्केट और कंपनी को या निर्देशित नहीं होना चाहिए कि कंपनी के मूल थोक रेट से 10 से 20 परसेंट से ज्यादा रिटेल में शाम दवाई नहीं भेजी जाएंगी आखिर कितना लाभ व्यक्ति काम आएगा यह सोचने का विषय है कि लाभ आवश्यक है यह देश की जनता स्वस्थ रहें संविधान के अनुच्छेद 21 में गरिमा पूर्ण जीवन उसको मिल सके एक गरीब से खुलेआम रिटेल शॉप पर वास्तविक मूल से कितने गुना ज्यादा दवाओं का पैसा वसूला जा रहा है पर ना तो कोई मानवाधिकार की संस्थाएं इस पर आवाज उठा रही है ना सरकारी संवेदनशील हैं आखिर पूंजीवादी व्यवस्था में इतना ज्यादा मुनाफाखोरी का सिद्धांत क्यों काम कर रहा है प्रजातंत्र में यदि जनता सर्वोच्च है नागरिक सर्वोच्च है तो उस नागरिक के हाथों में दवाओं को इतने ज्यादा मूल्य पर जो कि उन दवाओं के लिफाफे ऊपर प्रिंट है उन्हीं पर क्यों बेचा जाता है जनता को यह मालूम ही नहीं है कि उस पर मैक्सिमम रिटेल प्राइस लिखा रहता है लेकिन इसका तात्पर्य नहीं है कि जो प्रिंट है उसी पर दवा बेची जाएगी कहीं-कहीं पर 10 परसेंट कहीं पर 15 परसेंट छूट मिलती है लेकिन 70% मुनाफा कमाने वाले रिटेल दुकाने क्या मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं कर रही है क्या उन्हीं के सामने दवाओं के अभाव में एक भारतीय नागरिक मर नहीं रहा है क्योंकि उसके पास पैसा नहीं होता वह दवा खरीद सके इसलिए सिर्फ जेनेरिक मेडिसिन के आधार पर जन औषधि केंद्र बनाने के बजाय भारत के सारे जनरल औषधि केंद्रों को निर्देशित किया जाए कि भारत की जनता सर्वोच्च है प्रजातंत्र में जनता का महत्व सर्वोच्च है और उसको सिर्फ मुनाफा कमाने के आधार पर बेवजह मूल लागत से 70% ज्यादा पर दवाई बेचना एक अपराध है यह सच है कि कोई भी व्यक्ति लाभ के लिए दुकान खोल रहा है लेकिन थोक रेट से 20 से 25 परसेंट लाभ ले लिया जाना क्या उपार्जन को चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है या फिर एक मरीज की टूटती हुई सांसो पर चलने वाली मेडिकल की दुकानों को इस आधार पर कभी चिन्हित नहीं किया जाएगा कि वह देश की जनता को बीमार रखने उनको जीवित मारने में भी काम कर रही हैं और यह एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन का विषय होना चाहिए था जो आज तक नहीं हो पाया और यही विमर्श का विषय होना चाहिए

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