डॉ दिलीप अग्निहोत्री

 

दीनदयाल उपाध्याय राजनेता के साथ साथ उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। इस रूप में उन्होंने श्रेष्ठ,शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की थी। उन्होंने निजी हित व सुख सुविधाओं का त्याग कर अपना जीवन समाज और राष्ट्र को समर्पित कर दिया था।

यही बात उन्हें महान बनाती है। राजनीति में लगातार सक्रियता के बाद भी वह अध्ययन व लेखन के लिये समय निकालते थे। इसके लिये वह अपने विश्राम से समय की कटौती करते थे। इसी में लोगों से मिलने-जुलने और अनवरत यात्राओं का क्रम भी चलता था। आमजन के बीच रहना उन्हें अच्छा लगता था। शायद यही कारण था कि वह देश के आम व्यक्ति की समस्याओं को भलीभांति समझ चुके थे। यह विषय उनके चिंतन व अध्ययन में समाहित था। इन समस्याओं का उन्होंने कारगर समाधान भी प्रस्तुत किया।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर तात्कालिक घटनाओं व विचारों का प्रभाव पड़ता है। चिंतक, मनीषी उन्हें गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। वह इस पर विचार करते हैं कि अपने देश व समाज के लिये कौन-सा मार्ग कल्याणकारी होगा। पं. दीनदयाल ने यही किया।वह भविष्य द्रष्टा थे। भविष्य की समस्याओं को देख रहे थे। उनके प्रति वे सावधान करते रहे। उन्होंने उस समय चर्चित विचारधाराओं या वाद पर गहनता से विचार किया था। संयोग से वह विश्व में शीतयुद्ध का दौर था। एक तरफ पश्चिम का उपभोगवाद था, दूसरी तरफ मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद था। समाजवाद का विचार भी अस्तित्व में था। सोशलिस्ट पार्टियां भी सक्रिय थीं। दीनदयाल उपाध्याय ने इन सब पर विचार किया।

पाश्चात्य चिंतन उपभोगवाद पर आधारित था। इसके केंद्र में व्यक्ति था। इस सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति को अपनी सुख-सुविधाओं के लिये संलग्न रहने व प्रयास करते रहने का अधिकार है। इस विचार के अनुरूप ही प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब व बेरहमी से दोहन किया गया जिसके परिणामस्वरूप भौतिक विकास तो हुआ, लेकिन प्रकृति खतरनाक स्तर पर जा रही है। तरह−तरह के वैश्विक सम्मेलन हो रहे हैं। खूब चर्चा होती है, विशेषज्ञ समस्याओं की चर्चा करते हैं। लेकिन हर बार ढाक के तीन पात। कोई समाधान नजर नहीं आता। उपभोगवाद की दौड़ ने उन्हें जहां पहुंचा दिया है, वहां से लौटना संभव ही नहीं है। उपभोगवाद ने उनके समाज को भी अराजकता की स्थिति में पहुंचा दिया है। समाज बिखर रहा है, परिवार टूट रहे हैं, वृद्धावस्था आश्रम बन रहे हैं। अब वहां विशेषज्ञ रिसर्च पेपरों में विश्लेषण कर रहे हैं। उनका समाजवाद उपभोगवाद में उलझ कर रह गया है। इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। दीनदयाल उपाध्याय ने इस दृश्य की कल्पना छह दशक पहले कर ली थी। वह इसके प्रति सावधान करते थे।

कम्यूनिस्टों ने भारत को भी विदेशी चश्मे से देखा। इसलिये उन्हें अपने देश में कोई अच्छाई नजर नहीं आती। इन्होंने आत्मगौरवविहीन समाज बनाने का प्रयास किया। यह स्थापित किया  कि जो कुछ अच्छा है वह विदेशों से मिला है। हमारा कुछ नहीं, यह विचार उन्होंने प्रसारित किया। केवल सरकार के भरोसे सुधार का विचार भी विफल रहा। विश्व में सोशलिस्ट विचार भी अब केवल सिद्धांतों में बचा है। व्यवहार में कहीं नजर नहीं आता। दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन शाश्वत विचारधारा से जुड़ता है। इसके आधार पर वह राष्ट्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। समस्याओं पर विचार करते हैं। उनका समाधान निकालते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानव-दर्शन हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ता है। इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। जैसा कि पश्चिम या वामपंथी विचारों में कहा गया है। इसके विपरीत व्यक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है। प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है और आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है। इसमें समरसता का विचार है, कोई भेदभाव नहीं है। परिवार का हित हो तो व्यक्ति अपना हित छोड़ देता है। समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये। देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये। राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। धर्म अर्थ काम, मोक्ष का विचार भी ध्यान रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात लाभ की कामना हो, लेकिन का शुभ होना अनिवार्य है। एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगिकता सदैव रहेगी, क्योंकि यह शाश्वत विचारों पर आधारित है। दीनदयाल जी ने संपूर्ण जीवन की रचनात्मक दृष्टि पर विचार किया। उन्होंने विदेशी विचारों को सार्वलौकिक नहीं माना। यह तथ्य सामने भी दिखाई दे रहे हैं। भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन व संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों−टुकड़ों में विचार नहीं हो सकता।

दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र की आत्मा से लेकर जैविक खाद व व्यापार तक पर चिंतन करते हैं। उनके अध्ययन व मनन का दायरा कितना व्यापक था, इसकी कल्पना की जा सकती है। वह लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था सदैव राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होनी चाहिये। भरण, पोषण, जीवन के विकास, राष्ट्र की धारणा व हित के लिये जिन मौलिक साधनों की आवश्यकता होती है, उनका उत्पादन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिये। पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है। इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता। उत्पादन सामग्री के लिये बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है, लेकिन प्रकृति की मर्यादा को नहीं भूलना चाहिये। खाद्य सुरक्षा की बात अब सामने आई। दीनदयाल जी ने इस पर बहुत पहले ही विचार कर लिया था। उनके अनुसार हमारा नारा यह होना चाहिये कि कमाने वाला खिलायेगा तथा जो जन्मा सो खायेगा। अर्थात खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है। बच्चे, बूढ़े, रोगी, अपाहिज सबकी चिंता समाज को करनी पड़ती है। इस कर्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना ही अर्थव्यवस्था का काम है। अर्थशास्त्र इस कर्तव्य की प्रेरणा का विचार नहीं कर पाता। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी अर्थव्यवस्था का न्यूनतम स्तर है। आज शिक्षा की व्यवस्था भी चिंता उत्पन्न करती है। एक तरफ महंगी शिक्षा है। इसका लाभ सीमित वर्ग उठा सकता है। दूसरी ओर जहां शिक्षा सस्ती है, उनकी दशा खराब है। वहां मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं। शिक्षा व्यवसाय का रूप ले चुकी है। जिनका शिक्षा से कोई मतलब नहीं वह शिक्षण संस्थान के संचालक बन गये। दीनदयाल उपाध्याय को इसका भान था इसलिये उन्होंने लिखा था कि शिक्षा समाज का दायित्व है। बच्चों को शिक्षा देना समाज के अपने हित में है। दीनदयाल जी निःशुल्क चिकित्सा का सुझाव देते हैं, जिसपर वर्तमान मोदी सरकार आयुष्मान योजना के माध्यम से चल भी रही है। वह मानते हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मानव का विकास करने में असमर्थ सिद्ध हुई है। इसके विरोध में समाजवादी अर्थव्यवस्था आई। यह भी विफल हुई। इसने पूंजी का स्वामित्व राज्य के हाथों में देकर संतोष कर लिया।

दीनदयाल जी का अंत्योदय विचार आज भी प्रासंगिक है। भारत में अनेक वाद अपनाये गये। अब तो वैश्विकरण और उदारीकरण को भी लंबा समय हो गया। लेकिन अमीर व गरीब के बीच की खाई कम नहीं हुई। यह व्यक्तिवादी व उपभोगवादी चिंतन का भी परिणाम है। सत्ता व समाज दोनों को जिम्मेदारी से काम करने की दीनदयाल उपाध्याय प्रेरणा देते हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर जो व्यक्ति है, उसके उत्थान का प्रयास प्राथमिकता से होना चाहिये।
भवन निर्माण में पहले छत नहीं बनायी जा सकती। निर्माण नींव से शुरू होता है। इसी प्रकार जब भवन की सफाई करनी होती है तो यह कार्य ऊपर से प्रारंभ होता है। फर्श का नंबर सबसे बाद में आता है। यह समाज और सत्ता दोनों पर लागू होने वाला विचार है। कुल मिलाकर सब क्षेत्रों में दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इन्हीं के माध्यम से देश की वर्तमान समस्याओं का समाधान हो सकेगा। उन्होंने राष्ट्रीय पत्रकारिता की मिसाल कायम की थी। उनके लिए पत्रकारिता मिशन थी। कम्युनिस्टों की पत्रकारिता भारतीय मान्यताओं के प्रतिकूल थी। दीनदयाल जी ने लेखन के माध्यम से उसे चुनौती दी। उनसे प्रेरित होकर अनेक लोग राष्ट्रीय पत्रकारिता के प्रति समर्पित हुए। उन्होंने भारतीयता पर आधारित पत्रकारिता को आगे बढ़ाया। इसी भाव भूमि पर उन्होंने मासिक राष्ट्रधर्म,साप्ताहिक समाचारपत्र पाञ्चजन्य एवं ऑर्गेनाइजर और दैनिक समाचारपत्र स्वदेश प्रारंभ कराए थे। ये सभी उनके बताए मार्ग पर आगे बढ़ रहे है। पाञ्चजन्य में उनका विचारवीथी स्तम्भ बहुत लोकप्रिय था। इसी प्रकार ऑर्गेनाइजर में वह पॉलिटिकल डायरी स्तम्भ लिखते थे।

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