डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
वैसे तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद ही 10 दिसंबर 1948 को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्र में इस बात का प्रयास किया गया था कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी मानव एक दूसरे को अपने समान समझे स्वतंत्र समझें और सभी में बंधुत्व की भावना हो लेकिन वास्तविकता के अर्थ में जैसे दो परमाणु एक निश्चित दूरी पर रहकर ही एक दूसरे के प्रति अपना सही व्यवहार दे पाते हैं और उस निश्चित दूरी के समाप्त होने पर उनके बीच में प्रतिकर्षण शुरू हो जाता है ऐसे ही विश्व में रहने वाले प्रत्येक दो व्यक्तियों के बीच मैं भी एक दूरी देखी जा सकती है और उस दूरी के अनुपात में भी संबंधों का स्थाई तो देखा जा सकता है इन्हीं संबंधों के स्थायित्व का वैज्ञानिक नाम लोकतंत्र है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति समान है और उसे समानता के अधिकार और अवसर के अधिकार समान रूप से मिले मानव मानव को एक समान समझे इसी को समझाने का प्रयास लोकतंत्र में किया जाता है वैसे तो लोकतंत्र की परिभाषा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन द्वारा दी गई है जिसमें जनता का शासन जनता के द्वारा जनता के लिए कहकर परिभाषित किया गया है लेकिन क्या वैश्विक स्तर पर जनता का कोई इतना सर्वश्रेष्ठ मूल्य देखने को मिलता है चाहे इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया की संसदीय प्रणाली हो या फिर अमेरिका की राष्ट्रपति शासन प्रणाली हो सभी के लोकतंत्र में जनता कहीं ना कहीं दोयम दर्जे पर खड़ी दिखाई देती है पर जब इसी लोकतंत्र को भारत की परिभाषा में देखा जाता है तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपने संविधान की प्रस्तावना में हम जैसे शब्द को समाहित करके यह आदर्श रखने का प्रयास तो किया गया है कि मानव धर्म जाति लिंग राजनीति आर्थिकी किसी के आधार पर भेदभाव के द्वारा नहीं जाना जाता है और वहां बिना मुकुट का एक ऐसा राजा है जो अपना प्रतिनिधि संसद में भेज कर अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कुछ जनप्रतिनिधियों को नियुक्त करने में अपने मतों का प्रयोग करता है।
इस अर्थ में लोकतंत्र एक आदर्श स्थिति में दिखाई देता है और उसका सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ वह मानव वह नागरिक होता है जो प्रत्येक 5 साल पर यह सुनिश्चित करता है कि उसके जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने में उसका जनप्रतिनिधि कितना सक्षम हुआ है और आगे उसे चलना चाहिए या नहीं इतनी अभूतपूर्व शक्ति से अच्छादित होने के बाद भी लोकतंत्र अपने पारदर्शी परिभाषा में बिल्कुल विपरीत दृश्य प्रस्तुत करता है और भारत जैसी व्यवस्था में जनता एक दोयम दर्जे में दिखाई देती है वह राजा और रंग की श्रेणी में खड़ी हो चुकी है मतों की राजनीति में वह दरिद्र नारायण की परिभाषा में ज्यादा दिखाई देती है लेकिन नारायण शब्द उसके जीवन से विलोपित हो जाता है और सिर्फ दरिद्र शब्द स्थापित दिखाई देता है और ऐसे ही लोकतंत्र की दुर्दशा को वैश्विक स्तर पर बहुत समय से महसूस किया जा रहा है यही कारण है कि वर्ष 2007 में संयुक्त राष्ट्र संघ में 8 नवंबर को एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसके प्रकाश में प्रत्येक वर्ष 15 सितंबर को विश्व लोकतंत्र दिवस मनाया जाने लगा पहला लोकतंत्र दिवस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 2008 में मनाया गया था वर्तमान में वर्ष 2021 में अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की जो थीम रखी गई है वह बहुत ही प्रासंगिक और प्रभावी है भविष्य की समस्याओं के मुहाने पर लोकतंत्र के लचीले पन को मजबूत करना यही थीम आने वाले समय के लिए निर्धारित है लेकिन समझने की आवश्यकता यह है कि लोकतंत्र में वास्तव में जो तंत्र बनाया गया है उसमें जन सहभागिता कितने स्तर तक है क्या वास्तव में नागरिक के रूप में एक व्यक्ति उच्च स्तर पर आज वास्तव में खड़ा है जहां पर वहां निरपेक्ष रूप से सिर्फ मानव के रूप में जाना है या फिर पूरे वैश्विक स्तर पर आज भी लोकतंत्र व्यवस्था को धता बताते हुए मानव सिर्फ जाति धर्म लिंग रंग आदि के आधार पर ही पहचाना जा रहा है लोग अपने धर्म की संख्या बढ़ाकर लोकतंत्र में कब्जा करने की राजनीति करने लगे लोग अपनी जातियों की संख्या बढ़ाकर जनसंख्या विस्फोट को दावत देते हुए लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने लगे हैं और ज्यादा से ज्यादा अपनी जातियों के लोगों को सदन में भेजने के प्रयास में जुड़ गए हैं जिसमें जनकल्याण की भावना कल्याणकारी राज्य की संकल्पना ना जाने कहां खो गई है मतों की राजनीति और उन्हीं के आधार पर सदनों में पहुंचने का विकल्प सरकार को इतना दिव्यांग बना चुका है कि वह मजबूरन लोकतंत्र में सभी के विकास सभी की प्रगति के बजाय जाति और धर्म के आधार पर योजनाएं बना रहे हैं लोगों को उसका लाभ दे रहे हैं जिसके कारण लोकतंत्र कहीं विलुप्त सा हो गया है छद्म लोकतंत्र की स्थापना ज्यादा हो रही है यही कारण है कि विश्व या अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस पर प्रत्येक व्यक्ति को या महसूस करने की आवश्यकता है कि वह अपने समान ही क्या दूसरे मनुष्य को मनुष्य समझ रहा है क्या उसके अंदर दूसरे को लेकर नफरत घृणा प्रतिस्पर्धा जैसे भावना रहते हुए विश्व बंधुत्व की भावना है वसुदेव कुटुंबकम का दर्शन है यदि ऐसा नहीं है तो अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस के प्रचार प्रसार के किए जाने की आवश्यकता है और वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र को जन जन तक पहुंचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा पत्र 1948 के सभी धाराओं को वास्तविक अर्थ में उतारे जाने की आवश्यकता है अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस वास्तव में कब अपने वास्तविक आयाम और लक्ष्य को प्रतिबिंबित कर पाएगा यह पूरी तरह लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ मानो या नागरिक पर निर्भर करता है जिसे अपनी बुद्धि को निरपेक्ष बनाने की आवश्यकता है अपनी बुद्धि को धर्मनिरपेक्षता से जोड़ने की आवश्यकता है ताकि उसे अपने सामने वाले में सिर्फ और सिर्फ हम की भावना दिखाई दे तभी अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस को मनाए जाने की प्रासंगिकता और सार्थकता को रेखांकित किया जा सकता है डॉ आलोक चाटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन लेखक विगत दो दशकों से मानव अधिकार जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लेखन कार्य कर रहे हैं