डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
2012 मैं संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस के रूप में घोषित किया और वर्ष 2023 में अंतरराष्ट्रीय वन दिवस की थीम है जंगल एवं स्वास्थ्य वैसे तो एक सामान्य अवधारणा या है कि किसी भी देश में उस के कुल क्षेत्रफल का करीब 33% जंगल होना चाहिए लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि इस पर भारत जैसे देश में भी जहां वन माता होती हैं वहां पर भी जिस तरह से जंगलों को काट कर उस न्यूनतम प्रतिशत को भी अनदेखा कर दिया गया है जो किसी भी देश के पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए आवश्यक था।
वर्ष 2021 में कुल क्षेत्रफल का 21.71% जंगल ही भारत में शेष है जबकि यह प्रतिशत 2019 में 21.19 था गाल बजाने के लिए यह काफी है कि हम जंगलों के संरक्षण के लिए सचेत हुए हैं लेकिन जिस तरह से विदेशों से हमको अपने देश के जंगलों के पर्यावरण में रहने के लिए शेर और चीते लाने पङ रहे हैं उससे यह तो स्थापित हुआ है कि हम यह समझ रहे हैं कि पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ रहा है लेकिन यह भी सच है के जंगलों को हमने जंगल की कहानी में ही ज्यादा समझना शुरू कर दिया है जिस तरह से पेड़ काटे जा रहे हैं अवैध कटान हो रही है उससे यह लग रहा है कि अब हमारे जीवन में इस बात के वैज्ञानिक सत्य का भी कोई महत्व नहीं रहा है कि पेड़ों में भी जीवन होता है और पेड़ों को भी जीवन समाप्त करने के आधार पर एक हत्या से होकर गुजरना पड़ रहा है और हत्यारा कोई नहीं मानव है।
लेकिन देश के पूरे विश्व के विधान में ऐसा कुछ भी नहीं है कि पेड़ों की हत्या करने पर किसी को आजीवन कारावास हो या उसे फांसी की सजा हो इसलिए यह तो मान ही लिया गया है कि पेड़ों में मनुष्य की तरह जीवन होता जरूर है लेकिन वह जीवन उस तरह का जीवन नहीं है जैसा मनुष्य अपने लिए समझता है और अपनी चलती हुई सांसों के लिए जीने वाला मानव जंगल में रहने वाले जानवरों के लिए भी उतना संवेदनशील नहीं है वह कह कर जरूर है कि मनुष्य प्रकृति की सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है लेकिन यदि सर्वोच्च सुंदरता वाला प्राणी इतना निर्दयी हो सकता है तो फिर निश्चित रूप से जंगल में रहने वाला शेर परोपकारी होता है क्योंकि वह अपनी आवश्यकता और भूख के अलावा किसी भी प्राणी की ना हत्या करता है ना मारता है लेकिन मनुष्य तो सिर्फ अपने ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाने के लिए ना जाने कितने जानवरों को इसलिए मार देता है क्योंकि उसे कृत्रिम सुंदरता पसंद है भले ही वह प्राणी इस दुनिया में आने वाले समय में मिले ही ना और ऐसी प्रक्रिया मनोविज्ञान वाले मानव के बीच में अंतरराष्ट्रीय वन दिवस मनाया जाना एक हास्यास्पद स्थिति ज्यादा ह।
वैसे तो जिस तरह से भारत में हरियाली उत्सव मनाया जाता है चिपको आंदोलन शुरू हुआ जिस तरह से विश्नोई समाज के लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए आंदोलन किया अपने प्राणों की आहुति दिया उससे यह तो स्थापित होता है कि भारत में पेड़ों के लिए जंगल के लिए हमारी संवेदनशीलता अलग है लेकिन यह भी सच है की पूरी पृथ्वी पर रहने वाले मानव के लिए सबसे सुगम रास्ता नदी और समुद्र थे और उसके लिए जिस तरह सेनाओं और जहाजों की आवश्यकता पड़ी और इस आवश्यकता को सबसे ज्यादा दोहन करने वाले अंग्रेजों के यहां मिलने वाले ओक के पेड़ों से बनने वाले जहाज नाव की आयु सिर्फ 10 से 12 वर्ष होती थी लेकिन भारत में जो लकड़ियां पाई जाती थी उन से बनने वाली नाव और जहाजों की आयु 50 वर्ष कम से कम होती थी और यही टिकाऊ पन्ने अंग्रेजों को भारत के जंगलों के प्रति आकर्षित किया क्योंकि उन्हें विश्व विजय करने के लिए जिन जहाजों की आवश्यकता थी और एक बार बन जाने के बाद लंबे समय तक जहाजों के बने रहने की जो स्थितियां भारत के जंगलों की लकड़ियों की थी उसने अट्ठारह सौ पैसठ में अंग्रेजों को वन से संबंधित नीतियों को बनाने के लिए प्रेरित किया और उसके बाद अट्ठारह सौ 94।
फिर इस तरह के लंबे पड़ाव के बाद 1980 में वन संरक्षण अधिनियम आदि ने यह तो महसूस कराना शुरू कर दिया कि जंगलों के संरक्षण की आवश्यकता है खासतौर से भारत जैसे देश में जहां पर 2011 की जनगणना के अनुसार 700 से ज्यादा जनजातीय समूह जंगलों में रहते हैं या उसके आसपास के क्षेत्रों में रहते हैं उनको जंगलों से निकालने की जो मुहिम शुरू हुई उसने जंगलों के संतुलन को और ज्यादा प्रभावित किया क्योंकि जनजातियों के माध्यम से जंगल की सुरक्षा संरक्षा भी सुनिश्चित हो रही थी आदिवासियों को कागज और आधुनिक भारत का इतना ज्ञान नहीं है इसलिए उनके पास कानूनी दस्तावेज भी उतने नहीं जिससे यह प्रमाणित हो सके कि वह कम से कम तीन पीढ़ी जानी 75 साल से जंगलों में रह रहे हैं इसलिए उन्हें तो जंगलों से बाहर निकाला जा रहा है लेकिन जो जंगल में कृत्रिम तरीके से आधुनिक लोग घुस कर बैठ गए हैं उन्होंने इतने कानूनी दस्तावेज बनवा रखे हैं और भ्रष्टाचार के साथ मिलकर वह जंगलों में अपने रहने को वैधता प्रदान कर रहे हैं जो आने वाले समय में फिर उसे जंगलों के अस्तित्व को खतरा पैदा करेगा क्योंकि प्राकृतिक रूप से जो जनजातियां जंगलों के साथ रह रही थी।
वह उन्हें प्राकृतिक रूप से शक्ति का भी प्रतीक मानती थी उन्हें भगवान के रूप में देखती हैं लेकिन जो घुसपैठियों के रूप में जंगलों में रहने लोग गए हैं उनके लिए वह केवल एक कमाई का साधन है और यही कारण है जंगलों के अस्तित्व की सुरक्षा के लिए व्यापक रूप से ऐसे लोगों का सहयोग लिया जाना चाहिए जो जनजातियों के अध्ययन में पारंगत हो यही नहीं जंगलों में पाई जाने वाली असंख्य जड़ी बूटियों से तरह-तरह के इलाज को किया जाना संभव हो सकता है।
भारत की बहुत सी जनजातियां ऐसी हैं जो भारत के स्वास्थ्य के लिए तरह-तरह की जड़ी बूटियां विभिन्न कंपनियों को उपलब्ध कराती हैं नीलगिरी पहाड़ियों पर रहने वाली बड़ागा जनजाति अपने पूरे जीवन काल में कम से कम 20000 सांपों का जहर निकालती है लेकिन उन्हें मारती नहीं है और उन्हीं सांपों के जहर से anti-venom बनता है इसी तरह गुजरात में रहने वाली पधार जनजाति और मध्य प्रदेश की रहने वाली भीड़ जनजातियों में जंगल की कुछ पत्तियां जिसे आप नरसी या बेशरम का पौधा कहते हैं।
उनसे पोलियो का इलाज करते हैं यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय वन दिवस को मनाया जाना तभी सार्थक हो सकता है जब हम उसके अंदर गहराई से जुड़ कर देखें और इस सच्चाई को वैज्ञानिकता के आधार पर महसूस करें कि जब हम किसी पेड़ को काटते हैं उसकी हत्या करते हैं तो उसे उतना ही दर्द होता है छटपटाहट होती है जितना एक मनुष्य की हत्या करने पर उस व्यक्ति को होती है जगदीश चंद्र बोस के अध्ययन का कोई भी फायदा अगर हम पेड़ों की दुनिया को नहीं दे पा रहे हैं और आधुनिकता की दौड़ में रोज अनगिनत पेड़ों की हत्या कर रहे हैं तो मानव हत्यारा ही कहला सकता है और वह हत्यारा मानव जब अपने दिखावे वाले प्लास्टिक के लिए अंतरराष्ट्रीय वन दिवस का हिस्सा बनने का प्रयास कर रहा है तो इस प्राकृतिक से हत्या किए गए पेड़ों को तो वापस नहीं लाया जा सकता है लेकिन आने वाले समय में पेड़ों को एहसास कराया जा सकता है कि हमें तुम्हारी तरह ही तुम्हारे दर्द की समान अनुभूति है और हम तुम्हारे लिए उसी तरह सोचना चाहते हैं और सोचेंगे जैसे हम अपने परिवार के लोगों के लिए और दूसरे मनुष्यों के गरिमा पूर्ण जीवन के लिए सोचते हैं तभी तो यह सिद्ध हो पाएगा कि पैरों में जीवन है तो उस जीवन का हमने सम्मान किया है और उस जीवन को हमने यह माना है कि यह प्रकृति की देन है या ईश्वर की देन है इस को मारने का इसे काटने का हमारा कोई अधिकार नहीं है यदि यह भावना नहीं लाई गई तो निश्चित रूप से पृथ्वी पर हम सिर्फ एक दिखावा कर रहे हैं और अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस एक खोखले आदर्श के अलावा कुछ भी नहीं रहेगा।