राजीव गांधी स्टडी सर्कल के तत्वावधान में चल रही नेहरु स्मृति व्याख्यानमाला की कड़ी में अब तक अछूते पहलू को स्पर्श करते विषय “जवाहर लाल नेहरू और स्वतंत्रता बाद के आंरभिक काल में विधिक सुधार” पर 12 वें अति विद्वतापूर्ण व्याख्यान से इलाहाबाद उच्च न्यायालय से विगत अप्रैल में से.नि. मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री गोविन्द माथुर ने वेब विद्वत समागम को अभिभूत किया। उन्होंने कहाकि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वातन्त्रता संघर्ष एवं स्वातन्त्रयोत्तर राष्ट्र निर्माण के दोनों युगों के दूरदर्शी नायक नेहरू के नेतृत्व में बेहद बुनियादी महत्व के संवैधानिक एवं विधिक सुधार हुये। बेशक विधिक सुधार एक सतत प्रक्रिया है, लेकिन नेहरू युग के विधिक सुधारों का लोककल्याणकारी लोकतंत्र के विकास और उसके आदर्शों की कसौटी पर बेहद क्रांतिकारी महत्व है।

जस्टिस माथुर ने कहा कि राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रथम युग के शीर्ष नेता गांधी ने दूसरे युग की कमान नेहरू को दी, क्योंकि राष्ट्रनिर्माण की उनकी व्यापक दूरदृष्टि पर उन्हें भरोसा था। उस कुशल भारतीय नेतृत्व का ही परिणाम था कि एक ही धारा से बंटकर निकली पाकिस्तान की संविधान सभा बिना संविधान बनाये बर्खास्त हुई, पर भारतीय संविधान सभा ने विश्व के विशालतम लोकतंत्र को अनेक चुनौतियों के बीच सफल विकास का संवाहक एक विलक्षण संविधान दिया। उसके निर्माण के आधारभूत ढांचे व सिद्धान्तों का सांचा संविधान सभा में नेहरू द्वारा सर्वप्रथम प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव बना था। संविधान आधारित प्रथम चुनावों से पूर्व ही 1951 में अंतरिम संसद द्वारा पारित प्रथम संविधान संशोधन लोकतंत्र के लोककल्याणकारी स्वरूप व साजाजिक न्याय के मंसूबों की नींव रखने का ऐतिहासिक संवैधानिक सुधार था। उसने सामंतवाद के ताबूत में कील सरीखे जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की न्यायिक चुनौतियों के निदान, निर्बल वर्गों के छात्रों को शिक्षा संस्थानों में स्थान तय किये जाने की बाधाओं के समाधान, स्वतंत्रता को लोकव्यवस्था, राष्ट्र की सम्प्रभुता व अखंडता एवं सदाचरण की मर्यादाओं से संयमित रख जाने के साथ नीति निर्देशों की महत्ता स्थापन को सुदृढ़ बुनियाद देने का काम किया। सम्पत्ति के मूल अधिकार यदि तब मर्यादित न किये गये होते, तो सामाजिक न्याय के जो क्रांतिकारी काम हो सके उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

नेहरू युगीन विधिक सुधारों की चर्चा में उन्हें सर्वकालिक महत्व के क्रांतिकारी सुधार बताते हुये जस्टिस माथुर ने कहा कि उस दौर में बने सैकड़ों अधिनियमों का बुनियादी महत्व आज भी कायम है। उनके द्वारा लोकतंत्र को जड़ों तक ले जाने का काम व्यापक जन विश्वास से संभव हुआ। ऐसे सैकड़ों महत्वपूर्ण विधिक सुधारों के बीच कई उल्लेखनीय महत्व के तत्कालीन अधिनियमों के स्वरूप एवं प्रभावों का गंभीर विश्लेषण के साथ उल्लेख करते हुये उन्होंने कहाकि किसानों को अभूतपूर्व न्याय दिलाने वाले जमींदारी उन्मूलन एक्ट 1950, श्रमिकों को शोषण से संरक्षण देने वाले औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, न्यूनतम वेजेज एक्ट 1948, कार्यस्थल पर कल्याणकारी परिवेश सुनिश्चित करने वाले फैक्ट्री एक्ट 1947, 8 घंटे काम और काम में महिलाओं के संरक्षण के कानूनों का सर्वकालिक महत्व है, जिसका आज खुलकर उल्लंघन हो रहा है। इसी तरह राज्यकर्मी वीमा कानून 1948, से.निवृत्ति के बाद मृत्यु पर्यन्त ही नहीं बल्कि उसके बाद भी कर्मी एवं परिवार को संरक्षण देने वाले कानून, मेटर्निटी बैनिफिट्स एक्ट 1961, मोटर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स एक्ट 1961, वर्किंग जर्नलिस्ट्स एवं प्रेस कर्मियों के अधिकार संरक्षण के अधिनियमों या बीड़ी एवं सिगार वर्कर्स के संरक्षण कानून आदि विधिक सुधार उस वक्त लोककल्याण की कसौटी पर दूरदृष्टि वाले अन्य भी अनेक क्रांतिकारी विधायनों में शुमार हैं। नेहरू अच्छे प्रस्तावों के स्वागत का लोकतांत्रिक मिजाज भी रखते थे।

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जब 1954 में लोकसभा में विधिक सुधारों के लिये विधि आयोग का प्रस्ताव आया, तो नेहरू ने स्वयं सरकार की ओर से ज्यादा व्यापक उद्देश्यों के साथ न केवल राष्ट्रीय विधिक सुधार आयोग की घोषणा कर दी, बल्कि किसी दराज के इस्तेमाल के बिना उसकी अंतरिम एवं अंतिम संस्तुतियों के दृढ़ता से क्रियान्वयन की पहल की। इसी तरह मुद्रा के स्वस्थ विकास एवं अर्थव्यवस्था को दृढ़ आधार देने की सामर्थ्य वाले बैंकिंग रेग्यूलेशन एक्ट 1949, आपराधिक न्याय सुधार के कानून, जनता के लिये जरूरी खाद्यानों के संरक्षण के आवश्यक वस्तु अधिनियम, दो वर्ष में पारित हो सका 1965 का लाभांश में वर्कर्स के हक का कानून, स्किल्स डेवलपमेंट के लिये हर उद्यम व उद्योग प्रतिष्ठानों में अनिवार्य अप्रैन्टिसशिप प्रोविजन के कानून आदि सुधारों का भी मौलिक व क्रांतिकारी महत्व है। इसी तरह विवादों से गुजर कर सर्वस्वीकार्य बने पर्सनल ला सुधार के कानूनों का निर्माण भी, समाज सुधार की दृष्टि से क्रांति सरीखे महत्व के साथ इतिहास में दर्ज हैं। स्पेशल मैरेज एक्ट 1954, हिन्दू मैरेज, एडाप्शन, विवाह विच्छेद, विवाह पृथक्करण, उत्तराधिकार, बहुविवाह मान्यता आदि के आज सहज स्वीकृत बन चुके कानूनों की तब कल्पना कठिन थी, जो लोकप्रिय विधायन से संभव हुये। वह नेतृत्व के विजन एवं जनमत निर्माण सामर्थ्य का प्रमाण था। आज सभी के लिये समान नागरिक कानून का प्रश्न जो एक संवैधानिक संकल्प भी है, मुद्दा तो बनता है, पर कैसे सर्वस्वीकार्य स्वरूप में लोकप्रिय विधायन से यह कार्य हो, इसका विजन और माडल कहीं नहीं दिखता।

उस दौर के अन्य संवैधानिक सुधारों की चर्चा करते हुये न्यायमूर्ति माथुर ने कहाकि चार स्तर के राज्यों का दो स्तरों में राष्ट्रीय पुनर्गठन 1956 में हुआ। साथ ही 1947 में भारत का जो भौगोलिक क्षेत्रफल नेहरू की टीम को मिला, उसे बढ़ाने की सर्जिकल स्ट्राइक सरीखी उपलब्धियों के संवैधानिक संशोधन भी सम्पन्न हुये। पुर्तगाल को उसकी कालोनी दादरा नागर हवेली में सैन्य मूवमेंट के निमित्त पैसेज देने से नेहरू ने साफ इनकार किया, तो पुर्तगाल अन्तराष्ट्रीय न्यायालय गया, जहां भारत ने पांच साल स्थायी रूप से लीगल टीम तैनात रख कर केस जीता और अंतत: उन्हें वह कालोनी खाली करने पर मजबूर कर दिया। 14 अगस्त 1961 को संसद में उसके भारत विलय का प्रस्ताव रखा गया, 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री ने उसकी घोषणा की और 16 अगस्त को पारित संविधान के 10 वें संशोधन पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ दादरा नागर हवेली भारत का हिस्सा बन गया। यह सफल “लीगल सर्जिकल स्ट्राइक” थी। इसी तरह 1962 में सैन्य कार्रवाई से पुर्तगाल से गोवा दमन दीव मुक्त कराकर उसके भारत विलय का मार्ग प्रशस्त हुआ। 12 वें संविधान संशोधन से उसका भारतीय क्षेत्र में समाविष्ट होना सफल “सैन्य सर्जिकल स्ट्राइक” थी। ऐसी तीसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि जनमत संग्रह की फ्रेंच मांग ठुकराकर बातचीत द्वारा फ़्रान्सीसी कालोनी पांडुचेरी का 14 वें संविधान संशोधन के बाद भारत में शामिल कराना सफल “कूटनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक” थी। कालान्तर में सिक्किम का भारत विलय तो 1976 में हुआ, लेकिन उपर्युक्त तीनों उपलब्धियां नेहरू-युगीन थीं।

विशेष व्याख्यान वेब समागम की अध्यक्षता करते हुए राजस्थान लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं कोटा विवि के राजनीति विज्ञानी पूर्व कुलपति प्रो.बी.एम. शर्मा ने जहां जस्टिस माथुर के व्याख्यान की सराहना करते हुये उन्हें ‘प्रोफेसर माथुर’ कहा तथा ‘नेहरू और विधिक सुधार’ के अछूते विषय को विद्वतापूर्ण ढंग से विश्लेषित करने के लिये सराहा, वहीं कहाकि नेहरू की विधिक एवं संवैधानिक विश्वदृष्टि की गहरी बौद्धिक सामर्थ्य सबसे पहले अपने पिता की अध्यक्षता में बनी 1927 की नेहरू-समिति के सदस्य के रूप में नेहरू-रिपोर्ट में उभर कर देश के सामने आई थी। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक ही नहीं, विधिक विकास के माध्यम से भी राष्ट्र निर्माण में नेहरू के योगदान के मौलिक महत्व को भुलाया नहीं जा सकता।

स्वागत एवं संक्षिप्त विषय प्रवर्तन जहां आरजीएससी के प्रभारी राष्ट्रीय समन्वयक प्रो.सतीश कुमार ने किया, वहीं राजस्थान इकाई की ओर से स्वागत राज्य सह समन्वयक डा. एम.एल.अग्रवाल ने किया। राष्ट्रीय इकाई द्वारा नियोजित वेब कार्यक्रम का संयोजन-संचालन अजमेर संभाग समन्वयक डा. सुनीता पचौरी ने तथा तकनीकी संयोजन डा.रेनू पुनिया- अजमेर ने किया। धन्यवाद ज्ञापन प्रो.मंजुला मिश्रा ने किया। समागम में शामिल लोगों में उल्लेखनीय थे सर्वश्री डी.एस. चूडावत उपाध्यक्ष राज. उच्च शिक्षा आयोग, प्रो.जगदीश चौधरी व डा.राजेन्द्र जाधव- अहमदाबाद, प्रो.सुरेन्द्र शर्मा- हरियाणा, प्रो.रामायण प्रसाद-पटना, डा. सईदुर्रहमान- मालदा, डा.श्याम बाबू-बक्सर, प्रो.आर.के. चौहान एवं डा.अजय गर्ग- हि.प्र.,अंकित बागबहरा (छग), डा.संजय द्विवेदी एवं डा. राम गोपाल कुशवाहा- अरुणाचल, डा.विनोद चन्द्रा- उ.प्र. लखनऊ,डॉ ध्रुव कुमार त्रिपाठी लखनऊ डा. शिल्पा दीक्षित शर्मा- आगरा, प्रो.कमलेश माथुर, डा.वी.एस. पंवार, प्रो.बी.एल.वैष्णव आदि जोधपुर, डा. आशीष, तन्मय चटर्जी एवं अभिनीत कुशवाहा-इलाहाबाद, डा.के.जी.त्यागी- दिल्ली, डा.रीता मेहरा- अजमेर, डा.संजीव वर्मा- जैसलमेर, डा. प्रमोद पाण्डेय- नेशनल स्टूडेंट सेक्रेटरी-जयपुर, वासिफ उमर खान- झांसी, डा.देवेन्द्र परमार-धौलपुर, डा.शालिनी चतुर्वेदी-जयपुर, डा.ए.के.दुलार-बीकानेर, डा.ए.के.त्यागी-कोटा, डा.बी.आर. बिश्नोई-सिरोही, डा.दीपक मेहरा, डा.धर्मेन्द्र सिंह- एनएसएस राज. आदि।

 

 

 

 

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