फिर तेरी कहानी याद आयी : दो साल पहले माता कामरूप कामाख्या के दर्शन के लिए की गई गुवाहाटी की वो तिलस्मी यात्रा और रोंगटे खड़े कर देने वाले वो रहस्यमय अनुभव…
विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार.
वो मंगल की रात थी। हम भुवनेश्वरी मंदिर से दर्शन के बाद हारमनी हाउस लौट आये थे। पता नहीं क्यों ऐसे लग रहा था जैसे कोई तो वहां हमारी बाट जोहता रहा और हम उससे बगैर मिले लौट आये थे। हमने कई बार गिनती की। दश महाविद्या की उन सारी देवियों का नाम स्मरण किया जिनके नाम और मंदिर का पता पंडित परितोष शर्मा जी ने हमें बताया था। उन्होंने हमसे कहा था कि माता बगुलामुखी का सिर्फ शिखर दर्शन कर लीजिएगा, क्योंकि मंगलवार होने के कारण वहां बहुत भीड होगी और एक सौ चवालिस सीढियां उतरना और फिर चढना मंदाकिनी दीदी के बस का नहीं है। हमने वही सब किया था। पता नहीं क्यों अब तक उलझन बनी हुई थी। देर रात तक हम मां कामाख्या मंदिर के तिलिस्म के बारे में ही बतियाते रह गये। इस बीच हम हारमनी हाउस को भी किसी जादू टोने की तरह ही देख रहे थे। ऐसे लग रहा था कि जैसे वहां रखी हर चीज किसी तंत्र साधक की भैरवी हो। सीलिंग पर पतले धागे से टंगी सीरामिक की बहुरंगी ढेर सारी केटली। आलमारी में रखे बेशुमार खिलौने, किसी पुराने फोटोग्राफर की लकडी के स्टैंड पर रखी खूबसूरत फ्लैश लाइट और भी बहुत सारा, न जाने क्या क्या। शयन मुद्रा में लेटे हुए तथागत बुद्ध। उनका मुस्कराता चेहरा जैसे कह रहा हो कि मैं जानता हूं कि तुम मेरे रहस्यवाद को बूझने का प्रयास कर रहे हो। हारमनी हाउस की हर चीज में एक अट्रैक्शन था। ऐसे लग रहा था जैसे वो सब कोई शोडषी कन्याएं हों जिन्हें किसी ने उच्चाटन के मकसद से सम्मोहित कर रखा हो। सबकी बकायदा शक्लें दिख रही थीं। उस रात हमने पूरे हारमनी हाउस का भ्रमण किया। हर कमरे से लेकर हर मंजिल तक का निरीक्षण कर डाला। लोभान की तेज खुशबू की और हवा में तैरता धुआं। गलियारे में दीवार पर टंगी बीज मंत्र के साथ हमारे कुलदेवता गणपति और मां गायत्री की तस्वीर देख हम अभिभूत थे। दूसरी तरफ कुछ बहुत पुरानी फिल्मों के पोस्टर थे जो बाकयदा फ्रेम में मढ कर यूं टंगे थे जैसे वो भी कोई देखने की चीज हो।
हमारे कदम आगे बढ चुके थे लेकिन तभी अचानक ऐसे लगा जैसे किसी ने आवाज दी हो। हम हैरत में थे। पलट कर देखा तो वहां कोई नहीं था। अरे ये क्या ? हमने आगे बढ चुकीं दीदी और पत्नी को आवाज दी। बताया कि यहां अभी किसी ने मुझे आवाज दी हैै। इस बीच हम पोस्टर में बुरी तरह से खो चुके थे। पाकीजा फिल्म के पोस्टर में राजकुमार के सीने से लगी महजबीन बानो मानो रो रही थीं। मेरे रोंगटे खडे हो गये थे। ऐसे लग रहा था जैसे वो सिसकियां ले रही हों। महजबीन को लोग मीना कुमारी के नाम से ज्यादा जानते हैं। वो अपने नाम की तरह वाकई बेहद खूबसूरत थीं। इश्क पाने के लिए महज बत्तीस की उम्र में फनाइयत से गुजरना उस आदाकारा की नियति बनी थी पर उन्होंने ऐसी बका पायी कि वो आज पोस्टर बनी यहां टंगी हुई हैं। हमें ये पोस्टर बेचैन कर गया। वो आवाज भी मुझे तंग किये हुए थी। कमरे में लौटने के बाद नेट के सर्च इंजन पर मैं अचानक महजबीन बानो उर्फ मीना कुमारी को तलाशने लगा। मेरी आंखों में उतर आया पानी मुझसे उस शख्सियत से मेरे रिश्ते का पता पूछ रहा था जिसे मैंने अपनी जिंदगी में कभी देखा ही नहीं। यह सब लिखते हुए मुझे सिंहरन हो रही है कि वो एक अगस्त की रात थी। ये वो मनहूस तारीख थी जिसमें महजबीन बानों दादर मुम्बई के एक छोटे से चाॅल में पैदा हुई थीं। मनहूस इसलिए कि महजबीन से मीना कुमारी बनने की दर्दनाक जिंदगी को उनके शैदाई ट्रेजडी क्वीन के नाम से पुकारते हैं। हम सो ही नहीं पाए। मोहतरम लोगों क्या इसे संयोग कह कर आगे बढ जाना चाहिए। नहीं साहब, ये कैसे कह सकते हैं
आप ? नहीं, नहीं।
बहरहाल, उस रात हम सबके बीच तय ये हुआ कि कल सुबह बाला जी के मंदिर जाएंगे। कामाख्या भी चलेंगे लेकिन दर्शन करने के लिए लाइन में लग कर न तो धक्के खाएंगे और न ही वीआईपी टिकट के लिए पैसे खर्च करेंगे। सुबह आराम से सो कर उठेंगे फिर उसके बाद चलने का वक्त तय करेंगे। अगर मां कामाख्या ने हमें अंदर बुला लिया तो ठीक नहीं तो बाहर से हम उनका तवाफ यानि प्रदक्षिणा कर लेंगे। उस रात हम सबने सोना तो चाहा पर शायद नींद किसी को आयी ही नहीं। करवटें बदलते हुए सुबह कब हो गयी खबर ही नहीं लगी। गुवाहाटी के साथ एक मजेदार चीज है। यहां शाम जल्दी मतलब पांच बजे ढल जाती है लेकिन सुबह साढे चार बजे सूर्य देवता अपने प्रकट होने की दस्तक दे चुके होते हैं। इस बीच ओला कैब हमें बालाजी के लिए लेकर चल पडा था। हम मंदिर के दहलीज पर थे पर हमें यकीन ही नहीं हो रहा था कि हम गुवाहाटी में हैं। ऐसे लग रहा था जैसे हम तिरूमाला की पहाडी पर भगवान विष्णु के इस रूप को पुकार रहे हों। गणपति, पद्मावती, राजराजेश्वरी और फिर खुद आकर खडे थे भगवान बालाजी। वही कसौटी पत्थर का आदमकद विग्रह। जैसे अभी बस बोल देंगे। धोती, कमर में कसा खूबसूरत बंध, माथे पर वैष्णव तिलक। सब कुछ अद्भुत। तमिल बोलते पुजारी और प्रसाद में मिला अन्नम और लाडू। सब कुछ अवर्णनीय। कहीं पढा था कि भगवान बाला जी विष्णु के स्त्री रूप हैं। तो वो यहां मां का रूप धरे गुवाहाटी में क्यों बैठे हैं ? एक सवाल और भी था जो जेहन को मथे जा रहा था। कहीं वो गैब के कराये उस कृत्य की प्रायश्चित करने के लिए तो यहां नहीं आ गये जिसके तहत उन्होंने माता सती के पार्थिव देह पर सुदर्शन चलाया था ? इन सबके बीच हम कब फिर माता कामरूप दरबार की सीढियां चढने लगे पता ही नहीं चला। हमने कोई माला फूल नहीं लिया। बिल्कुल खाली हाथ। जैसे कोई मंगता आता है अपने मालिक के घर याचना के लिए। जेहन में सिर्फ एक ही बात थी और वो था खुद के गदाई होने का अहसास, सबका भला, सबकी खैर की दुआ।
सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके, शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते की प्रार्थना।
आज हमने पंडित परितोष शर्मा जी को कोई काॅल नहीं किया। हमने तय किया कि आज हम कोई वकील नहीं रखेंगे। अपनी पैरवी खुद करेंगे। अपनी याचना सीधे मां से करेंगे। आज कुछ कम लोग थे। अब यहां मंदिर में अंदर घुसने का लालच मन में जागने लगा। दीदी को यह कह कर एक जगह बैठा दिया कि आप यहीं विराजो हम जाकर देखते हैं। किसी भी लाइन में कहीं कोई भीड नहीं थी। हम दनदानते हुए अंदर कब पहुंच गये पता ही नहीं चला। जब हम दाखिले के अंतिम फाटक पर पहुंचे तो हाथ हिलाती मंदाकिनी दीदी हमें दिख गयीं। मन बेजार सा हो उठा। पंडित पद्मपति शर्मा जी की भेजी तस्वीर और उनके माता कामाख्या के दर्शन करने की इच्छा का पूरा वाकया जैसे सामने आ गया। तभी जैसे वो अचानक से फिर आ खडा हो गया। वही सुनहरे लम्बे बाल वाला शख्स। कंधे पर काला रफ्फल और बैग टंगा हुआ था। झुका हुआ कंधा, जैसे हर लमहा वो किसी की अदब में झुका रहता हो। पान से रसदार हो गये लाल होंठ। जुल्फों को बार बार पीछे फेंकता दांया हाथ। और वही कातिल मुस्कान। उसने जैसे किसी को हमारे सामने धकेल दिया। हम अचानक से उस माला बेच रहे शख्स से गुजारिश करने लगे, भैया वो हमारी बुजुर्ग बहन को जरा अंदर कतार में लगवा दो। हम चैनलगेट के अंदर थे और हमारे पीछे थे कम से कम पचास या साठ लोग। लम्बी कतार को देख पहले तो उसने इनकार में सिर हिलाया फिर हमने अचानक देखा कि वो इकरार में हामी भर रहा है। हम चिल्ला पडे। हमने दीदी को उसके साथ पीछे से आने के लिए इशारा किया और वो हमारे साथ लाइन में लग चुकी थीं। अब हम मां के गर्भगृह में प्रविष्ट हो चुके थे। यह अलौकिक कृपा देख अब तक एक कैफियत तारी हो चुकी थी हम पर। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बस लग रहा था जैसे हमारा पुनर्जन्म हो रहा हो।
रक्तवर्णी जवाकुसुम और अढहुल से ढंकी मां की प्रतिमा आज स्पष्ट दर्शन दे रही थी। उसके नीचे की पिण्डुकी भी जैसे कह रही थी कि देखो मैं ही हूं यहां की मुख्य विग्रह। लाइन में लगते समय पत्नी की खरीदी हुई माला से हमने कुछ फूल आपस में बांट लिये थे। वो सब आज सीधे विग्रह पर समर्पित हो रहे थे। इसके पहले गर्भगृह में अंदर हमने एक कोना थाम कर देर तक मां से अपने मन की वो सब बातें कह डाली थी जिसे हम उन्हें या उस काली कमली वाले को कभी सुनाना चाहते थे। मन एकदम खाली हो गया था। अब हम अंधेरी गुफा में सीढियां उतर रहे थे। मां के शेष अवशेष पर गिरा पडा हमारा सिर एक बार फिर माफीनामे के लिए अरदास कर रहा था। दुनिया जहान के लिए रहम और करम की भीख मांग रहा था। मैं हैरान था कि उस वक्त कोई बहुत ज्यादा लोग अंदर थे ही नहीं पर जैसे कोई कोलाहल था वहां।
मंदिर में न रोशनी न कोई घंटा न घडियाल। पर उस लमहा वहां जल रहे दीये की टिमटिमाहट में इतनी रोशनी हो गयी थी जैसे खुद भगवान सूर्य वहां हाजिरी लगाने आ धमके हों। ओम का गूंजता स्वर जैसे नाद ब्रह्म की उपासना कर रहा हो। जैसे सिद्ध फकीरों कोे सुनायी देने वाला ब्रह्म मुहूर्त का अनहद नाद गुंजित हो उठा हो। मां के योनी कुंड के पवित्र जल का प्रक्षालन हमें जगा गया था। उस लमहा बेशक हम उल्टे पैर वापस चल रहे थे पर हमें हमारी राह एकदम सीधी दिखायी दे रही थी। बाहर निकलने के बाद हम बगुलामुखी के दरवाजे दस्तक देने के लिए सीढी उतर रहे थे। वहां एकदम निपट सन्नाटा तारी था। घने जंगल के बीच दो चार ही लोग थे जो तंत्र की आराध्य के दर्शन की पिपासा लिये हमारी तरह बढे चले जा रहे थे। हम जब वहां पहुंचे तो एक हवन कुंड में अग्नि की ज्वाला धधक रही थीे। तंत्र साधना में लीन कोई साधक आंखे बंद किये हाथ जोडे बैठा था। पुरोहित यमजमान से आदेश के अंदाज में कह रहा था, आज मांग ले मां से। वो पूरी तरह से मुखातिब है। जा, आज तेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दी उन्होंने। कहीं दूर से आती हक हक की आवाज हमें बता रही थी कि किसी की कोई साधना आज वाकई पूरी हो गयी थी।
हम माता बगुलामुखी के चरणों में झुके हुए थे। उनसे आफत बलाओं से बचाने की विनम्र प्रार्थना करते हुए हमारी आंखों के कोर अनायास ही गीले हो रहे थे। ये माता का प्रबल प्रताप था कि हम एक सौ चवालिस सीढियों पर कब उतरे और कब चढ गये पता ही नहीं चला। वापसी में हम एक बार फिर उस चौखट पर सलामी दे रहे थे जिसने हमें अपनी कृपा का पात्र बनाया। दुबारा दर्शन देकर उस अनुग्रह से नवाजा जिसका मिलना विरल होता है। दहलीज पर सजदे में गिरा हम सबका सिर मां कामरूप कामाख्या के अलावा उस अवलम्ब का शुक्रगुजार था जिसने हमें ये अलौकिक जियारत अता फरमायी। तभी हिना की खुशबू गमकाता वो शख्स हमारे कान में फुसफुसा रहा था। सुनो, मां ने तुम्हारी पुकार सुनी है। वो तुम सबका भला करेगी। इस कायनात के हर शख्स का कल्याण करेगी। क्योंकि वो मां हैं। वो हम सबकी पैदाइश का सबब है। बेशक पुत्र कुपुत्र हो सकता है लेकिन यकीन मानो की माता कभी कुमाता नहीं होती… माता कभी कुमाता नहीं होती… माता कभी कुमाता नहीं होती…
शेष अशेष।