फिर तेरी कहानी याद आयी… दो साल पहले माता कामरूप कामाख्या के दर्शन के लिए की गई गुवाहाटी की वो तिलस्मी यात्रा और वो अबूझ अनुभव…
विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार…..
वो इतवार की रात थी। रात साढे दस बजे के आसपास हमने मुगलसराय के लिए ओला टैक्सी बुक किया और अपने माल असबाब के साथ हम चार अदद निकल पडे थे काशी से कामरूप माता कामख्या की जियारत के लिए। बडी दीदी आदरणीय मंदाकिनी गोकर्ण, तारा गोकर्ण, पत्नी सरिता गोकर्ण और एक अदद नाशुक्रा नाकिस मैं। नाशुक्रा मतलब तो आप समझते ही हैं लेकिन नाकिस माने वो जो किसी काम के लायक होता ही नहीं। जिंदगी भर अखबार की नौकरी के अलावा कुछ किया ही नहीं तो बाकी दुनिया के लायक बचा ही नहीं। सो हम तो निकल पडे थे। रात में डेढ बजे की डिब्रूगढ राजधानी पकडनी थी। सारनाथ में जब हम अपने घर से निकले तो हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। वैसे भी सारनाथ बाकी शहर के मुकाबले जल्दी सो जाता है। तो उस दिन भी काॅलोनी के लोग अपने घरो की बत्तियां बुझा चुके थे। सडक पर आवारा कुत्तों और बिल्लियों का राज कायम हो चुका था। कई कुत्ते बडी दर्दनाक सुर में रो रहे थे। पता नहीं उन्हें बिल्लियों से दुश्मनी निकाल न पाने का गम था या वो तथागत काल की किसी रूह को देख कर गमजदा थे। पर उनका रूदन बहुत मार्मिक था।
आमतौर पर लोग इन सबको अपशगुन मानते हैं लेकिन लम्बे बाल वाले उस शख्स ने अपनी दुआओं से हमें इतना नवाज दिया है कि ये सब हम पर असर करती ही नहीं। वो मालिक है हमारा। मिसरे में कहूं तो जानो तन में बसता है आदमी ही लगता है, है तो आदमी लेकिन आदमी निराला है। तो दिमाग में बहुत कुछ घूम रहा था। डेढ बजे रात तक क्या करेंगे ? सेवेंटी प्लस की दीदी को स्टेशन पर कहां बैठाएंगे ? चारो बर्थ मिडिल और अपर हैं, कैसे एडजस्ट करेंगे ? तब तक हम राजघाट पुल के पास पहुंच गये थे। चंदन शहीद बाबा और आदिकेशव के अदब में झुके हमारे सिर जब उठे तो ऐसे लगा जैसे एक बडा सैलाब सडक पर उमड आया है। केसरिया कपडे पहनेे लोगों के इस झुंड को देख हम हैरान थे। अगले दिन सावन के पहले सोमवार को काशी विश्वनाथ में हाजिरी लगाने के लिए बोल बम चिल्लाते हुए जा रहे लोगों की ये भीड बेशक इंसानों की थीे पर यकीन मानिये इनकी हरकतें जानवरों को भी शर्मसार कर रही थीं। उफ, कितना लम्बा सिलसिला था वो। मुगलसराय तक कभी वो टूटा ही नहीं।
बहरहाल हम अब मुगलसराय में थे। मैंने अपने एक नौजवान साथी ललित पांडेय को काॅल किया। अपनी समस्या बतायी कि कुछ घंटे के लिए रिटायरिंग रूम का इंतजाम करवा दें तो बेहतर होगा। ललित ने कहा हो जाएगा सर। चंद लमहों के भीतर मैं खुद को जीआरपी के थानेदार के कमरे के बाहर पा रहा था। कोई सिपाही मुझसे पूछ रहा था, हां कहिए। मैंने ललित का नाम बताया। अंदर आ जाइए कहने के साथ वहां बैठे कई लोग अचानक कमरे से गायब हो गये। हम हैरान थे। सब कुछ अजीब सा घटित होता नजर आ रहा था। अगले तीन घंटे तक जैसे वहां मरघट सा सियापा छाया हुआ था। थे तो सब वहीं बाहर लेकिन सबके सब चुप। एकदम खामोश। गाडी के आने की सूचना पर हम प्लेटफाॅर्म पर थे। बोगी पर सवार होने के बाद हमने टीटीई को बताया कि दीदी की उम्र ऐसी नहीं है कि वो बीच या ऊपर के बर्थ पर चढ सकें। नीचे की एक बर्थ खाली तो थी लेकिन उसका पैसेंजर दानापुर में आने वाला था। उसने हमारी बातें सुनीं और मुस्करा पडा। हमारी शक्लें देख वो एक बार फिर मुस्कराया और उसने सिर्फ इतना ही कहा, जाओ इंतजाम हो जाएगा। हम मूरख अज्ञानी कुछ समझ नहीं सके। दरअसल वो टीटीई नहीं कोई और बोल रहा था कि जाओ इंतजाम हो जाएगा। बेशक वो आवाज टीटीई की थी पर बोल तो खुद माता कामाख्या रही थीं। भोर में चार बजे के आसपास दानापुर में वो पैसेंजर आया जरूर और उसने बेसुध सोती दीदी को जगाया भी पर उनके सिर्फ इतना कहने के साथ ही वो अपर बर्थ पर अपना बेड रोल बिछाता दिखा कि बेटा तुम ऊपर वाली बर्थ पर सो जाओ। ये मालिक का इंतजाम था।
सुबह हम पहले बिहार फिर झारखंड और फिर बंगाल होते हुए शाम तक असम की दहलीज पर जा पहुंचे थे। रास्ते में बारिश और उसमें भींगे खेतों का हसीन नजारा पूरे सफर को जन्नती बना गया था। मीलों दूर तक दिखते धान के खेत और
चाय के बागान इस जन्नत के जमानतदार थे। रात के करीब आठ बजने को थे और हम गुवाहाटी स्टेशन के बाहर ओला कैब का इंतजार कर रहे थे। थोडी ही देर में हम हारमनी हाउस में थे। मेन रोड से करीब पचास मीटर अंदर गली में। यहां
बिल्डंग में घुसने के पहले स्लेटी रंग की एक तगडी सी बिल्ली रास्ता काट गयी। यहां हम थोडा सा झिझके थे। इसकी पुख्ता वजह भी थी I हम उस इलाके में थे जिसे तंत्र मंत्र का गढ माना जाता है। उस बिल्ली का आकार प्रकार भी कुछ डरावना सा था। बहरहाल, हारमनी हाउस में दाखिल होने के साथ कुछ अजीब सा महसूस होने लगा। पीले रंग के जलते बल्ब, थोडी देर पहले डाली गयी लोभान की खुशबू और वहां पसरा निपट सन्नाटा। मैं कुछ सोचूं उसके पहले दीदी अपने
भतीजे को फोन लगा चुकी थीं। छूटते ही उनका सवाल था ये होटल ही है ना ?
ऐसा लग रहा है जैसे किसी तांत्रिक का डेरा हो। उधर से चिन्मय बोल रहा था, अरे नहीं अक्का बुआ, ये होटल नहीं होम स्टे है। ये ऐसे ही होते हैं। इसमें आपका एक पूरा फ्लैट बुक है। टू बीएचके का। अपना बनाओ खाओ और ऐश करो। देश विदेश घूमते रहने वाली इस जवान जमात की बात हमारे पल्ले पडी नहीं। रिसेप्शन पर मिले दोनो शख्स भी रहस्यमय लग रहे थे। उन्हें हमारी हिन्दी समझ में नहीं आ रही थी और हम उनकी असमी बूझ नहीं पा रहे थे। पहले इशारों में फिर पत्नी का फेंका गया बांग्ला और फिर अंत में हाथ जोड कर राष्ट्रभाषा में किया गया संवाद काम आ गया। अब वो हमें और हम उन्हें समझने लगे थे। अब हमें होम स्टे के मायने भी समझ में आने लगा था। हारमनी हाउस की हर चीज देख हम हैरत में थे। क्या कोई थोडा सा किराया देकर ठहरने वाले मेहमानों के लिए अपना घर इतना सजा कर रखता है ? ड्राइंग रूम के कीमतीसोफे, एक कोने में सजा डाइनिंग टेबल, तमाम खूबसूरत शो पीसेस, सजावट के लिए सीलिंग से टंगी और आलमारी में रखी नाना प्रकार की चाय की केटली और मछली। सब कुछ अद्भुत और रहस्यमय। बेहतरीन बेडरूम और किचन। हम बेहद थके थे लेकिन कायनात के सर्वोच्च शक्ति पीठ माता कामरूप कामाख्या के दर्शन की जिज्ञासा, पिपासा और आसक्त अभिलाषा ने हमारी नींद उडा दी थी।
चिन्मय ने बताया था कि उसका कोई दोस्त रौनक भारद्वाज गुवाहाटी का ही रहने वाला है। उसने जगद्जननी के दर्शन का कुछ इंतजाम कर रखा है। इन सबके बीच रात के दस बज रहे थे। एक अननोन नम्बर से आने वाले फोन पर दूसरी तरफ से आ रही आवाज किसी महिला की थी। नमस्ते, मैं रौनक की मम्मी बबिता बोल रही हूं। शुद्ध हिन्दी में बोल रही थीं वो। मेरा मौसेरा भाई मां कामख्या का प्रीस्ट है। वो आपको दर्शन कराएगा। आपको सुबह सात बजे तक वहां पहुंच जाना है। कल श्रावण का पहला मंगलवार है। बहुत भीड होगी। मैं सिक्स फिफ्टीन को आउंगी आप लोगों को लेने। आप लोग रेडी रहिएगा। रौनक की मम्मी मिसेज बबिता भारद्वाज किसी अनुभवी एअर होस्टेस की तरह एनाउंसमेंट कर रही थीं और हम जडवत होकर उन्हें सुन रहे थे। हां जी, हां जी के बाद फोन कट चुका था। हम सबका निढाल हो चुका जिस्म अपने बिस्तरों पर ढेर हो चुका था पर जेहन में चल रहा ‘तमाम कुछ’ उनींदी आंखों में बाइस्कोप चला रहा था। अरे, ये सब अचानक
से सजीव दिख रहा है मुझे। नागपंचमी पर मोहल्ले में आने वाले मदारियों की एक बडी जमात है। महूवर में दांव मार रहे तांत्रिकों का तिलस्मी खेल है। हर दांव के साथ वो कामाख्या वाली माता कामरूप को आवाज दे रहे हैं। एक दूसरे पर मंत्र मार रहे हैं। अरे, वो सब लुंज पुंज होकर गिर पड रहे हैं। मणिकर्णिका के महाश्मशान और बनारस के दूसरे घाटों पर मानव खोपडियों को मसनद की तरह दबाये बैठे खप्परों में मदिरा पान करते तथाकथित तांत्रिक भी दिख रहे हैं। रात न जाने वो कौन सी घडी थी, मुझे लगा जैसे कोई मेरे सिरहाने आ कर खडा हो गया है। मुझे उसकी आवाज स्पष्ट सुनायी दे रही थी।
मैंने सुना वो कुछ कह रहा था। सुनो, पराशक्ति के नाम पर तुमने अब तक जो कुछ भी देखा वो सब एक फरेब था। लेकिन चंद घटों बाद जो कुछ तुम देखोगे वो परब्रह्म का परम सत्य है।
ये वही नूर है जिससे निर्देश पाने के लिए हजरत मूसा तूर की पहाडी पर जाया करते थे ये आवाज नहीं एक सम्मोहन था। उस शख्स के लम्बे सुनहरे बालों से उठ रही हिना की गमक मुझे आसमानी नशे में चूर किये दे रही थी। वो लगातार बोल रहा था, सुनो, कल पूरे वक्त बाअदब रहना। वो इस खूबसूरत कायनात की जननी है। बेशक वो हम सबकी मां है पर उसके साथ बेअदबी आसमान को गवारा नहीं है। हर लमहा सिर्फ उसके ही जिक्र और फिक्र में रहना। वहां दिखने वाली हर सूरत को उसकी हकीकत मत समझना। वो सब गैब के कारिंदे हैं। सबके सब अपनी ड्यूटी पर होंगे। वहां के चरिंद हों या परिंद सबके जिम्मे अलग अलग काम हैं। वो सब आसमान के कारकून हैं। हो सकता है तुम्हे कोई मज्जूब दिख जाएं। उनसे भी दोआ सलाम के बाद ज्यादा गुफ्तगु न करना। क्या पता वो किस हाल में हों ? जलाल में या जमाल में ? दश महाविद्याओं की आराध्य माता कामाख्या के अलावा जेहन में कुछ मत लाना। सब्र और शुक्र के अलावा कुछ मत सोचना। उठो, जाओ, जा कर सजदे में गिर जाओ।
मां से जाने अनजाने में हुए गुनाहों के लिए माफी मांगो। इस कायनात के समस्त जीवों के लिए रहम और करम मांगो। इस शक्तिपात से अचानक मेरी तन्द्रा टूटी और मैं हडबडा कर पहले तो उठ कर बैठ गया और फिर सजदे में गिर पडा।
पसीने से पूरा बदन तर बतर था। हलक बुरी तरह से सूख गया था। मेरे नथुने लम्बे सुनहरे बालों में लगी हिना की खुशबू से मुअत्तर थे। लगातार नमक उलीच रही आंखें मां के दर्शन के लिए दुआगो थीं।
(अगले अंक में – नील घाटी का तिलिस्म और मां कामाख्या का अलौकिक दर्शन …)