डॉ. ध्रुव कुमार त्रिपाठी, एशोसिएट प्रोफेसर

पारिश्रमिक

पारिश्रमिक कोई पारितोषण नही है। यह तो व्यक्ति द्वारा सम्पादित श्रम का वास्तविक मुल्य हैं। लेकिन यहां हम आप को याद दिलाना चाहेगें। कालमार्क्स ने यह कहा था कि पूंजीपति ये चाहता हैं कि श्रमिको को उतना ही दिया जाना चाहिये जितने में उसके एक वक्त केभोजन की पूर्ति हो सके। दोनो वक्त के भोजन के बाद जो धन बचेगा उसके संचय से वह पूंजीपति के मुकाबले में खड़ा होने का प्रयास करेगा। जरा सोच कर देखिये कितना घृणित कुतसित मानसिकता का पूंजीवादी का समाज होता है। भारत में महिला श्रमिक को पुरुषों से कम वेतन दिए जाने की विचारधारा के मूल में कार्य क्षमता कम आंकना हैं। हम मान चुके हैं कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम कार्य करती है। ठीक बात है लेकिन सिर्फ कार्य क्षमता एवं लिंग पारिश्रमिक का आधार नहीं होना चाहिए। आज भी चोरी छुपे असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के से कम वेतन दिया जाता है या उन्हें पारिश्रमिक कम दिया जाता है और सरकार से बचने के लिए ज्यादा पारिश्रमिक पर हस्ताक्षर करवा कर खानापूर्ति की जाती है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस जीवात्मा में विभेद का हम मानव जातियों को कोई अधिकार नहीं है महिलाएं पुरुषों से ज्यादा संघर्षशील ऊर्जावान उद्यमी और त्यागी होती हैं। सती होने तक की शक्ति महिलाओं में एक उदाहरण है। यह अलग बात है की सती प्रथा कुप्रथा थी। इसलिए समान कार्य का समान पारिश्रमिक दिया जाना जरूरी है एवं न्याय व विधि सम्मत है।

भारत में पारिश्रमिक देने की जो संरचना बनाई गई हैं वह चितां जनक हैं। हम शिक्षा जगत को एक उदाहरण के रूप में यदि ले तो पूरे भारत में प्राईवेट संस्थाओं में कार्य करने वाले या शिक्षा देने वाले शिक्षको को सबसे कम वेतन प्राप्त होता हैं। ऐसा इस लिये मैं कह रहा हूं कि शौक्षणिक संस्थाओं में प्रबंधकीय व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा देने वाले शिक्षक को दो हजार से पांच हजार प्रति माह वास्तविक वेतन दिया जाता है। जबकि 20 हजार रूपये पर हस्ताक्षर कराये जाते हैं। सरकार के सख्ती के बाद फीस के कुल आया का 75% शिक्षको के वेतन पर एवं 25% विद्यालयके प्रबन्धन पर खर्च करने का शासनादेश हैं। अब प्रबन्धको ने शिक्षकों से अग्रिम बीअरर चेक हस्ताक्षर करवा कर पहले ही अपने पास रख लेते हैँ। वेतन खाते में जाने के बाद प्रबन्धक के लोग चेक द्वारा पैसा प्रप्त कर लेते हैं। इस प्रकार आप देख रहे होगें कि कागज में किसी भी प्रकार का शोषण नही हुआ। जबकि ये शिक्षक बधुआ मजदूर से भी निम्नतर स्थिती में काम करने के लिये मजबूर है। इसी प्रकार असंगठीत क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिक पत्रकार व्यवसायिक प्रतिस्थानों पर कार्य करने वाले श्रमिक की ललाट पर शोषण की लकीर खीच दी गई हैं। जिसे मिटा पाना अब उनके बस में नही हैं। दुकानदार जिनता पगार देगा उतने में ही उनकों अपना जीवन यापन करना है। तेज आवाज में बोलने पर पेट की आवाज बन्द हो सकती हैं। इस लिय़े चुप हो कर शोषित होते रहते हैं।  

जल्दी आपके सामने होगा “श्रमिक एंव कामगार विमर्श पार्ट-5”

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