डॉ दिलीप अग्निहोत्री
भारत के सभी क्षेत्रीय दल वन मैन आर्मी की तरह होते है। इसके सुप्रीमों को अपनी लोकप्रियता के आधार पर सत्ता मिलती है। जब नेतृत्व कमजोर पड़ता है,तब पराजय का सामना करना पड़ता है। इस आधार पर क्षत्रपों से कोई सहानुभूति नहीं हो सकती। क्षेत्रीय दलों की यही प्रकृति होती है। राष्ट्रीय स्तर पर कॉंग्रेस की भी यही दशा है। पहले सोनिया गांधी पार्टी की पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष थी। स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने पद छोड़ा,तब उनके पुत्र राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए,राहुल ने पद छोड़ा। एक बार फिर सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बन गई। ये बात अलग है कि राहुल गांधी ही अपने बयानों के माध्यम से पार्टी की दिशा तय करते है। ऐसे में इन सभी पार्टियों के नेतृत्व को अकेला मानना ठीक नहीं होगा। इन सभी को यही स्थिति सुविधाजनक लगती है। ममता बनर्जी इस बार भी पश्चिम बंगाल में अकेली सबसे मजबूत थी। इसका उन्हें लाभ मिला। उनके अकेले का चुनाव प्रचार महत्वपूर्ण रहा। व्यक्ति आधारित पार्टियों में यही होता है। भाजपा कार्यकर्ता आधारित पार्टी है। इसमें प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री भी कार्यकर्ता होते है। चुनाव प्रचार में इनकी संख्या अधिक दिखाई देती है। यह कैडर आधारित पार्टी की विशेषता है। सफलता या असफलता अलग विषय है। ममता बनर्जी ने अकेले ही जाति मजहब का मुद्दा उठाया। अपने को बंगाली ब्राह्मण बताया। मुसलमानों से एक जुट होकर तृणमूल को वोट देने का आह्वान किया। इस समीकरण का उनको लाभ मिला। पांच राज्यों में कॉंग्रेस को परम्परागत रूप से उम्मीदें थी। केरल में तो इस बार सरकार बनाने की उसकी दावेदारी थी। वहां एक बार लेफ्ट गठबंधन व दूसरी बात कांग्रेस के गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर मिलता रहा है। इस हिसाब से कांग्रेस का नम्बर था। उसके शीर्ष नेता राहुल गांधी यहां से लोक सभा सदस्य भी है।
यह माना जा रहा था कि इसका भी पार्टी को लाभ मिलेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पांडुचेरी व असम में कांग्रेस को सत्ता मिलने का मंसूबा बना रही थी। यहां भी वह मायूस रह गई। पश्चिम बंगाल में तो उसका सफाया हो गया। तमिलनाडु में भी उसका प्रदर्शन दयनीय रहा। इन चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में हुए चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर पार्टी में एक बार फिर असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे है। इस बार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संजय निरुपम सबसे पहले नेतृत्व पर हमला बोला है। इसके पहले भी गुलाम नवी आजाद कपिल सिब्बल जैसे अनेक दिग्गज हाईकमान पर सवाल उठाते रहे है। पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद संजय निरुपम ने फिर वही मुद्दे उठाए है। उन्होंने कहा कि विगत दो वर्षों से पार्टी में पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं है। पांच राज्यों के चुनाव के चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए अत्यंत निराशाजनक है। इन चुनाव परिणामों के बाद पार्टी को कमजोरियों पर विचार विमर्श करना चाहिए। प बंगाल में टीएमसी, असम में भाजपा, केरल में एलडीएफ को सरकार विरोधी लहर का सामना नहीं करना पड़ा। यहां की सत्तारूढ़ पार्टियों ने पुनः विजय प्राप्त की है। बंगाल और केरल में तुष्टिकरण व क्षेत्रवाद का खूब असर दिखाई दिया। ममता बनर्जी तो इस मामले में बहुत आगे निकल गईं। उन्होंने राष्ट्रीय पार्टी के सभी नेताओं को बाहरी करार दिया। क्षेत्रवाद को मुख्य मुद्दा बना दिया। इसमें वोटबैंक की राजनीति को शामिल कर दिया। इसका उन्हें खूब लाभ मिला। इन सभी प्रदेशों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ गया। पुडुचेरी में बचाव की उम्मीद थी,वह भी हाँथ से निकल गया। पिछली बार बंगाल में कांग्रेस ने चवालीस सीटें जीती थीं। इस बार कम्युनिस्ट पार्टियों से तालमेल किया। फिर भी अस्तित्व बचाने में नाकाम रही। असम में कांग्रेस के साथ लेफ्ट पार्टियां,बीपीएफ, एआईयूडीएफ भी थी। लेकिन सब मिल कर भाजपा को सत्ता से हटाने में नाकाम रही।
पुडुचेरी में पिछली बार कांग्रेस की सरकार बनी थी। कुछ समय पहले बागी विधायकों के इस्तीफे के बाद नारायणसामी सरकार संकट में आ गई थी। इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया था। कांग्रेस ने पुनः यहां सत्ता हासिल करने का प्रयास किया। लेकिन सफलता नहीं मिली।तमिलनाडु में कांग्रेस को कुछ सीटें नसीब हुई। लेकिन इसे भी डीएमके गठबंधन का परिणाम माना जा रहा है। जाहिर है कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से सर्वाधिक निराशा कांग्रेस को हुई है। उसका दायरा सिमट रहा है। इसी के साथ पार्टी के असंतुष्टों के मुखर होने की भी संभावना है।