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प्रोफेसर सतीश राय.
बड़े लोगों के मतभेद नहीं, उनके बीच के सामन्जस्य एवं समन्वय के तादात्म्य भाव विरासत होते हैं। मतभेद तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और महामना मालवीय जी महाराज के बीच भी थे, लेकिन उनके बीच की आत्मीयता के आगे वे बौने हो जाते थे। महामना ने बीएचयू के स्थापना के तीन दिन चले समारोह में गांधी को भी बुलाया था। गांधी तीसरे दिन यानी 5 मार्च, 1916 के दिन हाजिर हुये थे। अफ्रीका से भारत लौटने के बाद साल भर से हिन्दुस्तान घूम रहे गांधी का वह भारत में पहला राजनीतिक भाषण था और उस क्रांतिकारी भाषण ने जमी जमाई समारोह सभा में रंग में भंग का काम कर दिया। महामना के मेहमानों में से एनी बेसेंट, गांधी के भाषण के बीच ही बिफर पड़ी थीं। दरअसल उद्घाटन समारोह के लिये आये गवर्नर की सुरक्षा में जिस तरह कैदखाने में शहर को तब्दील हुये गांधी ने देखा, उसकी वहां पहुंचे गांधी ने मजम्मत करते हुये यहां तक कह डाला कि एक आदमी की सुरक्षा के लिये पूरे शहर को कैदखाना बनाना पड़े तो, तो उससे तो यही अच्छा है कि वो मर जाय। ऐसा जबर्दस्त सुरक्षा बन्दोबस्त भी शायद प्रशासन ने इसीलिये किया रहा होगा, कि बनारस वही शहर था जिसमें, चार साल पूर्व 1912 में दिल्ली में लार्ड हार्डिंग्स के काफिले पर बम फेंकने वाले रास बिहारी बोस ने, 1915 में बनारस एवं लाहौर षड्यंत्र केस में वांछित होने के बाद जापान पलायित होने के पूर्व का भूमिगत प्रवास काटा था और बनारस में सबसे बड़ा चेला शचीन्द्र सान्याल पैदा किया था, जिनको आने वाले समय में भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन का पितामह कहा जा सकता है। “मि.गांधी, यू स्टाप इट” चिल्ला कर खड़ी हुई एनी बेसेन्ट की टोका-टोकी पर तो गांधी ने यह कहकर भाषण रोकने से मना किया कि आप नहीं, अध्यक्ष (महाराज दरभंगा) कहें तो रुकूंगा। आगे तो गांधी यहां तक भी बोल गये, कि ये सामने बैठे राजा महाराजाओं ने जो हीरे जवाहरात पहन रखे हैं, उसमें देश के गरीबों का खून झलक रहा है। फिर क्या था, सारे राजे रजवाड़ों, गवर्नर, एनी बेसेंट आदि ने समारोह से बहिर्गमन कर दिया। फिर भी सभा जमी रही, तालियों की गड़गड़ाहट का लगातार सिलसिला जारी रहा। दूसरे दिन मालवीय जी महाराज को अपने मेहमानों के मान में सफाई जरूर जारी करनी पड़ी, पर उस वक्त तो बिना दखल जमे ही रहे और गांधी गर्जना जारी रही।
सन् 1920 की 30 मई, बनारस के हिन्दू स्कूल में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की युगान्तकारी ऐतिहासिक बैठक में भी गांधी और मालवीय दोनों ही तो मौजूद थे। मोतीलाल नेहरू द्वारा जलियांवाला बाग कांड की जांच रपट पर चर्चा के बाद, पहले से तय गांधी के असहयोग प्रस्ताव विचार हो रहा था। उसके कार्यक्रम में बायकाट भी शामिल था। लाजिमी था कि छात्रों के बायकाट की चपेट में सरकारी अनुदान के कारण बीएचयू भी आता। मालवीय जी प्रस्ताव के मुखालिफ थे। कभी देश में सबसे पहले बायकाट का अलख जगाने वाले और उस वक्त बेसेंट के होम रूल मूवमेंट से जुड़ चुके लोकमान्य तिलक जी और लाला जी तक मुखालिफ थे। बड़े दिग्गजों के उस मतभेद के बीच गांधी का असहयोग प्रस्ताव बहुमत से ही पारित हुआ और सितम्बर में उसके अनुमोदन के लिये कलकत्ता में विशेष कांग्रेस महाधिवेशन आहूत करने का फैसला। कलकत्ता में भी बहुमत से ही असहयोग प्रस्ताव का अनुमोदन हुआ।
कलकत्ता से लौटते गांधी बनारस भी आये। वह उनकी तीसरी बनारस यात्रा थी। आये थे काशी को असहयोग की रीति नीति समझाने और उसके लिये उसे जगाने। वही काशी, जिसमें किशोरवय चन्द्रशेखर आजाद ने असहयोगी संस्कृत छात्र समिति के बैनर तले परीक्षा बायकाट आन्दोलन से असहयोग का पहला बिगुल बजाया और उसके लिये 12 बेंत की सजा के बाद उनकी धारा क्रांति की ओर बह पड़ी थी। असहयोग के लोकजागरण के निमित्त आये गांधी काशी में आखिर टिके कहां थे ? असहयोग से असहमत महामना मालवीय के निवास मालवीय भवन में ही तो। पं.कमलापति त्रिपाठी जी बताते थे कि विद्यार्थियों संग वे लोग गांधी से मिलने गये, तो उनके कक्ष से पहले के कक्ष में महामना मालवीय बैठे होते। स्वाभाविक था कि उनका पांव छूकर ही विद्यार्थी आगे जाता और लौटते वक्त भी उनके चरण छूकर आशीर्वाद मांगता। गांधी बायकाट के युग धर्म के लिये उन्हें समझाकर उनका आह्वान असहयोग में शामिल होने के लिये करते थे। मालवीय जी महाराज समझाते थे कि गांधी के चक्कर में मत पड़ो। पहले पढ़ाई पूरी करो, फिर देश का काम करो। वैचारिक मतभेद एवं मतभेदजन्य द्वन्द का वह सह-जीवन, उसके ऊपर चढ़ी परस्पर समादरभाव की आत्मीयता का वह रस, अनुमान लगाइये कितना मधुर रहा होगा। गांधी उन्हें बड़ा भाई कहते थे और मालवीय जी के हृदय में अनुज सदृश्य गांधी के प्रति अनुराग का सागर था। गांधी काशी विद्यापीठ बनने तक आगे भी आते, तो मालवीय जी के ही मेहमान होते। बीएचयू के रजत जयन्ती सहित वहां कई समागमों को गांधी जी ने सम्बोधित भी किया। मालवीय जी की सदारत में कांग्रेस में गांधी काम भी करते थे और द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में तो मालवीय जी गंगाजल लेकर गांधी के साथ विलायत भी गये।
यहां उल्लेखनीय है कि पृथक निर्वाचन के सिद्धांत पर मतभेद के चलते गांधी जब यरवदा जेल में अनिश्चित कालीन उपवास सत्याग्रह पर थे, तो गांधी और डा.अम्बेडकर के मध्य वर्तमान आरक्षण सिद्धान्त का द्वार खोलने वाला ऐतिहासिक “पूना-पैक्ट” भी तो मालवीय जी महाराज ने ही कराया था। बड़े लोगों के मतभेद स्वाभाविक हुआ करते हैं, पर राष्ट्रनिर्माण के इतिहास में वे मतभेद नहीं, मतभेदों के बीच उनके मध्य की सिन्थेसिस ही सच्ची विरासत होती है। वह महज गांधी और मालवीय में ही नहीं, पूना पैक्ट से भारतीय संविधान संरचना तक के इतिहास में गांधी और अम्बेडकर के बीच भी दिखती है और अन्य बड़े रहनुमाओं के मध्य भी नजर आती है।