डॉ अमरेश त्रिपाठी, एशोसिएट प्रोफेसर.

नियमों का प्रयोग प्राकृतिक विज्ञान से शुरु होकर सामाजिक विज्ञान तक आया। नियमों की श्रेष्ठता और अनिवार्यता से कोई इन्कार ही नहीं कर सकता। क्योंकि ये अस्तित्व को निर्धारित करता है। अर्थात जो नियमों के अधीन रहा वो बचेगा नहीं तो समाप्त होगा । मानव स्वभावतः नियमविरुद्ध ही होता है। मनुष्य के अलावा जितने भी जीव हैं वो सदैव नियमों के अनुसार ही जीवन संचालित करते हैं। लेकिन मानव हमेशा विकल्पों की तलाश करता है और यहीं से शुरू होती है उसके संघर्ष, उन्नति, विकास और विनाश की पटकथा। पूरे मानव सभ्यता का यदि ऐतिहासिक अवलोकन करें तो संघर्षों की अन्तहीन कहानी ही दृश्यमान है। इसी कड़ी मे एक ऐसी महामारी ने अपना वैश्विक रूप धारण किया है जिसने पूरी मानवता के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। इस महामारी ने समाज की आत्मा को ही चुनौती दे दिया है। जिसे हम सामुदायिक सम्बंध के रुप मे विकसित किये है।

अबतक इस महामारी से बचने का एक ही तरीका कारगर है “सामाजिक दूरी”। सामाजिक दूरी ने सबसे अधिक समस्या कामगारों के लिये पैदा किया है । समाजशास्त्री संदर्भ में सामाजिक दूरी के स्थान पर शारीरिक दूरी की संकल्पना ज्यादा उपयुक्त हैं। सामाजिक दूरी मजदूरों श्रमिकों को जो भयावह स्थिति से रूबरू कराया है। उसकी कल्पना तो इस जन्म में नहीं किये होंगे । लेकिन इस विषम परिस्थिति में मजदूरों ने जो दुःसाहस ,दृढ़ता और समर्पण दिखाया है। वो भी कल्पना से परे और इतिहास में दर्ज हो गया। पूरा हिन्दुस्तान को पैदल ही नाप दिये। बहुत जगहों पर तो ये सरकारी सुविधा को न लेकर अपने आत्मनिर्भरता को दर्शाया है। इस महामारी ने सामाजिक सम्बन्धों के साथ आर्थिक सम्बंधों को भी प्रभावित किया है। शहरों ने मजदूरों को जो घाव दिया है वो इसे इस जन्म में तो शायद नहीं भूलेंगे। श्रमिकों के पलायन में जिस तरह मानवता तार तार हुयी है वो यह तो सोचने पर विवश करता है कि हम कितने सीमित होते जा रहें हैं।

श्रमिकों का पलायन शायद सदी के सबसे भयावह घटना के रुप मे दर्ज होगा। इन विषम परिस्थितियों में जो साहस ईमानदारी, धैर्य और देशभक्ति का परिचय इन कामगारों ने दिया है वो पढ़े लिखे लोंगो के लिये एक सबक है। अब आगामी अर्थव्यवस्था का प्रारूप कैसा होगा ये तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन जीवन मूल्य तो बदल ही जायेंगे। इस महामारी नें सामाजिक तानाबाना को ही संकट में डाल दिया है,क्योंकि समाजिकता मानवीय स्वभाव है। जिससे वह उसके बिना जीने की कल्पना तक नहीं कर सकता। ऐसे में अपना अस्तित्व बचाये रखना कितना दुरूह है ये हमारी सोच से परे है।इस महामारी ने अधिकांश सामाजिक अवधारणाओं के मूल्यों को बदल दिया है। मानवीय संवेदना, तार्किकता वैज्ञानिक अनुसंधान, शक्ति -संतुलन बेमानी हो गये हैं। पूरा सामाजिक जीवन अपना अस्तित्व बचाने में लगा है। वर्तमान की अधिकांश सामाजिक अवधारणाएं ध्वस्त होने के कगार पर हैं। पूरा वैश्विक परिदृश्य ही बदल गया है जिसमे मानवीय संवेदना, तार्किकता, वैज्ञानिक अनुसंधान, वैभव,रहन- सहन,सभी कुंद हो गये हैं।

चिकित्सा शास्त्र भी किंकर्तव्यविमूढ़ है। विश्व के सारे शक्तिशाली देश अमेरिका, चीन,ब्रिटेन, फ्रांस, इटली तुर्की, इरान असहाय हो गये हैं। ऐसे में पूरा वैश्विक समाज सनातनी मूल्यों की ओर आकर्षित हुआ है। भारतीय संस्कृति की समृद्धशाली परम्पराओं को अपननाने की होड़ लगी है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें भी इसकी वकालत कर रही हैं हमारी दिनचर्या से लेकर गूढ़ लोकाचार प्रासंगिक होने लगे हैं। हमारी सहज प्रवृत्तियां भी वैज्ञानिक आस्था का प्रतीक बन गयी हैं जिसमें संयुक्त परिवार, और सामूहिकता अन्तिम विकल्प के रूप में अपनाये जाने लगे हैं। बदली हुयी जीवन शैली के साथ सामनंजस्य बनाने में हमारी संस्कारगत विशेषता सार्थक हो रही है। अब भी हमारे पास समय है कि अपनी सांस्कृतिक मूल्यों को राजनीति से अलग करके जीवन को समृद्धशाली बनाये और सुखमय जीवन जीने की आदत डालें।

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