संजीव रत्न मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार, वाराणसी.
#मेरेमनकीअपनीबात_2………….
कहां गये काशी की प्राचीन विरासत को बचाने का ढिंढोरा पिटने वाले ? कहॉं गयी चेतना ? कहॉं गयी वेदना ? कहा गये काशी के विद्वान और उनका संघटन? कहूं तो बुरा लेगेगा लेकिन सब के सब तथाकथित हैं।
काशी जिसका अस्तित्व देश के इतिहासकार रोम से भी पहले का बताते हैं, जिसे जिंदा शहर कहा जाता है, उस शहर में स्थापित पुरास्थलों को जो यहां के निवासियों के हृदय में बसते हैं मगर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि अब उनकी यादें ही शेष रह जायेंगी। उनके अवशेष के दर्शन करना भी अगली पीढ़ियों को नसीब नहीं होगा। जिन देवालयों को जर्जर बताते हुए आनन-फानन में ज़मींदोज़ कर दिया गया है उन देवालयों से काशी विश्वनाथ मंदिर के नेमी श्रद्धालुओं की विशेष स्मृतियां जुड़ी हुई थी। ज्ञानवापी का व्यास भवन, माता गौरा का मायका (महंत-आवास) कुछ ऐसे विलक्ष्ण स्मृति स्थल थे जो हर काशीवासी के लिए किसी देवालय से कम नहीं थे। किंतु अब इन स्थलों के दर्शन बचे खुचे छायाचित्रों में ही होंगे। मुझे तो भय है कि हो न हो विकास के नाम पर विनाश लीला रचने वाले तथाकथित अंधभक्त खोज खोज कर उन छायाचित्रों की भी होलिका न जला दें…।
आखिर विकास के नाम पर विनाश का खेल क्यों खेला जा रहा है? आखिर किसकी तुष्टि करने के लिए परम संतुष्टिदायक धार्मिक स्थलों और पुरावशेषों को तहस-नहस किया जा रहा है। कितने बेशर्म हो गए हैं वे लोग जो इस विनाश लीला को विकास लीला की संज्ञा दे रहे हैं। कहां है आज वे लोग जो विकास दिखवे की समितियों का लॉलीपॉप दिखाकर शहर के हर तपके के गणमान्य लोगों की टीम लेकर रोज भाड़ गीत गाया करते थे। ऐसे अनुजावरियों, मातृमेहियों, स्वपातजों का सम्मान पान-पनही यात्रा निकाल कर करने का मन कर रहा है। इच्छा तो यह भी हो रही है कि इन सब के अंतराशय में डमरूवादन कर दूं लेकिन यह कार्य मैंने अपने परम आराध्य देवाधिदेव महादेव पर छोड़ दिया है। कभी न कभी तो उनकी तीसरी नेत्र खुलेगी ही। जिस दिन उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया उसी दिन इन सहोदराभोगियों को स्वशिश्नि बन जाना पड़ेगा।
बाहर से आने वाले लोग यहां आकर काशी कि प्राचीनता से साक्षात्कार करते थे, ऐतिहासिक भवनों को इतनी बेदर्दी से जमींदोज करना कहां का विकास है। आज सीविल इंजीनियिरिंग इतनी उन्न्त हो चुकी है कि इससे भवन को संरक्षित कर भी विकास किया जा सकता था लेकिन ऐसा करते तो रोकड़ों के खेल में रुकावट आ जाती। क्या सनातन धर्म को मानने व जानने वालों के लिए ये भवन कोई मायने नहीं रखते हैं? क्या सनातन धर्म को मानने वाली युवा पीढ़ियों को अपनी संस्कृति व सभ्यता को जानने-देखने और उसके वैभव को महसूस करके गौरवान्वित होने का अधिकार नहीं है? क्या काशी का विकास उसकी सभ्यता व संस्कृति को मिटा कर क्योटो बनाने के बाद ही होगा? धरोहरें जमींदोज हो गयीं लेकिन विद्धानों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों की नगरी कही जानी वाली काशी से एक आवाज नहीं उठी, क्या यही है जिंदा शहर की पहचान, जहां उसकी विरासत को खत्म कर दिया गया।
#हरहरमहादेव