डॉ दिलीप अग्निहोत्री
विश्व के अनेक देशों के लिए प्रकृति व पर्यावरण संरक्षण आधुनिक विचार है। यह चेतना भी उन्हें प्रकृति के कुपित होने के बाद प्राप्त हुई। क्योकि उनके उपभोगवाद में इसका विचार शामिल ही नहीं था। संकट बढा तब पर्यावरण संरक्षण पर विचार हेतु अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होने लगे। किन्तु इस विषय से उनका कोई भावनात्मक लगाव ही नहीं था,इसे भी तकनीकी विषय माना गया,उसी के अनुरुप विचार का क्रम चलता रहा। इसलिए समाधान नहीं निकल सका। भारत में आदिकाल से प्रकृति के प्रति दैवीय सम्मान रहा है। हमारे ऋषि युगद्रष्टा थे। इसलिए उन्होंने प्रकृति शांति का मंत्र दिया था। यजुर्वेद का मंत्र है
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: ।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि ॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने प्राचीन भारतीय विचारों के अनुरूप प्रकृति वंदन कार्यक्रम का आयोजन किया। यह मात्र एक कार्यक्रम ही नहीं था,बल्कि यह शाश्वत विचार की प्रतिष्ठा के रूप में था, यह ऐसा अभियान है,जिसे जीवन शैली में सम्मिलित करने की आवश्यकता है। इसमें समाज के सभी लोगों के लिए सन्देश था। इसलिए जिनके निकट वृक्ष है,उन्होंने उसकी पूजा की,अन्य लोगों ने घर में स्थापित तुलसी जी का पूजन किया। वैसे व्यक्तिगत रूप से यह प्रकृति वंदन चलता ही रहता है,इसी को सामाजिक चेतना के रूप में आयोजित किया गया। सरसंघचालक मोहन भागवत ने हिंदू स्पिरिचुअल सर्विस फाउंडेशन की ओर से आयोजित प्रकृति वंदन कार्यक्रम को संबोधित किया। प्रकृति के शोषण को अनुचित व अहितकर बताया। व्यक्ति प्रकृति का ही एक अंग है। आधुनिक जीवन शैली प्रकृति के अनुकूल नहीं है। अभी तक दुनिया में जो जीने का तरीका है,वह पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। इसमें प्रकृति को जीतने का असंभव व अहंकारी विचार है।
मनुष्य के अधिकार की बात तो हुई,लेकिन दायित्व को भुला दिया गया। उसके दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं। भयावहता अब दिख रही है। हमारे यहां कहा जाता है कि शाम को पेड़ों पर मत चढ़ो,क्योंकि पेड़ सो जाते हैं,हमारे यहां रोज चीटियों को दाना डाला जाता है, कुत्ते,पक्षियों को आहार दिया जाता था,हमारे यहां वृक्षों, नदियों,पर्वतों की पूजा होती है,गाय और सांप की भी पूजा होती है। इस प्रकार का अपना जीवन था। लेकिन भटके हुए तरीके के प्रभाव में आकर हम भूल गए। आज हमको भी पर्यावरण दिन के रूप में मनाकर स्मरण करना पड़ रहा है। मोहन भागवत ने प्रकृति संरक्षण से जुड़े नागपंचमी,गोवर्धन पूजा, तुलसी विवाह जैसे त्यौहारों से नई पीढ़ी को जोड़ने पर जोर दिया। हमें प्रकृति से पोषण पाना है,प्रकृति को जीतना नहीं है।