डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
वैसे तो पृथ्वी के ऊपर पाए जाने वाले संग जीव जंतुओं में सिर्फ संस्कृति बना लेने के कारण आदमी ने यह वह घोषणा कर दी कि वह पृथ्वी का सर्वोत्तम प्राणी है और उसके आगे प्रकृति भी नगण्य है लेकिन जिस तरह से वर्तमान में पूरे विश्व के मानव के सामने विषम परिस्थितियां हैं और मुख्य रूप से एशिया में कोरोना का संक्रमण तो है ही साथ में ब्लैक फंगस का संक्रमण भी बढ़ रहा है एक तरफ ताऊ दे तूफान ने कहर मचाया हुआ है तो दूसरी तरफ पूर्वी तट पर या तूफान ने कहर मचाया हुआ है तो दूसरी तरफ पूर्वी तट पर यासू नाम के तूफान के आने का संकेत दिया जा रहा है सुनाम के तूफान के आने का संकेत दिया जा रहा है और इन सबके बीच संघर्ष करते हुए मानव को यह सिद्ध करना है कि उसने जो उद्घोषणा सर्वोत्तम होने की की थी वह सत्य थी वैसे तो प्राकृतिक चयन के नियम के अनुसार प्रकृति ने स्वयं या निर्धारित करना शुरू कर दिया है कि मानव उसका एक अंश है और वह या निर्धारित करेगी कि मानव को कितना और किस अंश तक पृथ्वी पर अपने अनुसार विस्तार करने का अवसर देना है जिस तरह से मानव के शरीर के अंदर को रोना ने अपने विस्तार को करके मच्छर से भी ज्यादा दयनीय अवस्था में मानव को पहुंचा दिया उसने इस बात का संकेत अवश्य दिया है कि अन्य जीव-जंतुओं की तरह ही मानव को प्रकृति के साथ ही रहना चाहिए या अभी एक अजीब सा संयोग है कि जहां पर पृथ्वी पर संघार करके असंग जीव जंतुओं को समाप्त कर देने वाले मानव ने आपने को स्वयंभू होने का वरदान दे दिया।
वहीं पर प्रकृति ने वर्तमान परिस्थितियों में किसी भी जीव जंतुओं को कोई हानि नहीं पहुंचाई यदि नुकसान हो रहा है तो सिर्फ मनुष्य का जो एक अप्रत्यक्ष संकेत है की प्रकृति से ऊपर कोई भी नहीं है और यदि समय रहते प्राकृतिक के वर्चस्व को मनुष्य ने नहीं समझा और प्रकृति के उस स्वरूप और मूल तत्व को बनाएं नहीं रखा जो प्रकृति ने अपने लिए निर्धारित कर रखा है तो समय-समय पर प्रकृति इस तरह के विनाशकारी स्थितियों से मानव को उसके भी कीड़े मकोड़े होने का एहसास कराती रहेगी वैसे तो मानव ने प्रकृति की इस चुनौती को स्वीकार किया है और वह अपने चिकित्सा विज्ञान पर भरोसा करते हुए प्रकृति के इस तांडव को रोकने का लगातार प्रयास कर रहा है लेकिन जिस तरह से प्रकृति का दावानल मानव को निकल रहा है उसको तो कभी भी वापस नहीं लाया जा सकता जिस तरह से नदियों के किनारे शवों की एक लंबी चादर बिछाई जा रही है जिसमें धर्म संस्कृति सहित उनको वाहन न्यूनतम परंपरागत विधि से अंतिम संस्कार का अवसर भी नहीं प्राप्त हुआ जिसको मानव ने अपनी उन्नति के ताने-बाने में बुना था ऐसी स्थिति में आने वाले समय में शायद ही उन लोगों की खुदाई से प्राप्त शवों को कोई देखकर यह जान पाएगा कि यह शो मानव की बेबसी केशव हैं मानव की दयनीय अवस्था केशव हैं जब मानव स्वयं अपने को बचा नहीं पा रहा था अपने लोगों का अंतिम संस्कार नहीं कर पा रहा था यही कारण है एक तरफ जहां लोग इस बात को नकारात्मक ले रहे हैं कि मीडिया पर मौत की खबर ज्यादा चलाई जा रही है लोगों में मनोवैज्ञानिक डर पैदा किया जा रहा है लोग डर गए हैं और वह निराशा में चले गए हैं वह अवसाद में डूब गए हैं उस स्थिति में सकारात्मक पक्ष यह भी है कि मीडिया द्वारा दिखाए जाने वाले इन तमाम नंगे सच को देखकर मानव शायद यह समझ सके कि वह पर्यावरण वातावरण को किस तरह से प्रभावित करके प्रकृत के साथ खेल खेल रहा है
यह एक अजीब सी ही बात है कि एक तरफ नारी सुरक्षा की बातें करके नारी के सम्मान और गरिमा के लिए पूरे विश्व में तरह-तरह के कानून और आंदोलन बन रहे हैं लेकिन मिट्टी को भी नारी तत्व के रूप में जानने के बाद भी उस मिट्टी के अस्तित्व अस्मिता उस प्रकृत की अस्मिता गरिमा को भंग करने के समय में मानव एक क्षण भी या नहीं सोच रहा है कि यदि प्रकृति की इच्छा नहीं है तो मानो को एक सीमा से ज्यादा इस तरह का विस्तार नहीं करना चाहिए जिससे विवश होकर प्रकृति ही काली स्वरूप में संघार पर उतर आए चारों तरफ वह रक्तबीज की तरह पैदा होने वाले मानव की लाश का वह जाल बिछा दें जिसमें मानव को यह एहसास तो हो जाए कि वह भस्मासुर बन गया है लेकिन इतना अवसर भी प्राप्त ना हो कि वह मानव सभ्यता की कहानी को दुबारा से प्रकृति के अंतर्गत रहते हुए आरंभ कर सकें और इसीलिए प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के इस स्वरूप को रोकने का कार्य किया जाना चाहिए वैसे तो जिस तरह से मनुष्य डरा हुआ है अपने जीवन को बचाने के लिए घरों में बिल के अंदर रहने वाले चूहों की तरह डर डर कर चौकन्ना होकर निकल रहा है बैठ रहा है उससे यह तो स्पष्ट हो चुका है कि मानव अपने औकात को पहचान चुका है लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि वाले सिद्धांत पर चलने वाला मानव या सब कुछ सामान्य होने के बाद प्रकृति के साथ होने वाली छेड़छाड़ को बंद करेगा वह स्वयं को सिर्फ प्रकृति का एक अंश मानकर प्रकृति को सर्वोच्च समझ कर अपने को उसके अंतर्गत रहने वाला सिर्फ एक प्राणी समझ पाएगा यदि ऐसा नहीं हुआ तोहर शताब्दी की तरह आने वाली अनेकों शताब्दियों तक प्रकृति इसी तरह के संक्रमण और विषयों का जाल फैलाकर सर्वनाश का खेल खेलती रहेगी और मनुष्य सिर्फ विज्ञान चिकित्सा में नए-नए खोज के द्वारा असफल प्रयास करता हुआ दिखाई देगा कि वह ही सर्वोच्च है लेकिन उन सबके बीच में लाखों-करोड़ों लोग जो काल का शिकार हो जाएंगे उनको मानव होने का क्या परिणाम प्राप्त हुआ इस पर विचार करने की आवश्यकता है इसीलिए प्रकृति और मानव के बीच चलने वाले इस संघर्ष में मानव को अपने अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए प्रकृति किए जाने वाले खिलवाड़ को रोकना चाहिए प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखना चाहिए ताकि मानव शरीर समय-समय पर तरह-तरह के विषाणु का घर ना बन पाए और प्रकृति के अन्य प्राणियों की तरह ही मानव भी प्रकृति के स्नेह को प्राप्त करता हुआ इस तरह से लाखों की संख्या में ना मरे और उसका अस्तित्व बचा रहे लेकिन इसके लिए मानव को उस प्रकृति पूजा की ओर लौटना होगा जिसके आगे अपने आरंभिक काल से मानव सिर झुकाता रहा है प्राकृतिक अवयवों के आगे वह अपने को छोटा मानता रहा है और ऐसा समझकर ही वह प्रकृति की गोद में खेल सकता है विज्ञान का आनंद ले सकता है अविष्कार को अपना संधान बना सकता है लेकिन इसके लिए उसे प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की जगह पर प्रकृति के अंतर्गत रहने वाला एक प्राणी बनने का प्रयास करना होगा