डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

यह एक सामान्य सा तथ्य सभी को मालूम है और सभी इस पर मनन भी करते हैं कि मानव ने अपने उत्पत्ति के बाद जिस तरह के संघर्ष को प्रकृति के साथ देखा उसी का परिणाम संस्कृति है लेकिन इस संघर्ष से ऊबे हुए मानव ने जब संस्कृति का निर्माण किया तो इस बात का विशेष ध्यान रखा की संस्कृति के दायरे में व्यवहार के दृष्टिकोण से हर तथ्य में संघर्ष की शून्यता हो न्यूनता हो और मनोविज्ञान के आधार पर उसने इस बात की एक प्रक्रिया अपने जीवन में उतार ली कि हर कार्य में अच्छा सोचना है अच्छा करना है अपने लिए अच्छा सोचना है। जिसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति धीरे धीरे धीरे धीरे संस्कृति के साथ रहता हुआ सुरक्षा संरक्षा की दृष्टि से तो मजबूत होता गया लेकिन वहां मनोवैज्ञानिक स्तर पर सुख की संस्कृति का इतना आदि हो गया कि उस सुख के आधार पर ही मानव जीवन अपने जीवन में हर तथ्य का आकलन करने लगा जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वाभाविक से कष्ट को भी मानव अपने जीवन में दुख समझने लगा और वह दुख के कारण अपने जीवन में उन सभी तथ्यों को दुखिया व्यर्थ समझने लगा जिसके आधार पर वह मानव जीवन में आज भी सुरक्षा संरक्षा को लेकर जी रहा है इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि मानव को कभी दुख की संस्कृति के बारे में नहीं बताया गया और ना ही मानव को यह कभी समझाया गया कि यदि खाना खाना जीवन है तो खाना ना मिलना भी जीवन है।

यदि स्वस्थ शरीर जीवन हैं। तो अस्वस्थ शरीर भी जीवन है। यही कारण है कि व्यक्ति का जीवन एकांगा होता चला गया वह अपने जीवन के हर पड़ाव पर दुख का सामना होने पर असहाय महसूस करने लगा और यही कारण है कि जब भी किसी के जीवन में कोई भी समस्या आती है आर्थिक विपन्नता आती है और यदि वह उसके बाद भी हंसता है जीवित रहता है सामान्य जीवन जीता है तो लोगों के लिए यह आश्चर्य का विषय होता है क्योंकि दुख की संस्कृति को न बढ़ाए जाने के कारण लोग यह समझ ही नहीं पाते हैं कि बिना पैसे की भी कोई जिंदा रह सकता है भूखा रहकर भी कोई जिंदा रह सकता है चोट लगने पर भी कोई जिंदा रह सकता है अभावों में रहकर भी कोई खुश रह सकता है और इसका कारण यही है कि किसी भी व्यक्ति को सामान्य स्थिति में दुख की संस्कृति को ना बताया जाता है ना पढ़ाया जाता है यदि दुख की संस्कृति को भी जीवन में सुख की संस्कृति के साथ-साथ समानांतर में पढ़ाया जाए बताया जाए सिखाया जाए और मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति दुख की संस्कृति को भी समान भाव से अपने जीवन में उतार ले तो बहुत सी ऐसी स्थितियां उसके जीवन में है जिसके आने पर वह दुख के बजाय उसे सामान्य स्थिति में जीवन का ही एक हिस्सा मानते हुए आराम से जी सकता है और ऐसा होने पर मानवाधिकार का अनियंत्रित विस्तार भी रुक सकता है क्योंकि व्यक्ति अब दुख की संस्कृति से परिचित है इसीलिए कहा भी गया है कि संतोषम परम सुखम यही नहीं यह भी कहा गया है।

जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान लेकिन इस कथन को कभी भी जीवन में उतारने की प्रेरणा नहीं दी गई ना ही व्यक्तिगत सोच पर कभी व्यक्ति ने इस तथ्य को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया जिसके कारण दुख आने पर व्यक्ति व्यथित हो जाता है उदास हो जाता है निराश हो जाता है और उसे लगता है कि उसके जीवन में वह स्थितियां नहीं है जो दूसरों के हैं और यही वह मूल कारण है जहां पर मानवाधिकार हनन की एक खुली व्याख्या की जाने लगती है जबकि वह मानवाधिकार हनन से ज्यादा व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक स्तर पर दुख की संस्कृति के ना होने और उसके साथ सामंजस्य होने की स्थिति का परिणाम है यही कारण है कि दुख की संस्कृति और मानवाधिकार को अलग-अलग समझने की आवश्यकता है ताकि लोग हर तथ्य को सिर्फ मानवाधिकार और उसके हनन से जोड़ कर ना देखें बल्कि वास्तविक अर्थ में शरीर को जिंदा रखने के लिए आवश्यक तत्व को ही मानवाधिकार के दायरे में रखे जिसके आधार पर मानव जीवन सुनिश्चित हो सकता है और इसीलिए आज दुख की संस्कृति के विमर्श की सबसे ज्यादा आवश्यकता है जो मानवाधिकार के विश्लेषण से ही संभव है

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