डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

देश में संविधान सर्वोच्च है और उसके इतर कुछ भी नहीं सोचा जा सकता है पर आज भी इसी संविधान का अनुच्छेद ४४ जो कॉमन सिविल कोड की वकालत करता है , पूरी तरह से मृत प्राय पड़ा है . ऐसा मन जा सकता है कि संविधान के प्रस्तावना में धर्म निरपेक्षता की बात का सहारा लेकर इस देश का हर धर्म अपने पर्सनल लॉ की बात करता है और उसमे किसी भी प्रकार के बदलाव का विरोध करता रहा है और हम सब भी हिन्दू धर्म से इतर सिर्फ इस देश में एक ही धर्म को लेकर ही हमेशा से विवाद रहा है और उसी को अनुच्छेद ४४ में लाने की मानो साडी कवायद चलती रहती है पर इस देश में रहने वाले पारसी भी अप्संख्यक है और उनका भी अपना पर्सनल लॉ है जिसपर नज़र डालना जरुरी है . पारसी इस देश में मुख्यतः मुंबई में निवास करते है और किसी से भी सम्बन्ध न करने के कारण इनकी जनसँख्या लगातार घटती रही है वर्तमान में इनकी संख्या सिर्फ देश ६१ हज़ार के आस पास है . वर्ष १८३७ से पहले तक इनके ऊपर इंग्लिश कॉमन लॉ लागू था एक तरह जहा देश की जनसँख्या २१ प्रतिशत की रफ़्तार से प्रति दशक बढ़ रही है वही पारसी की जनसँख्या १२ प्रतिशत प्रति दशक घट रही है पहली बार पारसी लोगो के विवध और विवाह विच्छेद के लिए वर्ष १८६५ में पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट बना इस एक्ट में पुर्ष मानिसकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जहा एक महिला को एक से ज्यादा पुरुष के साथ यौन सम्बन्ध रखने को अविधिक माना गया वही पारसी पुरुष के विवाह होने के बाद वो वेश्या गमन कर सकता था और बड़ी ही चालाकी से पारसी पुरुष को इस विधि में पर अविधिक या अपराध नहीं माना गया और ये सन वर्ष १९३६ तक चलता रहा जब पहली बार पारसी विवाह एवं विच्छेद अधिनियम १९३६ को कानून दर्जा प्रदान किया गया उससे पहले तक एक विवाहित महिला छह कर भी अपने पति के विरुद्ध व्यभिचार का वाद नहीं ला पाती थी क्योकि वेश्या गमन पर पारसी पुरुष को छूट मिली हुई थी जो एक पारसी महिला के लिए मानसिक उत्पीडन से कभी भी कम नहीं था और पारसी पुरुष के स्वच्छंदता और पारसी महिला के दोयम दर्जे को दर्शाता था .

एक पारसी पुरुष यदि गैर पारसी महिला से शादी कर ले तो पैदा होने वाले बच्चे पारसी ही कहलाते है पर यदि पारसी महिला किसी गैर पारसी पुरुष से शादी कर ले तो पैदा होने वाले बच्चे पारसी नहीं कहला सकते . आर डी टाटा ने जब एक फेंच लड़की से शादी की और नोवजोत क्रिया के द्वारा पारसी बनाने की रस्म पूरी की वैसे तो उस समय भी काफी वरोध हुआ था पर आज काफी कुछ बदल चुका है . सबसे अजीब बात ये रही है कि पारसी विवाह एवं विच्छेद अधिनियम १९३६ जब प्रभावी हुआ तो भी पुरुष को बचने का पूरा ध्यान रखा गया इस अधिनियम में कोई भी विवाहित पारसी महिला के लिए ये व्यवस्था की गयी कि यही कोई पारसी पुरुष अपनी विवाहित महिला को गंभीर रूप से शारीरिक चोट पहुचाता है तो वो डिवोर्स ले सकती है पर इस अधिनियम में गंभीर चोट को परिभाषित किया गया है अगर विवाहित पारसी महिला के शरीर की हड्डी और दांत उसके पति के द्वारा तोड़ दिया जाता है तो उसको गंभीर शारीरिक क्षति में नहीं लिया जाता है ऐसा करने को सिर्फ एक साधारण अपराध माना जाता है और इस आधार पर पारसी महिला को तलाक नहीं मिल सकता है यहाँ तक कि ऐसी कोई भी शारीरिक चोट जिससे पारसी महिला को २० दिन तक शरीर में दर्द रहता है और वो सामान्य कार्य नहीं कर सकती है उस समय और आधार पर भी वो पारसी महिला तलाक नहीं पा सकती है और न ही ये आधार सही माना जायेगा जिसके आधार पर वो तलाक पा सके . इस अधिनियम के प्रकाश में ये स्पष्ट है कि हर धर्म में महिला की स्थिति कमोवेश एक जैसी ही है और पारसी को सबसे प्रगतिशील अल्पसंख्यक समूह है इस भारत का और उस समूह में महिला का ये हाल है क्या ऐसे समूह के लिए कॉमन सिविल कोड की आवश्यकता नहीं क्या हम सबको पारसी महिला के शोषण के लिए आवाज़ नहीं उठानी चाहिए क्या उनके तलाक के नियम अविधिक और पारसी महिला की गुलामी और दोयम दर्जे को नहीं व्यक्ति करते है और ऐसे ही न जाने कितने धार्मिक समूह है भारत में जिसमे महिला की स्थिति सही नहीं है ऐसे में कॉमन सिविल कोड को किसी एक धर्म की महिला तक समेत देना उचित नहीं है आप में से कितने लोगो को पारसी महिला के जीवन का ये सच पता था ………सोचिये सोचिये डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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