डॉ दिलीप अग्निहोत्री

भारत की मूल प्रवृत्ति शांति व सौहार्द की रही है। यहां के ऋषियों ने वसुधा को कुटुम्ब मानने का संदेश दिया, सभी के सुख कल्याण की कामना की। अयोध्या में राम मंदिर विध्वंस ने उसी समय भारतीय जनमानस को आहत किया था। तभी से यहां मंदिर निर्माण के प्रयत्न चलते रहे है। इसके लिए हिंसक टकराव तभी मंदिर विरोधी तत्वों ने उकसाने का कार्य किया। लेकिन अब ऐसे प्रसंगों से आगे बढ़ने का समय है। यह अच्छा है कि इस प्रकरण का अंतिम समाधान शांति व सौहार्द के साथ हुआ। मंदिर निर्माण के समर्थकों का पिछला कार्यकम भी शांतिपूर्ण था। राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण विश्व हिंदू परिषद का भी मुद्दा रहा है। करीब दो वर्ष पहले अयोध्या में धर्मसभा का आयोजन भी उसी ने किया था। यह कोई जनसभा नहीं थी। दोनों शब्दों के अंतर को समझना चाहिए। धर्म सभा की विशिष्ट मर्यादा होती है। उसमें निर्णय होते है, उन्हें सत्ता तक पहुचाया जाता है।

हिन्दू धर्म से संबंधित धर्मसभा न तो हिंसक होती है, न इसमें किसी के प्रति नफरत होती है, बल्कि इसमें अपनी आस्था के विषय अवश्य शामिल होते हैं। धर्मसभा के माध्यम से लोगों ने राम मंदिर के प्रति अपनी आस्था प्रकट की थी। कानून हाथ में नहीं लिया गया था। संविधान के दायरे में रहकर समाधान की मांग की गई। धर्मसभा में यह कहा गया था कि इस पूरी जमीन का बंटवारा न हो, यहां केवल मंदिर बने। यदि ऐसा होता है तो भावी पीढ़ी के लिए यही उचित होगा। एक समाधान करना और दूसरे विवाद की स्थिति बना देने में कोई समझदारी नहीं है। जमीन बंटवारे का कोई भी फार्मूला विवाद को सदैव कायम रखने वाला ही होगा। राम मंदिर पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा था। तब धर्म सभा के मंच से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ  के अखिल भारतीय सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल ने कहा कि धर्मसभा के निर्णय को संघ स्वीकार करेगा।


जिस प्रकार धर्मसभा ने अपनी मर्यादा का पालन किया, वैसे ही किसी सरकार की संवैधानिक मर्यादा होती है। उसे संविधान की सीमा के साथ साथ उससे संबंधित समस्याओं और प्रक्रिया का भी ध्यान रखना होता है। समाज में फिर टकराव न हो, इस बात का भी ध्यान रखना है। अंततः यह अभिलाषा पूर्ण हुई। शांति व सौहार्द के साथ श्रीराम लला विराजमान मंदिर का निर्माण होगा। नकारात्मक टिप्पणी करने वाले स्वयं को निंदा व उपहास का पात्र बना रहे है।

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