डॉ राकेश कुमार मिश्रा, अर्थशास्त्री
दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को डेढ़ माह से अधिक का समय हो गया है। किसान संगठनों का विरोध सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि सुधार बिलों से है जिन्हें वे काले कानून कहकर वापसी की मांग पर अडिग हैं तथा भारत सरकार द्वारा बिल वापसी तक आन्दोलन एवं धरना प्रदर्शन पर रहने की चुनौती दे रहे हैं। सरकार की पहल पर नौ वार्ताओं के दौर कृषक संगठनों के साथ हो चुके हैं परन्तु कोई सार्थक नतीजा नहीं निकल सका। इसका प्रमुख कारण कृषक संगठनों का यह अतिवादी रवैया है कि उन्हें तीनों कानूनों की वापसी से कम कुछ मंजूर नहीं है। सरकार ने उनकी दो मांगे मानने पर सहमति भी दे दी जिसमें एक है पुराली जलाने पर दण्डात्मक कार्यवाही पर रोक और दूसरी बिजली संशोधन विधेयक पर रोक। इन माँगों का कृषि कानूनों से कोई मतलब नहीं है। किसान संगठनों को सरकार ने कानूनों के सभी अनुच्छेदों पर क्रमशः चर्चा एवं तर्कसंगत संशोधनों का प्रस्ताव लिखकर भी भेजा परंतु किसान संगठनों ने हठधर्मिता दिखाते हुए इसे खारिज कर दिया एवं तीनों कानूनों की वापसी पर अडिग हैं। इन कानूनों का विरोध इस दुष्प्रचार के साथ प्रारम्भ हुआ कि सरकार मण्डियों एवं एम एस पी को खत्म करना चाहती है और अडानी, अम्बानी जैसे निजी क्षेत्र के लोगों के हाथ कृषि क्षेत्र को भी सौंपकर किसानों को बर्बाद करना चाहती है।
देश में किसानों की संख्या १५ करोड़ से अधिक है जिसमें ८६% से अधिक लघु एवं सीमान्त कृषकों की संख्या है। इन किसानों के पास न तो पर्याप्त भूमि है और न ही निवेश के लिए संसाधन। सरकार निजी निवेश को बढ़ावा देकर ऐसे किसानों की माली हालत सुधारने के लिए कानून लायी जिनका कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों ने समय समय पर समर्थन किया एवं अपने चुनावी घोषणा पत्र में सत्ता में आने पर लागू करने का वादा किया। हकीकत में कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष इस बात से आश्वस्त था कि २०१९ के चुनाव में वे विपक्षी दलों के गठजोड़ से मोदी को पुनः सत्ता में आने से रोक लेंगे परंतु ऐसा न हो सका। अब जब मोदी सरकार ने इन बहुप्रतीक्षित सुधारों को लागू किया तो मोदी की लोकप्रियता के भय से यह दल अपने वादे एवं संकल्प से पलटकर कृषि कानूनों को निजी उद्योगपतियों के हित में बताने का झूठा प्रलाप कर किसानों को गुमराह करने में लग गए। वामपंथी दलों एवं काँग्रेस ने पंजाब हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान संगठनों को इसका नेतृत्व देकर यह मुहिम चलाई एवं दुष्प्रचार कर सरकार को किसान विरोधी साबित करने की रणनीति बनाई।
काँग्रेस एवं वामपंथियों की मंशा है कि मोदी सरकार को किसान विरोधी साबित किया जाय एवं कानून वापसी जैसी माँग पर डटे रहकर सरकार को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाय। यह सभी नेता जानते हैं कि कानूनों पर तार्किक बहस में वे सफल नहीं हो सकते क्योंकि ये बहु प्रतीक्षित कृषि सुधार किसानों की माली हालत सुधारने के लिए अपरिहार्य है एवं इसी कारण देश के अधिकांश किसानों एवं कृषि विशेषज्ञों ने इन कृषि कानूनों का स्वागत किया है। सोचने की बात है कि देश में उदारीकरण एवं निजीकरण की शुरुआत १९९१ में हुई जिसका पूरा श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव एवं डा मनमोहन सिंह को जाता है जो कांग्रेस से सम्बद्ध एवं वामपंथियों द्वारा समर्थित थे। देश की विकास दर बढ़ाने एवं विकास को नई दिशा देने में इन आर्थिक सुधारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई परन्तु अफसोस की बात है कि कृषि क्षेत्र को इन सुधारों से आज तक वंचित रखा गया। क्या देश के किसानों को यह अवसर नहीं मिलना चाहिए था कि वे भी परंपरागत परिदृश्य से बाहर निकलकर बाजार से जुड़े एवं बदलते आर्थिक परिदृश्य के साथ चलकर उसका लाभ उठायें। यदि मोदी सरकार किसानों को अधिक आजादी देने एवं उन्हें बदलते परिदृश्य के साथ कदम बढ़ाने के लिए अपेक्षित कृषि सुधारों को लागू करती है तो इसमें सरकार को किसान विरोधी एवं पूँजीपतियों की समर्थक साबित करने का प्रयास दुष्प्रचार एवं सस्ती अंधविरोध की राजनीति नहीं है तो और क्या है? जिस तरह किसान संगठनों के कुछ नेता २०२४ तक भी आन्दोलन करने की बात कह रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि इन नेताओं की रूचि किसानों के हित में नहीं वरन अपनी राजनीति चमकाने एवं सरकार को बदनाम एवं जलील करने की है।
भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है जिसमें निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों को विकास में मिलकर भागीदारी करने की संकल्पना की गई थी और इसमें पूर्व प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू की अहम भूमिका थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोदी सरकार आने के बाद से ही देश में यह झूठा प्रलाप किया जाता रहा है कि यह अडानी, अम्बानी की सरकार है। कृषि कानूनों के विषय में यही दुष्प्रचार कांग्रेस एवं वामपंथियों द्वारा किसानों के बीच फैलाया गया और आज भी जारी है कि मोदी सरकार किसानों की जमीन भी कान्ट्रेक्ट खेती के बहाने कानून बनाकर अपने मित्रों अडानी, अम्बानी जैसे लोगों को सौंपना चाहती है। यह दुष्प्रचार इस हद तक किया गया कि मजबूर होकर अडानी, अम्बानी को सामने आकर बयान देना पड़ा कि वो न तो फसलों की किसानों से सीधी खरीद करते हैं और न ही भविष्य में कान्ट्रेक्ट खेती में आने का कोई इरादा है। अडानी ने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी कंपनी को २००५ में ही एफ सी आई की नीलामी में साइलो बनाने का ठेका ३० वर्षों के लिए मिला था जिनका उपयोग एफ सी आई उपज भंडारण के लिए करता है और उन्हें निश्चित किराया मिलता है। पहला साइलो कांग्रेस शासित राज्य पंजाब में बना और यह कार्य अब भी दूसरी जगहों पर जारी है। अनाज की बरबादी रोकने हेतु निजी क्षेत्र के इस सहयोग से देश एवं किसानों का ही लाभ होगा एवं इसकी शुरूआत भी यूपीए शासनकाल में ही हुई। इस स्थिति में मोदी सरकार को घेरने के लिए इन राजनीतिक दलों द्वारा किया गया दुष्प्रचार तुच्छ राजनीति नहीं तो और क्या कहा जाए।
देश में अडानी, अम्बानी एवं कारपोरेट जगत के लोगों को विपक्ष द्वारा अपनी तुच्छ राजनीति के लिए गाली देना एवं कठघरे में खड़ा करना बहुत ग़लत है। हमें यह याद रखना होगा कि देश के विकास एवं उसे विश्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बनाने में निजी क्षेत्र एवं कारपोरेट की बहुत बड़ी भूमिका रही है। अडानी, अम्बानी ने जो हासिल किया है वह उनकी उद्यमशीलता एवं परिश्रम का फल है और इसके लिए वे मोदी या किसी भी सरकार की अनुकंपा के मोहताज नहीं रहे। एक लम्बे समय से किसानों एवं कृषि संगठनों की यह मांग रही कि उन्हें मण्डियों में आढ़तियों के शोषण से निजात दिलाई जाय और अपनी मर्जी से खुले बाजार में अपनी फसल बेचने की आजादी दी जाए। २००३ में ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने एक माडल ए पी एम सी ऐक्ट राज्य सरकारों को भेजा था जिसके आधार पर लगभग २० राज्य सरकारों ने संशोधन भी किए। मोदी सरकार ने एक कानून लाकर किसानों को एक विकल्प और दिया कि वो अपनी फसल को सरकारी मण्डियों के बाहर भी व्यापारियों को बेच सकते हैं। इससे किसान अपने राज्य या उसकी सीमा के बाहर भी निजी व्यापारियों को ई मार्केट सुविधा का लाभ उठाकर अपनी फसल बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। सरकार एवं मोदी जी ने बार बार कहा कि सरकारी मण्डियों बंद नहीं होगी वरन उनकी स्थिति में सुधार एवं उन्हें अद्यतन करने का काम किया जाएगा। किसानों को स्वतंत्रता होगी कि वो जहाँ अच्छी कीमत मिले वहांँ फसल बेचें। अर्थशास्त्र का एक सामान्य नियम है कि प्रतियोगिता कुशलता को बढ़ावा देती है। सरकार का मानना है कि नई व्यवस्था से किसानों को मण्डियों के एकाधिकार से आजादी मिलेगी एवं प्रतियोगिता बढ़ने से फसल की अच्छी कीमत भी मिल सकेगी। इसके बावजूद राजनीतिक दलों का एवं वामपंथियों का यह दुष्प्रचार जारी है कि सरकार मण्डियों को समाप्त कर किसानों को कारपोरेट के हवाले छोड़ देना चाहती है जो भविष्य में किसानों का भरपूर शोषण करेंगे।
तीसरा कानून आवश्यक वस्तु भंडारण अधिनियम में संशोधन कर अनाज भंडारण की असीमित अनुमति से सम्बन्धित है जिससे साइलो निर्माण से बढ़ी भंडारण क्षमता का भरपूर लाभ उठाकर अनाज निर्यात में वृद्धि लाई जा सके। सरकार एवं विशेषज्ञों का भी मानना है कि बीसवीं सदी के छठे दशक का यह आवश्यक वस्तु कानून आज अप्रासंगिक हो चुका है। आज देश में अनाज की कमी नहीं वरन जरूरत से बहुत अधिक उत्पादन होता है। विपक्ष को शंका है कि इससे काला बाजारी को बढ़ावा मिलेगा एवं निजी क्षेत्र इसकी आड़ में कीमतों को प्रभावित करेंगे तथा जनता को इसका खामियाजा भुगतना होगा। इस शंका से पूर्णतया इनकार नहीं किया जा सकता परंतु अनाज के भरपूर उत्पादन को देखते हुए इतना भी भयभीत होने का कोई कारण नहीं। कीमतें एक सीमा से अधिक बढ़ने पर सरकार स्टाक सीमा घटा भी सकती है। इसके लिए सरकार के साथ बैठकर एक आम सहमति बनाई जा सकती है। इधर कृषि संगठनों द्वारा एम एस पी को कानूनी रुप देने की मांग भी जोर शोर से उठाई जा रही है। ज्ञातव्य हो कि देश में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग १९६५ की अनुशंसा पर एम एस पी घोषित की जाती है जिसे ४० वर्षों से अधिक सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस ने कभी वैधानिक दर्जा नहीं प्रदान किया और आज भी यह एक सलाहकारी संस्था ही है। किसान संगठनों का तर्क है कि एम एस पी का लाभ मात्र छः प्रतिशत किसानों को ही मिलता है। सभी किसानों को इसका लाभ मिलने के लिए इसे निजी क्षेत्र के लिए भी बाध्यकारी बनाया जाए। यह वास्तव में चिन्ता का विषय है कि सभी किसानों को एम एस पी का लाभ नहीं मिलता।
२०१४ तक तो यह लाभ मात्र तीन प्रतिशत किसानों को ही मिलता था। मोदी सरकार ने सरकारी खरीद में महत्वपूर्ण वृद्धि कर इसे छः प्रतिशत तक पहुँचाया। एम एस पी घोषित तो २३ कृषि उत्पादों के लिए की जाती है परंतु हकीकत में खरीद सरकार द्वारा धान, गेहूँ एवं कुछ इने गिने उत्पादों की ही की जाती है जिनका वितरण खाद्य सुरक्षा विधेयक के अन्तर्गत सरकार करती है। यहाँ जानने की बात है कि एम एस पी को कानूनी रूप देने की मांग का उन तीन कृषि कानूनों से कोई मतलब नहीं है जिनकी वापसी की मांग पर किसान आन्दोलन कर रहे हैं। यह भी सरकार को घेरने का एक सुनियोजित षड़यंत्र है। उदारीकरण के इस दौर में जब सरकार लम्बे समय से पेट्रोलियम पदार्थ की खरीद बिक्री को बाजार तंत्र के हवाले छोड़ चुकी है तो वह पुनः सरकारी नियंत्रण के पुराने दौर में नहीं लौटना चाहेगी। निजी क्षेत्र को कानून बनाकर एम एस पी के लिए बाध्य करना इतना आसान नहीं। एक तो सरकार को नियंत्रण के लिए अतिरिक्त कदम उठाने होंगे और इस बात के लिए भी कमर कसनी होगी कि यदि निजी क्षेत्र एम एस पी पर खरीद से पीछे हटता है या खरीद सीमित कर देता है तो सरकार आगे बढ़कर अवशेष उत्पादन खरीदेगी। यदि सरकार संसाधनों की कमी में ऐसा न कर सकी तो यह नीति किसानों के लिए खुद आत्मघाती हो सकती है। यहाँ यह समझने की बात है कि कोई भी सरकार तानाशाही रवैया अपनाकर लम्बे समय तक बाज़ार तंत्र की उपेक्षा आज के उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के दौर में नहीं कर सकती। सरकार को कुछ ऐसा सोचना होगा कि किसानों को भी फसल का संतोषजनक दाम मिल सके और उस पर या अर्थव्यवस्था पर भी अनावश्यक दबाव न पड़े।
किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ जरूर हैं परंतु सरकार की जिम्मेदारी दिहाड़ी मजदूर, असंगठित क्षेत्र एवं सामान्य मध्यम वर्ग के प्रति भी है। जिन कानूनों को काला कानून बताकर इनकी वापसी की मांग की जा रही है, वे किसानों को मात्र एक अतिरिक्त विकल्प उपलब्ध कराते हैं।इन कानूनों के प्रावधान किसानों पर बाध्यकारी नहीं वरन ऐच्छिक हैं। किसान कान्ट्रेक्ट खेती के लिए बाध्य नहीं हैं। इसी तरह वह इस बात के लिए स्वतंत्र हैं कि अपनी फसल सरकारी नियंत्रित मण्डियों में बेचे या निजी व्यापारियों को बेचें। यह भी विचारणीय है कि इन कानूनों का विरोध पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान तक सीमित क्यों है। हकीकत यह है कि सरकारी खरीद एवं एम एस पी का अधिकतम लाभ इन प्रदेशों के किसानों को ही मिलता है।पंजाब में तो मण्डियों के द्वारा ही एफ सी आई के लिए खरीद की जाती है तथा आढतिये जो राजनीतिक तौर पर भी बहुत सशक्त हैं बिना किसी लागत एवं श्रम के करोड़ों रुपये सालाना कमाते हैं। इनको डर है कि यदि किसान सीधे फसल बेचने लगे तो उनकी कमाई एवं रूतबे में कमी आ सकती है। देश के अन्य क्षेत्रों के ९० प्रतिशत किसान पहले से ही एम एस पी से वंचित हैं और बाजार पर निर्भर हैं। अतः वे इन कानूनों से कुछ बदलाव की अपेक्षा लिए आशान्वित हैं।