डॉ, आलोक चांटिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन.

विश्व पर्यावरण दिवस

5 जून 2020 दिन शुक्रवार कोरोना संक्रमण के अघोषित पांचवें चरण में यह एक महत्वपूर्ण दिन इसलिए है क्योंकि आज हम सभी को उस पर्यावरण की प्रतिध्वनि विश्व पर्यावरण दिवस पर सुनाई दे रही है। जिस पर्यावरण के कारण ही इस ब्रह्मांड के अब तक के ज्ञात ग्रह पृथ्वी पर ही जीवन का संचार दिखाई देता है| यह वही पर्यावरण है जिसके कारण कोई भी जीव जंतु और मुख्यतः मनुष्य अंतरिक्ष की तमाम विषाक्त किरणों से ना सिर्फ सुरक्षित रहता है बल्कि पर्यावरण के अंतर्गत वातावरण के भाव को समेटे हुए तमाम उपयोगी तत्वों और जीवन जैसे शब्द को न सिर्फ अर्थ प्रदान करता हैं बल्कि उनमें गति का संचार करके एक अनवरत गति पृथ्वी की तरह ही इस ग्रह पर रहने वाले संपूर्ण लोगों को प्रदान करता है |

पर्यावरण हो वातावरण हो या पारिस्थितिकी हो यह सारे शब्द तभी हमारे बीच स्थापित हुए और एक लोकप्रिय मुहावरे की तरह इनका प्रयोग किया जाने लगा| जब इस पृथ्वी पर प्रकृति के समस्त अवयवों का दोहन अपने जीवन को ज्यादा विस्तार देने, स्थायित्व देने और अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की होड़ में मानव द्वारा कुछ इस तरह से किया गया कि स्वयं एक समय ऐसा आया जब मानव को अपने रहने वाले ग्रह पर एक असंतुलन की स्थिति दिखाई देने लगी | जब उसे पीने के पानी का संकट उत्पन्न हो गया, जब उसे सुरक्षित सांस लेने का संकट उत्पन्न हो गया और जब उसके चारों ओर देखते देखते कई महत्वपूर्ण जीव जंतु गायब होने लगे ऐसे में भस्मासुर बन कर अपने द्वारा ही पृथ्वी को एक एकंगा स्वरूप प्रदान करने वाले मानव ने प्रायश्चित के फलस्वरूप यह स्वीकार किया कि वह जंगल में रहने वाले उन खतरनाक जानवरों से भी ज्यादा खतरनाक जानवर बन कर अनुपात और आवश्यकता से ज्यादा दोहन की प्रणाली में आज स्वयं वहां जाकर खड़ा हो गया है।

जहां पर यदि उसने और भी एक कदम बिना सोचे समझे बढ़ाया तो संभवत ब्रह्मांड के इस ग्रह पर कभी जीवन था इस तथ्य को भी जानने वाला ब्रह्मांड में कोई ना बचे और इस डर ने ही मानव को यह सोचने पर मजबूर किया, प्रेरित किया कि वह सिर्फ अपने अस्तित्व का ही ध्यान ना रखें बल्कि आने वाली पीढ़ियों का ध्यान रखते हुए इस पृथ्वी पर प्रकृति के उस संचार को बना रहने दे जिसके अवयवों के साथ एक तारतम्यता और प्रवाह को महसूस करते हुए जीवन अपने सात स्वरों का गीत गाती है और इसी गायन को समझने का नाम पर्यावरण है | पर्यावरण को साधारण शब्दों में हर कोई जानता है कि वातावरण के साथ हमारे जो संबंध हैं उस संबंध को समझने और उसके अनुरूप कार्य करने का नाम ही पर्यावरण है|

यह निश्चित रूप से वैज्ञानिक स्तर पर सामाजिक स्तर पर सिद्ध हो चुका है कि अपनी संस्कृति में संबंधों के जिस विखंडन से होकर मानव गुजर रहा है उसी अनुपात के विखंडन को उसने पर्यावरण के साथ भी जिया है जिसके कारण मानव को अपने जीवन में स्वस्थ जीवन जैसे एक और मुहावरे को जन्म देना पड़ा है| बीमारी, लाचारी शरीर को संक्रमित करने वाले कई विषाक्त रोग आदि यह सब मानव के अंधाधुंध पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने के नतीजे हैं जैसे संबंधों के दायरे में आज मनुष्य ना तो विवाह संबंधी ना परिवार संबंधी और ना ही नातेदारी संबंधी अपने संबंधों को पूर्ण और प्रकार्यात्मक रूप से जी पा रहा है| ठीक उसी प्रकार से वह अपने जैविकता को स्थिर रखने वाले पर्यावरण के साथ अपने संबंधों में भी एक स्थाई भाव नहीं पैदा कर पाया जिसका कारण पर्यावरण प्रदूषण है | प्रदूषण के एक श्रंखला बद्ध कारक है जिन्हें वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि से संबोधित करके मानव एक हास्यास्पद स्थिति में स्वयं को रखकर इनका विश्लेषण करके अपने को ज्ञान उन्मुख समाज का प्रतिनिधि बताने लगा है| इस ज्ञान उन्मुख समाज का सदस्य होने के कारण विश्व स्तर पर स्टॉकहोम में होने वाले वैश्विक पर्यावरण सम्मेलन 1972 में इस स्थिति का आंकलन सभी ने किया कि यदि समय रहते सचेत नहीं हुआ गया तो मानव यह कहने पर स्वयं विवश होगा कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत और उस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ने मानव सभ्यता के सामने उस भयावह स्थिति को सामने रखा जिसमें मानव जीवन के ऊपर ही नहीं पृथ्वी पर भी एक प्रश्न चिन्ह लग रहा था और यही कारण है कि भारत जैसे देश ने जो वहां एक प्रतिनिधि के रुप में सम्मिलित था।

अट्ठारह सौ बहत्तर में वाइल्डलाइफ एक्ट बनाया | १८७४ में वाटर एक्ट बनाया | 1981 में एयर एक्ट बनाया | यही नहीं पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 बनाया गया लेकिन इन विधिक प्रयासों से क्या हम पर्यावरण के प्रति वास्तव में संवेदनशील हो गए ? विश्व के जितने भी पर्यावरण के अवयव हैं और मुख्यतः पेड़ पौधे हैं उनमे अधिकतम पेड़ पौधे किसी मनुष्य ने नहीं लगाएं बल्कि विश्व में पाए जाने वाले समस्त पेड़ पौधों का 85% जानवरों के द्वारा बीजों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और अपने मल के माध्यम से उनको फैलाने के कारण उत्पन्न हुए हैं | ऐसे में मनुष्य से ज्यादा जानवर इस प्रकृति को स्थापित करने के लिए कितना उपयोगी रहा है इसको समझना आज के दौर में ज्यादा जरूरी है क्योंकि पृथ्वी पर उपस्थित समस्त ऑक्सीजन के स्रोतों में 28% ऑक्सीजन इसी पेड़ पौधों से मिलती है और इसी 28% ऑक्सीजन को स्थापित करने की होड़ आज विश्व पर्यावरण दिवस पर मुख्यतः भारत जैसे देश में वृक्षारोपण कार्यक्रम के नाम पर दिखाई देती है |

वृक्षारोपण के मामले में इसलिए भी हमें संवेदनशील होना जरूरी है क्योंकि विश्व में अब महत्तम 31% वन बचे है जबकि आदर्श स्थिति में यह माना जाता है कि किसी भी देश के संपूर्ण क्षेत्रफल के अनुपात में 33% वन होने चाहिए और ऐसा होने का तात्पर्य है कि पेड़-पौधे सहित वहां पर रहने वाले जीव जंतु पक्षी कीड़े मकोड़े सभी होने चाहिए क्योंकि उनके माध्यम से जो एक पारिस्थितिकी तंत्र उत्पन्न किया जाता है और जिसकी तारतम्यता से पृथ्वी का अस्तित्व प्रकृति के माध्यम से जीवन के अनुरूप बनता है | उसको स्थापित करने के लिए पेड़ लगाना अत्यंत आवश्यक है लेकिन इस तरह की कोई भी अनिवार्य व्यवस्था भारत जैसे देश में जनता के ऊपर विधिक रुप से नहीं दिखाई देती है |

यह सत्य है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 ए में पर्यावरण की बात की गई है और इस अनुच्छेद को संविधान बनने के बाद में संशोधन से जोड़ते हुए राज्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह जंगल और जंगली जानवरों के संरक्षण के लिए प्रयास करेंगे और उनके बेहतरी के लिए प्रयास करेंगे और इस बेहतरी में देश की जनता की सहभागिता संविधान के अनुच्छेद 51अ की उप धारा जी में उल्लिखित की गई है कि यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह जीव जंतुओं और वनों के संरक्षण में योगदान करें लेकिन इस कर्तव्य बोध की स्थिति के कारण ही यह कभी विधिक स्थिति के रूप में भारत में स्थापित नहीं हुआ जबकि यहां का व्यक्ति उसी संविधान के अनुच्छेद 14 में इस बात को मौलिक अधिकार के रूप में सदैव से उठाता रहा है कि विधि के समक्ष समानता के अधिकार की अनदेखी नहीं होनी चाहिए लेकिन वह इस मौलिक अधिकार को सामने रखने में इस तथ्य को भूल जाता है कि स्वयं पेड़ों को काटने के कारण और जानवरों को अंधाधुंध मारने के कारण अवैध रूप से खाल, सींग, हड्डी आदि बेचने के कारण पर्यावरण असंतुलन उसके द्वारा इस स्थिति में पहुंचा दिया गया है कि असमानता को सीधे अनुभव किया जा सकता है और इसी लिए अनुच्छेद 14 का उल्लंघन अनुच्छेद 21 के सापेक्ष में होना एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया बन गई है क्योंकि गरिमा पूर्ण जीवन का मौलिक अधिकार तभी ज्यादा बेहतर सुनिश्चित किया जा सकता है जब हम गरिमा पूर्ण स्थिति के लिए आवश्यक तत्वों को इस पृथ्वी पर स्थापित करने में सहयोग करें|

ऐसा नहीं है कि संविधान में पर्यावरण या किसी भी आवश्यक स्थिति के लिए कानून बनाने की शक्ति निहित नहीं है | अनुच्छेद 253 में इस बात की पर्याप्त व्यवस्था की गई है कि सरकार इस तरह के कानून बनाने के लिए संशोधन करने के लिए अधिकृत है | लेकिन क्या सिर्फ कानून बना देने भर से पर्यावरण सुरक्षित हो सकता है? जिस 28% ऑक्सीजन के स्रोत के रूप में दुनिया भर के पेड़ पौधे चिन्हित किए गए हैं उन्हीं पेड़ पौधों के लिए एक आवश्यक तथ्य यह भी है कि पेड़ को काट कर ही कागज का निर्माण होता है और उन कागजों के अंधाधुंध प्रयोग से भी पर्यावरण को नुकसान हो रहा है | जितना ज्यादा कागज का प्रयोग होगा पेड़ उतने ज्यादा काटे जाएंगे और हमारे सामने पर्यावरण की एक सोचनीय स्थिति पैदा होगी | इसीलिए विश्व सहित भारत में भी ग्रीन इनिशिएटिव या हरित प्रयास व्यवस्था के अंतर्गत सदैव विभिन्न तरह की कंपनियों और स्वयं सरकार द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि लोग ज्यादा से ज्यादा काम कागज रहित वातावरण में करें |

वह डिजिटल इंडिया का हिस्सा बने पर यह एक अलग विषय होगा कि डिजिटल इंडिया का हिस्सा बनने पर प्रयोग किए जाने वाले डिवाइस जैसे लैपटॉप कंप्यूटर मोबाइल से भी उत्सर्जित होने वाली गैस और तापमान जैसी अव्यवस्था के कारण भी पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है लेकिन सरकार और संवैधानिक प्रावधानों के बाद भी इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कागज के दोहन में जिस तरह से देश और विश्व में समाचार पत्रों ने अंधाधुंध पेड़ों की कटाई को प्रोत्साहन दिया है उतना किसी ने नहीं दिया है | वैश्विक स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कंपनियों से सिर्फ धन के लिए पूंजीपतियों द्वारा चलाए जा रहे समाचार पत्रों में बड़े-बड़े एक एक पेज के विज्ञापन रोज देखे जा सकते हैं जिनका समाचार से कोई लेना-देना नहीं है और इन विज्ञापनों के छापने के कारण कोई भी समाचार पत्र जो न्यूनतम 10 या 12 पेज का होता है, वह 20 से 22 पेज में छप कर एक नागरिक तक पहुंचता है और इस अतिरिक्त कागज के दोहन के कारण ही पेड़ों का कटना कितना ज्यादा हो रहा है इसे आसानी से समझा जा सकता है लेकिन आज तक ना तो पर्यावरण अधिनियम 1986 के अंतर्गत भारत में समाचार पत्रों पर अंकुश लगाने के लिए छापे जाने वाले पेजों का निर्धारण किया गया और ना ही देश और देश के लोगों को सर्वोच्चता देते हुए उन सभी कंपनियों को कोई निर्देश या आदेश दिया गया जिसमें वह निर्धारित साइज से बड़ा विज्ञापन समाचार पत्रों को दे ही नहीं सकते हैं |

इसके अतिरिक्त डिजिटल इंडिया के स्वरूप में भी कभी भी इन वैश्विक स्तर की कंपनियों को इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया कि वह सिर्फ अखबारों में अपनी एक संक्षिप्त जानकारी वेबसाइट के पते के साथ दें उसके बाद नागरिक स्वयं डिजिटल इंडिया का हिस्सा बनते हुए कंपनी के बारे में अधिकतम जानकारी प्राप्त करें | ना ही इन कंपनियों को इस तरह का आज तक कोई निर्देश दिया गया कि जिस अनुपात में उनके यहाँ से दिए जाने वाले विज्ञापन के कारण पेड़ों के कटान की संभावना बढ़ती है उससे 10 गुना अनुपात में जब वह देश के किसी बंजर या उपयुक्त स्थान पर वृक्षारोपण कराते हुए उसके स्थाई संवर्धन को सुनिश्चित करेंगे तभी देश और देश के लोगों और संविधान की सर्वोच्चता में पर्यावरण की सार्थकता को महसूस करने के बाद ही उन्हें किसी समाचार पत्र में अनियंत्रित तरह से बड़े-बड़े विज्ञापन छापने का अवसर मिल पाएगा | इसके अतिरिक्त यह भी कहीं पर कोई व्यवस्था नहीं है कि पूंजीपतियों द्वारा चलाए जाने वाले समाचार पत्रों में सरकार द्वारा यह निर्धारित किया जाए कि किसी भी स्थिति में समाचार पत्र 8 या 10 पेज से ज्यादा नहीं हो सकता और इसी में उन पूंजीपतियों को विज्ञापन को भी छापना है जो समाचारों के सापेक्ष किसी भी स्थिति में कुल पन्नो की संख्या से 20% से ज्यादा नहीं होगा पर ऐसी कोई भी व्यवस्था ना दिखाई देने की स्थिति में यह स्वतः ही स्पष्ट है कि ज्यादातर अधिनियम और व्यवस्था सिर्फ कागजी है

| व्यवहारिकता में जनता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हम संवेदनशील नहीं हैं | इसी तरह से पृथ्वी पर आवश्यक ऑक्सीजन की 70% मात्रा समुद्र के भीतर के जीव-जंतुओं और वहां के पर्यावरण के माध्यम से हमें मिलती है लेकिन जिस तरह से समुद्र में व्यवसाय के लिए बड़े बड़े व्यवसाई जहाजों को उतारा गया है उनके द्वारा कूड़ा करकट उसमें फेंका जा रहा है | दुर्घटनाग्रस्त होने पर समुद्रों में तेल के बहने से जीव जंतुओं के जीवन संकट बढ़ा है | समुद्र के किनारे पर्यटन को बढ़ावा देते हुए जिस तरह से समुद्र के जीव जंतुओं को प्लास्टिक और प्लास्टिक के उत्पादों के कूड़ा करकट से सामना करते हुए अपने जीवन को संकट में डालना पड़ा है | व्हेल मछलियां लुप्त होने के कगार में हैं और अब तक 10000 से ज्यादा मछलियों की प्रजाति विलुप्त हो चुकी है |

समुद्र भी पृथ्वी के तापमान बढ़ने के कारण प्रभावित हो रहा है उन सब का सीधा परिणाम पृथ्वी पर आवश्यक ऑक्सीजन पर ही पड़ना है जिससे आज कोई भी गंभीरतापूर्वक समझने को तैयार नहीं दिखाई देता है वह से वृक्षारोपण करके ही पर्यावरण दिवस की इति कर लेता है लेकिन वृक्ष से ज्यादा समुद्रों के माध्यम से मिलने वाली ऑक्सीजन के लिए समुद्र को जिस गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ जनता को लेना चाहिए वह होता नहीं दिखाई दे रहा है जिसके कारण पर्यावरण असंतुलन बढ़ा है और इस पर्यावरण असंतुलन को रोकने के लिए आवश्यक है कि समुद्री जीवन और समुद्री जीव जंतुओं की रक्षा के लिए जितने भी कानून है उनका कठोरता से पालन हो | जीव जंतुओं को मारा जाना किसी भी मनुष्य की हत्या से कम न समझा जाए क्योंकि जब समुद्र सुरक्षित रहेगा समुद्र के अंदर का वातावरण पर्यावरण सुरक्षित रहेगा तभी संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन जीने के अधिकार, गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार और स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार सुनिश्चित हो सकेगा |

यह पूरी तरह आज समझने की आवश्यकता है कि जिस तरह से भारत में टिड्डी दलों ने आक्रमण किया है वह कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि पर्यावरण असंतुलन का ही परिणाम है जिस तरह से पर्यावरण असंतुलन के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है उससे मौसम की अनिश्चितता बढ़ गई है और उस स्थिति में इस बार अरब देशों के रेगिस्तान में होने वाली बरसात के कारण रेतीले प्रदेशों में इस तरीके के टिड्डी के दल जन्म लेते हैं और उसी के कारण आज भारत जैसा देश पर्यावरण असंतुलन के इस विभीषिका को भी झेल रहा है| राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे प्रदेश इन टिड्डी दलों के विनाश लीला को देखने के लिए खड़े हैं | हम इन्हें रोक सकते थे यदि हम पर्यावरण को महसूस करते लेकिन ऐसा नहीं हुआ | प्रकृति ने इसी संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए वर्तमान में कोरोना वायरस की स्थिति को सामने रखते हुए मनुष्य को एक डरे हुए प्राणी के रूप में जीवन की याचना करने वाले प्राणी के रूप में जिस तरह घरों में लॉक डाउन में कैद किया है उसके कारण मनुष्य को इस बात का संकेत मिलने लगा है कि इस जीवन का प्रयोग यदि गलत तरीके से किया जाता रहेगा तो दूसरों के जीवन को बर्बाद करने वाला मानव स्वयं बर्बाद होने की तरफ बढ़ चुका है और ज़्यादफा बढ़ जायेगा |

पर्यावरण पर अत्याचार करने वाले मानव के कृत्यों को और उसके परिणामो को महसूस करने के लिए लॉक डाउन एक विशेष स्थिति के रूप में भी उपस्थित हुआ है | इस लॉक डाउन का परिणाम यह हुआ है जो नदियां दूषित थी जिन नदियों में जल प्रदूषण का स्तर कानून बनने के बाद भी दयनीय स्थिति में था वह 3 महीने में काफी शुद्ध हो गई हैं उनका पानी पारदर्शी हो गया है| वायु जो प्रदूषित थी क्वालिटी इंडेक्स दिल्ली जैसे शहरों का 400 से ज्यादा रहता था वह वर्तमान में 35 और 40 तक आ गया है इस बार जिस तरह से जून का महीना आने के बाद भी गर्मी की वह विभीषिका किसी भी प्रदेश ने अनुभव नहीं की गयी और जिस तरह से वायु निर्मल हुई है उससे वायु देवता निश्चित रूप से प्रसन्न हुए हैं और लोगों को सांस लेने में ज्यादा आसानी महसूस होने लगी है|

कई शहरों से हिमालय फिर से साफ साफ दिखाई देने लगा है चाहे वह पंजाब में जालंधर हो या उत्तर प्रदेश में बहराइच श्रावस्ती हो इन सभी जगहों पर वायु प्रदूषण के कारण ही हिमालय दिखाई देना बंद हो गया था लेकिन प्रदूषण के घटते स्तर के कारण ही हिमालय फिर से उस पारदर्शी वायु के पार दिखाई देने लगा है लेकिन यह स्थिति निरंतर बनी रहे इसके लिए मनुष्य को अब यह सोच कर काम करना होगा कि बेवजह वाहनों का प्रयोग ना करें | अति आवश्यक कार्य पर ही वाहन का प्रयोग करें| सरकारी वाहनों का प्रयोग ज्यादा करें| समूह में चलें | इसके अतिरिक्त सारे फैक्ट्री कारखानों को अपना गंदा पानी नदियों में गिराना एक आपात स्थिति में बनाए जाने वाले कानून के सापेक्ष नरसंहार किए जाने वाला कृत्य माना जाना चाहिए और ना सिर्फ ऐसे कारखाने फैक्ट्री को बंद किया जाना चाहिए बल्कि उन पूंजीपतियों को दो-दो काले पानी( ५० साल ) के बराबर सजा देनी चाहिए जिन्होंने मानव सभ्यता को बर्बाद करने का प्रयास किया है| 1932 में पहली बार चार्ल्स नाम के एक अंग्रेज अधिकारी ने बनारस में गंदे पानी के नाले को गंगा में गिरा कर इस तरह का एक अमानवीय कार्य शुरू किया था जिससे बाद में भारत के रहने वाले लोगों ने इसे अपनी संस्कृति समझकर मां कहने वाली गंगा, यमुना, रेवा, गोमती सभी को ना सिर्फ प्रदूषित किया बल्कि जीते जी मार डालने का भी प्रयास किया जिसको रोके जाने का प्रयास किया जाना चाहिए|

कानून बनाकर मानव को ना तो संवेदनशील बनाया जा सकता है ना ही उसको राष्ट्र के प्रति जागरूक बनाया जा सकता है | यह उसकी अंतरात्मा है जो उसे इस बात को सोचने के लिए मजबूर करें कि वह जो कार्य कर रहा है क्या यह कार्य स्वयं उसके लिए और उसके परिवार के लिए उचित है और इस विचारधारा को ही पल्लवित करने की आवश्यकता है| फैलाने की आवश्यकता है क्योंकि कोई व्यक्ति यह नहीं चाहता है कि उसका बच्चा या तो अंधा पैदा हो या उसे कम दिखाई दे| वह पैदा होते ही मधुमेह का रोगी हो इंसुलिन लेना शुरू करें| वह हृदय रोगी हो या वह कैंसर जैसे रोगों से ग्रस्त हो क्योंकि वह स्वयं अपने बच्चे के लिए नर पिशाच नहीं बनना चाहता है जब इस दर्शन के साथ मानव के सामने पर्यावरण दिवस रखा जाएगा और पर्यावरण से होने वाले वास्तविक नुकसान को बताया जाएगा तब कोई आशा की किरण दिखाई देगी | घरों में पढ़े जाने वाले समाचार पत्र से पर्यावरण कितनी खतरनाक स्थिति में है ?

विज्ञापन किस तरह से पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं और किस तरह से सिर्फ हमारे भौतिक संस्कृति में जीने के कारण स्वयं हमारा जीवन अनिश्चित होता जा रहा है जब यह सभी तथ्य मनुष्य अपनी अंतरात्मा से सोचेगा तो किसी भी विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के लिए हर दिन पर्यावरण दिवस होगा वह उसके लिए संवेदनशील होगा क्योंकि वह जानता है कि जब पर्यावरण है तभी हमारा अस्तित्व है| सरकार राष्ट्रीय सेवा योजना( 1969) नेशनल कैडेट कोर ( 1948) आदि में इस बात की व्यवस्था करें कि वृक्षारोपण का कार्यक्रम एक विस्तार में हो और अनिवार्य रूप से हो| सिर्फ उत्तर प्रदेश लखनऊ जैसी नगरी में करीब 150 से ज्यादा राष्ट्रीय सेवा योजना की यूनिट है और ऐसे में 15000 बच्चे शहर में वृक्षारोपण करके उसका कायाकल्प कर सकते हैं| यदि 1969 से अपनी स्थापना के बाद ऐसा नहीं किया जा सका है तो इस योजना का महत्त्व स्वयं समझा जा सकता है।

यही नहीं सरकार को देश में प्रत्येक नागरिक के लिए यह अनिवार्य व्यवस्था करनी चाहिए कि उसे कोई भी सरकारी सुविधा कोई भी सरकारी लाभ तभी मिलेगा जब वह पांच पेड़ लगाएगा और उनके स्थायीत्व और संवर्धन को सुनिश्चित करेगा | देश के सभी प्राइवेट और सरकारी नौकरी करने वाले लोगों में इस बात की व्यवस्था हो कि वह स्वयं अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए कम से कम 100 पेड़ों को लगाने और उनको बढ़ाने को अनिवार्य रूप से सुनिश्चित करेंगे तभी उनको पदोन्नति मिलेगी उनको कोई अन्य श्रेणी में लाभ दिया जाएगा | आवास योजना के अंतर्गत 2022 तक सभी को आवास दिए जाने की जिस दर्शन पर सरकार कल्याणकारी राष्ट्र की संकल्पना में कार्य कर रही है उस में देश के सभी नागरिकों को अपने घर में कम से कम एक पेड़ लगाना अनिवार्य किया जाए ताकि देश में जंगल यदि कम हो रहे हैं तो शहरों में इतने पेड़ अवश्य लगाएं कि हमारे बीच में 28% ऑक्सीजन का अनुपात जो माध्यम से निर्धारित किया गया है वह कम ना हो | इसके अतिरिक्त समुद्री जीवन पर भी कठोर कानून बनाते हुए समुद्र का सम्मान समुद्र की सुरक्षा स्थल पर रहने वाले जीव जंतु के सापेक्ष ही की जाए ताकि 70% ऑक्सीजन के स्रोत के रूप में समुद्र हमारे बीच एक देवता बनकर स्थापित हो जिस की संकल्पना हमारे धर्म में हमारे दर्शन में की जाती रही है यदि यह सब प्रयास किए जाएंगे तो सिर्फ हाथी के दांत की तरह विश्व को दिखाने के लिए हमें बेवजह के निरर्थक कानून बनाकर पर्यावरण की लाश पर हर वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस नहीं मनाना पड़ेगा और वास्तव में प्रकृति का सबसे खूबसूरत प्राणी बन कर मानव इस पृथ्वी पर राज करेगा।

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