दर्द कागज पर ,
मेरा बिकता रहा ,
मै बैचैन थी,
रात भर लिखती रही,
छू रहे थे सब,
बुलंदियाँ आसमान
की,
मै सितारों के बीच,
चांद की तरह छिपती रही,
अकड़ होती तो,
कब की टूट गयी होती,
मै थी नाजुक डाली,
जो सब के आगे झुक्ती रही,
बदले यहाँ लॉगौ ने,
रंग अपने 2 ढंग से,
रंग मेरा भी निखरा पर,
मै मेहंदी की तरह
पिसती रही,
जिनको जल्दी थी,
वह बढ़ चले मंजिल की ओर,
मै समंदर से रोज,
गहराई के सीखती रही,
” जिन्दगी कभी ले सकती है करवट,
तू गुमान ना कर,
बुलंदियां छू हजार,मगर,
उसके लिये कोई “गुनाह” ना कर,
कुछ बेतुके झगड़े,
कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैने,
जहाँ गलती नही थी मेरी,