वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह की कलम से
इन दिनों आत्मनिर्भर भारत की चर्चा जोरों पर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा है तो चर्चा का होना स्वाभाविक भी है लेकिन इसे लेकर कुछ लोग अतिरेक कर रहे जो अपने अतीत या हकीकत को दबाने सरीखा है। हमें साफगोई के साथ मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए तथ्यों और किसी के योगदान को मिटाने पर बहसबाजी में समय जाया नहीं करना चाहिए। आज हम जिस युग में है उसमें एक बड़ा वर्ग जिसे आप आज की तरुणाई कहते हैं जिसके कंधे पर भविष्य का बोझ है वह पूरी तरह गुगल और इंटरनेट का गुलाम हो चुका है। ऐसे में वह वास्तविकता से ज्यादा आभासी दुनिया में जी रहा है। नि:संदेह तकनीकी रूप से वह ज्यादा ज्ञान रखता है लेकिन सामाजिक दुनिया से वह उतना ही अज्ञानी है। शिक्षण संस्थाओं से छात्रसंघों की समाप्ति ने लोकतंत्र की पाठशाला समाप्त कर दिया। कहा, गया कैंपस अशांति का कारण छात्रसंघ है क्या इससे शिक्षण संस्थान शांत हो गए। असल कारण था संस्थान प्रमुखों की प्रशासनिक अक्षमता और संवादहीनता। नतीजा छात्र जिस परस्पर संवाद के जरिए लोकतंत्र का पाठ पढ़ते थे वह खत्म हो गया। शिक्षण संस्थानों से राजनीतिक नेतृत्व निकलना बंद हो गया। इसी का परिणाम है कि अपराधी, ठेकेदार ,पूंजीपतियों और अयोग्य लोगों की बहुलता से लोकतंत्र गुलाम हो गया।
इसका नतीजा है कि अधिसंख्य सरकारी फरमान जनभावनाओं और असुविधा को ध्यान में रख नहीं लिया जा रहा। तमाम सोशल फोरम बनने के बाद भी स्वस्थ बहस नहीं हो रही। यह भी कहने में गुरेज नहीं की अध्ययन करने वालों की संख्या घटी है। लोग जनमत तैयार करने वाले संचार माध्यमों के भी गुलाम हो चुके हैं। यही कारण है कि राजनेता शब्दों की बाजीगरी से जनसमुदाय को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं। प्रबुद्धजन समाज के आईकान नहीं बन पा रहे हैं।
इतनी बात इसलिए कि आज आजादी के 70 साल बाद आत्मनिर्भर शब्द आने पर लोग कुछ ज्यादा ही अलग होने की कल्पना करने लगे हैं जबकि आजादी के बाद पहली सरकार का मूल मंत्र ही था स्वावलंबी भारत का। उसी के साथ अंग्रेजों व उससे पहले अन्य विदेशी आक्रमणकारी लुटेरों की लूट से बर्बाद भारत नवनिर्माण की तरफ बढ़ा। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्र भारत की सरकारों ने स्वदेशी उत्पाद के निर्माण की दिशा में तेजी से काम किया। इसके साथ ही सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की स्थापना की। कुछ औद्योगिक घरानों ने भी जोखिम लेकर निर्जन स्थानों पर फैक्ट्री लगाई। वित्तीय आधार को मजबूत करने की आवश्यकता हुई तो बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किया। मतलब आज का भारत एक दो दिनों का परिणाम नहीं बल्कि सतत विकास का नतीजा है। 1947 में जहां हमारी सूई बनाने की ताकत नहीं थी वहीं हम कुछ ही सालों में सभी क्षेत्रों में अपने को स्थापित करने लगे। पूरी दुनिया की भारत की तरफ नजर थी। भूलना नहीं चाहिए अपने शैशवकाल में ही देश को तीन युद्ध और कई सैन्य आपरेशन का सामना करना पड़ा। इसके बाद भी विकास नहीं थमने पाया। उसी दौर में आइआइटी आइआइएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की। जिनको गज भी निजी क्षेत्र पछाड़ नहीं सका है। सरकार ने निजी क्षेत्र की निरंकुशता को रोकने के लिए उत्पादन यूनिटों की स्थापना कर जहां रोजगार बढ़ाया वहीं उद्यमियों को बता दिया कि हमारी नजर है। यही नहीं शक्तिशाली राष्ट्र बनने के लिए भारत ने एक नहीं दो बार परमाणु परीक्षण कर पूरी दुनिया को चौंकाया। जब वैश्विक पाबंदी लगी और सैटेलाइट प्रोजेक्ट पर बाधा की नौबत आई तो वैज्ञानिकों ने देश में ही ईंधन की तलाश कर काम नहीं रुकने दिया। इसी तरह सैटेलाइट प्रक्षेपण की भी क्षमता देश ने हासिल की। यह सब हमारी स्वावलंबी भारत की नीति का हिस्सा था।
यह स्वावलंबी भारत तो महात्मा गांधी की कल्पना थी जिसे सरकारों ने आधा अधूरा अपनाया। गांधी के स्वावलंबी भारत का मूल था सबसे छोटी इकाई गांव और उसमें रहने वाले व्यक्ति का स्वावलंबी होना। ग्रामोद्योग की स्थापना और कृषि के साथ गोपालन को मजबूत करना। चरखा को इसका केंद्र बनाना।
सरकारों ने समय के साथ गांधी की गांव और व्यक्ति को स्वावलंबी बनाने को अपने एजेंडा से बाहर कर दिया। नतीजा रहा कि गांव से तेज विचलन हुआ जो आज हमारे शहरों की दशा और दिशा बिगाड़ रहा है और स्वावलंबन फेल होकर पर आश्रित हो गया यहां तक कि हम स्वावलंबन भूल गए। गांव से निकले शहर आए तो बैंकों से लोन लेकर तेज विकास के चक्कर में कर्ज के जाल में फंस गए। इस तरह व्यक्ति स्वावलंबी बना और न ही आत्मनिर्भर।
अब आज के आत्मनिर्भर भारत पर गौर करें तो यहां नजरिया दूसरा है। आज सरकार खुले मन से अपने सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र में देना चाहती है । उनका कहना है कि सरकार का नियंत्रण शून्य हो। बात तो अच्छी है लेकिन जब आपके पास कुछ होगा नहीं तो आपके आदेश प्रभावी नहीं होंगे। आप निजी क्षेत्र की मनमानी पर लगाम लगाने के बजाय समझौते करेंगे यह सरकार की आत्म निर्भरता का निजी क्षेत्र के सामने आत्मसमर्पण होगा। इस तरह सरकार के नारे और दिशा में कोई साम्यता नहीं है।
‘महात्मा गांधी कहते हैं स्वदेशी महान धर्म है इससे ही हिंदुस्तान खुशहाल होगा बाकी सब उपाय थोथे हैं यही स्वराज्य है’
आगे गांधी कहते हैं मंत्री पद कोई पुरस्कार नहीं बल्कि सेवा के द्वार हैं। किसी भी कांग्रेसी को न केवल अधिकार है बल्कि उसका कर्तव्य है कि वह बड़े से बड़े कांग्रेसी पदाधिकारियों की खुलेआम आलोचना करें पूरी जानकारी पर आधारित स्वस्थ और संतुलित आलोचना सार्वजनिक जीवन का प्राण होती है। बच्चों को विदेशी भाषा के माध्यम से सारे विषय पढ़ाने के भार से मुक्त कराने और उन्हें हाथ पैरों के लाभदायक उपयोग का प्रशिक्षण देने से शिक्षा बहुत हद तक स्वावलंबी बन जाएगी। स्वावलंबी शिक्षा भारतीय गांव के लिए केवल एक आर्थिक आवश्यकता ही नहीं बल्कि शहरों और गांवों को एक दूसरे के निकट लाकर भूखमरी और अमीरी के बीच की खाई पाटकर बिना किसी भी विग्रह तथा खून खराबे के मूक सामाजिक क्रांति संपन्न करने का साधन है।
गांधी ने 1946 में हरिजन पत्रिका में कहा है कि यह ठीक ही है कि अमेरिका और अन्य देश भुखमरी से जूझते भारत को जितनी भी सहायता दे सकते हैं सबका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन मैं ऐसे उपाय निकालने के लिए प्रयत्नशील रहा हूं जिससे हम स्वावलंबी बन सके। जो अपनी सहायता आप करते हैं प्रकृति उन्हें कभी निराश नहीं करती।
यंग इंडिया में 1922 में गांधी लिखते हैं जो सरकार अपनी आय से अधिक खर्च करती है वह स्वेच्छाचारिणी या भ्रष्ट सरकार होती है जो संस्था स्वयं अपने नैतिक बल पर स्थानीय जनता की सहायता नहीं प्राप्त कर सकती वह जीवित रहने योग्य नहीं है।
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