आनन्द कुमार की कलम से…
बेचकर मेरी जमीरी को, झोली भरते हो तुम,
सरेआम मुझको बदनाम करते हो तुम,
तुम्हीं करते हो लोगों को मजबूर मुझे पीने को,
तुम्हीं लोगों से हमें खराब कहते हो क्यूं।
दोष अपना ना देते हो, तुम तो कभी,
बार-बार मुझको ही बदनाम क्यूं करते हो तुम।
इश्क तुमने ही तो, करना उनसे सिखलाया,
आज वह मुझपे मरते, तो क्यूं जलते हो तुम।
न वफा करते हो, न बेवफाई ही कर पाते,
प्यार में मेरे, मजा क्यों लूटते हो तुम।
शर्म आती नहीं, तुमको अपनी बेहयाई पर,
चन्द रूपये की खातिर, मेरी आबरू बेचते हो तुम।
मैं शराब था नहीं, शराब तुमने ही बनाया,
लोगों से करके सौदा मेरा, मुझे खराब बनाया।
बेचकर मेरी जमीरी को, झोली भरते हो तुम,
सरेआम मुझको बदनाम करते हो तुम।।