इस समीक्षा के लेखक डा.आशीष तिवारी मुंबई के प्रसिद्ध वरिष्ठ चिकित्सक, कवि, कहानीकार और ब्लाॅगर हैं

आफ़ताब की रोशनी में लिपटे और कायनात के आग़ोश में सिमटे कुछ ख़्वाबों की मुकम्मल बुनियाद जब एक हक़ीकत में तामील होती है तो एक ऐसा शाहकार पैदा होता है जिसे दुनिया मुग़ल-ए-आज़म के नाम से जानती है । आज इस फिल्म को रिलीज हुए पूरे 60 साल हो गये हैं और इस फिल्म की डायमंड जुबली हो गयी हैं । आज फिल्म इतिहास का एक तारीख़ी दिन है । 5 अगस्त 1960 को ही यह फिल्म मुंबई के मराठा मंदिर में रिलीज हुई थी ।

यह फिल्म शहंशाह अकबर के बेटे सलीम और उनकी एक कनीज़ अनारकली की मोहब्बत की दास्तानों को सुनाती हुए एक बेहद खूबसूरत कहानी है जिसके किरदारों में डूबकर पृथ्वीराज कपूर, दिलीपकुमार, मधुबाला और दुर्गा खोटे ने उन्हे हमेशा के लिए जिंदा कर दिया । शहंशाह अकबर के कोई बेटा नही था । बड़ी मन्नतों के बाद जोधाबाई के संग उनके महल में सलीम पैदा हुए । सलीम जैसे जैसे बड़ा हुआ बिगड़ैल और घंमडी होता चला गया । शहंशाह अकबर ने उसे तालीम और जंग के गुर सीखने के लिए बाहर भेजा । 14 साल बाद जब सलीम लौटा तो उसे दरबार की एक कनीज़ अनारकली से मोहब्बत हो गयी । शहंशाह अकबर को जब इस रिश्ते के बारे में पता चला तो वे नाराज़ हुए पर सलीम पर तो मोहब्बत का जुनून सवार था वो विद्रोह कर बैठा और शहंशाह से ही जंग कर डाली । जंग हारने के बाद शहंशाह ने सलीम को मौत की सजा सुना दी । साथ ही एक शर्त रख दी कि अगर अनारकली उसके बदले में जान की कुर्बानी दे दे तो सलीम बच जायेगा । क्या सलीम की जान बच सकी ? क्या अनारकली सलीम की सलामती के लिए कुर्बान हो गयी ? क्या उनकी मोहब्बत सलामत रह सकी ? इन सवालों के जवाब पाने के लिए तो आपको फिल्म देखनी चाहिए ।

 

जहाँ तक अभिनय की बात है तो पृथ्वीराज कपूर ने शहंशाह अकबर का किरदार अदा करके वो मक़ाम बना दिया है कि अब कोई कलाकार फिर अकबर नही बन सकेगा । फिल्म देखते हुए बार बार ऐसा लगता है कि मानो शहंशाह अकबर को हम रूबरू देख रहे हों । उनकी कमाल की संवाद अदायगी और अंदाजे गुफ़तगूँ काबिले तारीफ हैं । दुर्गा खोटे जोधाबाई के किरदार में बेहद संजीदा और शालीन लगी हैं उन्होने भी बेहतरीन अभिनय किया । अब बात आती है दिलीप कुमार की तो इस फिल्म में सलीम का किरदार बेहद उलझा हुआ था जिसे दिलीप कुमार ने अपनी बेहतरीन एक्टिंग से सीन दर सीन सुलझा दिया । सलीम का किरदार भी हमेशा के लिए दिलीप कुमार के नाम दर्ज हो गया । अनारकली जिसके इर्दगिर्द सारी कहानी घूमती है उसके किरदार में बेहद खूबसूरत मधुबाला ने सबके दिल चुरा लिये हैं । इश्क की गहराईयों का जो अहसास उन्होने कराया है वो दिल की दीवारों पर हमेशा के लिए दर्ज हो गया है। इस फिल्म में इन चार कलाकारो के अभिनय की बारीकियों को देखकर एक्टिंग सीखी जा सकती है ।

इस फिल्म के सेट्स बेहद जानदार है । एक एक सेट को जी जान से बनाया गया है। कभी भी नही लगा कि हम शहंशाह के महल में नही हैं । “प्यार किया तो डरना क्या” वाला गाना और शीशमहल इस फिल्म का बोनस गिफ्ट हैं । इस गाने पर मधुबाला ने कमाल का नृत्य किया है । आर.डी. माथुर की फोटोग्राफी उस जमाने के हिसाब से कमाल की है । हालांकि आज तो फोटोग्राफी बेहतर हो चुकी है पर ये भी कमाल की थी । इस फिल्म में डायलाग्स उर्दू में थे पर इतने बेहतरीन कि मानो किसी फ़रिश्ते की कलम से उकेर गये हों । एक एक गुफ़्तगूँ सीधे दिल में उतर जाती है ।

मुग़ल-ए-आज़म की मौसिकी मील का पत्थर है । नौशाद ने अपने हुनर को मानो निचोड़ कर रख दिया हो । लता, रफी, शमशाद बेगम और बड़े गुलाम अली खाँ के संग शकील बदायूँनी के लिखे गानों पर यह संगीत मानो आसमानों की उँचाईयों पर जाकर बैठ गया है । बेहद खूबसूरत गाने जो ताउम्र दिलोदिमाग पर छाये रहेंगे । इस फिल्म को 10 लाख फुट की लंबाई से काट छाँट कर 19700 तक ले आने वाले धरमवीर को भी भुलाया नही जा सकता । शापूरजी पालनजी को इस नगीने को देने के लिए दिली शुक्रिया ।

अब आखिर में बात आती है के.आसिफ की । अगर के.आसिफ जैसा जुनूनी न होता तो यह फिल्म कभी न बनती । इस आलीशान फिल्म को इन उंचाईयों तक पहुँचाने के लिए के.आसिफ के नज़रिये, मेहनत, और जुझारूपन को सलाम करना होगा । मुग़ल-ए-आज़म के.आसिफ का सपना थी जिसे उन्होने रुपहले पर्दे पर उतार कर अमर कर दिया । वो जीनियस डायरेक्टर थे । अफसोस कि दुनिया उनकी केवल दो फिल्में ही देख सकी । के.आसिफ सदियों में एक बार जन्म लेते हैं हम खुशकिस्मत हैं कि हमें उनकी बनायी यह महानतम फिल्म देखने को मिली । अगर हम आज के मौके पर इस फिल्म को देख लें तो के.आसिफ को यही सबसे बड़ी और सबसे सच्ची श्रद्धांजली होगी ।

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