विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार, पूर्व सम्पादक आई नेक्ट।

ये अपना मुल्क भी एक अजीब शै है. कहते हैं कि यहां रहने वाला हर शख्स बेहद संवेदनशील है. उसे दुनिया भर का दर्द बुरी तरह से कचोटता है. दूसरों के गम को वह अपना समझ कर उसे उससे निजात दिलाने के लिए जमीन आसमान एक कर देता है. बेशक ये सब होगा. लेकिन तल्ख हकीकत ये भी है कि हम अपनी राह से भटक गये हैं. अब हमें दूसरों का दर्द सताता नहीं है. हमारी सरजमीं का एक बड़ा हिस्सा सूखे की मार झेलने को बेबस है और मुल्क को चलाने वाला सिस्टम कफन के कारोबार में भी सेंधमारी करने पर तुला हुआ है. हिन्दुस्तान के साथ एक अजीब सी विसंगति है. यहां जिले की सरकार से लेकर सूबे की सरकार और फिर उन सबसे ऊपर केंद्र की सरकार तक अक्सर यह दावा तो तो करती है कि देश में अमन चैन है लेकिन एक कड़वा सच ये भी है कि यहां कुछ भी ठीक नहीं है. कम से कम सुप्रीम कोर्ट का हालिया डायरेक्शन तो इसी की चुगली करता है. कहीं कुछ तो बात होगी तभी ना जस्टिस एमबी लोकुर और जस्टिस एनवी रामन्ना की बेंच को यह कहना पड़ा कि केंद्र और राज्य सरकार आर्थिक तंगी का हवाला देकर गरीबों की समस्या से कन्नी न काटें.

यह जानकर हैरत होती है कि किसी नेता की जनसभा के लिए करोड़ों खर्च करने वाला यह देश अपने किसान को उसके चार एकड़ की फसल की बर्बादी का मुआवजा महज 81 रुपए थमाता है. यह कोई छत्तीसगढ़ का अकेले मसला नहीं था. सूखा झेल रहे दस राज्यों के 254 जिलों में सिचुएशन तकरीबन सेम है. यकीनी तौर कहना मुश्किल है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को कौन सी सरकार कितनी तवज्जो देती है लेकिन उसके उठाये गये सवाल इतने वाजिब हैं कि किसी भी सेंसेटिव शख्सियत की रातों की नींद उड़ा दे. वैसे यह अपने आप में सोचने का विषय है कि क्या अब भारत में कोर्ट के दखल दिये बगैर कोई काम नहीं होता? गरीब नौनिहालों को मिलने वाले मिड डे मील में कटौती करते वक्त सिस्टम के हाथ कांपते नहीं हैं? किसान की सालभर की मेहनत के बर्बाद हो जाने की कंडीशन में उसे महज सौ दो सौ का मुआवजा देते समय उन्हें अपने बच्चों का भी खयाल नहीं आता? सरकारी खर्च पर ऐय्याशी के वक्त अफसरों को मुआवजे की अर्जी लिये किसी शख्स की याद नहीं आती?


ये तो शोध का विषय है कि आखिर कोई शख्स इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? वो बच्चों के मुंह का निवाला कैसे छीन सकता है? अफसोस तो इस बात का भी है कि आजादी के तकरीबन सात दशक बाद तक आज भी इस देश में कहीं कोई काम सिस्टमेटिक नहीं है. राष्ट्रीय आपदा समाधान कोष जैसी चीज हमसे अब तक रूबरू ही नहीं हुई. सोशल जस्टिस या मोरैलिटी को लोग अब भूलने लगे हैं. सूखे से जुड़े असल फैक्ट्स को तलाशने तक की हम जहमत नहीं उठा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट की फिक्र इसी मसले को लेकर है.

राजनीति की हद से परे हट कर जरा देखिए आज हमारे बीच 33 करोड़ लोग सूखे की मार के चलते सिर पर हाथ धरे बैठे हैं. मुआवजे की चवन्नी पाने के लिए उन्हें इतना चकरघिन्नी बनाया गया कि इनमें से ढेर सारे लोगों ने मौत का रास्ता चुनना बेहतर समझा. इन सब हालात से हम मुंह नहीं चुरा सकते. यह रास्ता सही है या गलत इस पर आप बहस कर सकते हैं लेकिन चार एकड़ की फसल का मुआवजा महज 81 रुपए दिये जाने पर बहस करने का नैतिक साहस क्या हम कर सकते हैं? क्या हम मिड डे मील पाने की उम्मीद में अपने बच्चों को स्कूल भेजने वाले उन मां बाप की तकलीफ को समझ सकते हैं जो गर्मी की छुट्टियों में अपने पेट पर तकिया बांध कर बच्चों का पेट भरते हैं?

दूर नहीं जनाब अपने आसपास बिखरे सीन पर गौर फरमाएं. मजदूरी देने में आनाकानी करने का हमारे यहां जैसे रिवाज है. अब चाहे वो हमारे खेत में काम करने वाला कामगार हो या फिर घर में काम करने वाली मेड. ‘कल पैसा ले लेना’ सुने बिना उसे अपना जायज हक मिलता नहीं है. यकीनन मनरेगा ने गांव गिरांव में रोजी की रोशनी दिखायी है लेकिन हकीकत तो ये भी है कि मनरेगा के मजदूरों को उनका ठेकेदार ‘जब मन करेगा तब पैसा देगा’ की शर्त पर काम देता है.
यहां ये सारे मसले ईमान से जुड़े हैं. समाज को कुछ देने की सोच से है. इंसानी जिंदगी को संवारने से है. सिस्टम चलाने का मतलब क्या इन सबको भूल जाना होता है? चाहे वो केंद्र की सरकार हो या सूबे की, क्या उसकी आंख में जरा भी पानी नहीं बचा है जो सुप्रीम कोर्ट को इस पर दखल देना पड़ा. सवाल यहां इस बात का भी है आखिर ये सब कब तक ऐसे ही चलता रहेगा. ये अच्छे संकेत नहीं हैं. बीते वक्त और ताजा हालात पर गौर करते हुए जेहन में तैरने लगीं दो लाइनें आपसे भी शेयर करना चाहूंगा…

नेकियां खरीदी हैं हमने शोहरतें गिरवी रख कर …
कभी फुरसत में मिलना ऐ जिंदगी तेरा भी हिसाब कर देंगे …

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