लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह की रिपोेर्ट

लखनऊ। हां,भाई हां मजदूरों ने बेटिकट यात्रा नहीं की। बकायदे टिकट लेकर यात्रा की। इसके लिए भले उन्हें कर्जा ही क्यों न लेना पड़ा। इस पर इतनी हाय-तौबा की आवश्यकता ही नहीं थी। मजदूर वैसे भी जितना श्रम करता है उसकी मजदूरी भी तो मालिकों की कृपा पर ही निर्भर है। वह मिले या कटकर मिले इसकी गारंटी नहीं होती। इस बीच थोड़ी सी चूक पर काम छीन जाने की तलवार सिर पर लटकती रहती है। ऐसे में उसे किसी सब्सिडी और कृपा का इंतजार नहीं था। वह तो अनुमति चाहते थे कि देश के इन महानगरों में उनके लिए करने को कुछ नहीं बचा। अपने गांव घर पहुंचेंगे तो किसी तरह अपना और परिवार का खरचा निकाल लेंगे। उस समय उनकी नहीं सुनी गई। वह बिना कामधाम चालीस दिन काटें। सोचिए उनकी माली हालत क्या हुई होगी।

 

प्रवासी मजदूरों ने दिये टीकट के पैसे

उसके बाद कुछ बड़े रहनुमा उन्हें वापस लाने की घोषणा करते हैं इससे ये लोग खुश होते हैं चलो उनकी बेबसी पर नजर तो पड़ी लेकिन स्टेशन पर सारी प्रक्रिया पूरा होने के बाद जब टिकट थमा कर पैसे मांगे गए तब तुरंत एहसास हुआ कि अरे भाई तुम मजदूर हो देश के निर्माता हो और तुम भी सरकार पर अपना बोझ डालोगे। वैसे भी तुम कोई रइसजादा तो हो नहीं कि तुम्हें विशेष सुविधा दी जाय। अब कई मजदूरों के किराए का पैसा कम पड़ा तो चंदा लगाना पड़ा। इसके बाद भी मजदूर खुश हैं कि मेरे ऊपर कृपा हुई कि हम सकुशल लौट आए नहीं तो भूखे वहीं समाधि लग जाती। शायद सरकार उस समाधि की स्थिति से बचने से पहले मजदूरों को वहां से उनके घर भेज दिया ताकि बड़ा संकट न खड़ा हो।

 

मजेदार तो यह है कि मजदूर पूरा किराया अदा किए। दूसरी तरफ रेलवे 85 फीसद और राज्य सरकार 15 फीसद किराए का  भार वहन करने की बात कर रहे हैं। जब मजदूर पूरा किराया अदा कर दिया तो इन लोगों का सौ फीसदी कहां गया। रेलवे कहता है हमने काउंटर से कोई टिकट नहीं बेचा तो मजदूरों तक टिकट किसने पहुंचाया और पैसा वसूला। अब राज्यों की बात करें तो मजदूर का ख़र्च किस राज्य को देना चाहिए जहां का निवासी है या जहां की तरक्की में उसका योगदान है। इस विवाद के बीच क्या भारत सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए कि ये मजदूर राज्य और रेलवे के नहीं बल्कि भारत के नागरिक हैं और हमारी जिम्मेदारी बनती है उन्हें सकुशल गंतव्य तक पहुंचाएं। यहां टकराव चल रहा है केंद्र सरकार खामोश है।

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