विश्वनाथ गोकर्ण, वरिष्ठ पत्रकार….

सुनों मैं गंगा हूं। मैं मात्र किसी का नाम या कोई शब्द ही नहीं हूं। मैं तो एक अहसास हूं। काशी से एक खास रिश्ते की परिचायक हूं। जानते हो, इस रिश्ते का अपना एक खास वजूद है। एक बुनियाद है। ठीक वैसे ही जैसे किसी मां का अपने पुत्र के साथ होता है। गंगा और काशी एक दूसरे के पर्याय हैं। मेरा मानना है कि मैं और काशी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम दोनों का वजूद एक दूसरे के दम पर है। एक दूसरे की प्राकृतिक संरचना में भी गंगा और काशी का अहम स्थान है। आज जब मैं यहां अपनी दास्तां सुनाने जा रही हूं तब मुझे वो सब याद आ रहा है जब मैं पहली बार ब्रह्मा जी के कमंडल से बाहर आयी थी। इस सृष्टि के रचयिता ने अपने कमंडल से एक पतली सी धार बहायी थी और मैं हर हर करते सदाशिव महेश की जटाओं से होते हुए इस धरती पर अवतरित हो रही थी। मुझे आदेश था कि मैं महाराज भगीरथ के कदमों के निशान पर बहती चली जाऊं। मैं उसी लीक पर बही चली जा रही थी। और आज भी प्रवाहमान चली जा रही हूं। मुझे नहीं पता कि आज तक कितने राजवंश मेरे आचमन मात्र से कुल खानदान सहित तर गये। मैं यह भी नहीं जानती कि कितने मनुष्यों ने मुझमें गोता लगा कर अपने पाप धो लिये। कमंडल से निकलने के बाद से आज तक मेरे लिए यह सब बिल्कुल अजूबा सा है। मेरे कानों में आज भी सिर्फ उन्हीं शब्दों की गूंज है जिन्हें अपने काष्ठ पात्र से धार गिराते हुए ब्रह्मा जी ने अपनी जिह्वा से उच्चारित किये थे। उस परमपिता ने मुझसे सिर्फ इतना ही कहा था, जाओ तार दो इस सृष्टि के समस्त प्राणी मात्र को। पवित्र कर दो मेरी बनायी उस धरा को। भेदभाव के बगैर कर दो सबका कल्याण।

मेरा अवतरण देख लोग हतप्रभ थे और मैं लोगों की श्रध्दा देख कर हैरान थी। लोगों की आस्था देख भाव विभोर थी। वो मुझे मां कह कर पुकार रहे थे। उस घड़ी का मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती। पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी में मुझे अपनी संतान नजर आ रहा थी। मैं बेखुद हुए बही चली जा रही थी। तभी मुझे अचानक भगवान भोले भंडारी का ध्यान आया। मुझे यह अहसास होने लगा कि मुझसे कहीं कोई चूक हो रही है। मुझसे मेरा कोई प्रिय बिछड़ रहा है। जब तक मैं चैतन्य होती तब तक मैं शूलटंकेश्वर पहुंच चुकी थी। मुझे आभास हो गया कि मैंने भगवान आशुतोष के प्रिय शहर काशी को पीछे ही छोड दिया है। मैंने महाराज भगीरथ को आवाज दी और उनसे तनिक रुक जाने की प्रार्थना की। महादेव ने चाहा था इसलिए भगीरथ के कदम रुक गये थे और उन्हें पूरब से फिर उत्तर की ओर करीब तीस मील वापस लौटना पडा। यही वजह है कि मैं काशी में उत्तर वाहिनी हो जाती हूं। यह बताते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं कि काशी में मैंने बाबा विश्वनाथ का दर्शन किया और उनके चरन पखारे। आज यह सब कहते हुए मैं रोमांचित हुई जा रही हूं कि मेरी धार के आगे बढ़ कर फिर वापस लौटने पर बाबा विश्वनाथ ने अपने प्रिय शहर काशी को तमाम सारे वरदान देकर नवाज दिया। तुम शायद जानते भी होगे कि उसी वक्त से काशी का नाम सप्त पुरियों में शुमार हो गया। बाबा विश्वनाथ ने तभी कह दिया था कि काशी में गंगा स्नान कर मेरा दर्शन करने मात्र से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाएगा।


इसे मेरा अहंकार मत समझना लेकिन आज मैं कहना चाहूंगी कि काशी में गंगा के धार्मिक महत्व का वर्णन करने के लिए अगर कोई ग्रंथ भी लिखा जाए तो शायद कम होगा। काशीवासियों की जिंदगी में मैं कुछ इस तरह से रच बस गयी हूं कि यहां तीरे गये बिना इंसानी जिंदगी का कोई भी संस्कार पूरा नहीं होता। तीरे मतलब समझ रहे हो ना ? तीरे मतलब गंगा किनारे। काशी में मनुष्य के पैदा होने से लेकर उसके मरने तक के सारे संस्कार मेरे तट पर ही किये जाते हैं। इनमें से कुछ तो बहुत ही अहम हैं। जैसे मुंडन, यज्ञोपवित, शादी के पहले कंगन और शादी के बाद होने वाली गंगा पुजैया की रस्म मेरे किनारे आये बिना संभव ही नहीं है। मेरा और काशी का जिक्र हो और यहां के महाश्मशान का उल्लेख न हो यह कल्पनातीत है। मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट काशी के लिए सिर्फ शवदाह स्थल नहीं हैं। मैं फिर कह रही हूं कि इन्हें सिर्फ महाश्मशान न समझना। ये तो जन्म मरण से मुक्ति के मार्ग का एक अहम पायदान है। वैसे तो काशी में 84 घाट हैं। इसके अलावा मेरे इस छोर के उस पार एक वृहद क्षेत्र रेत के मैदान के रूप में खुला पड़ा है लेकिन इनमें कहीं भी शवदाह नहीं होता। वैसे तो पुराणों में कहा गया है कि अखंड काशी महाश्मशान है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि काशी में कहीं भी शवदाह कर दिया जाए। काशी में मनुष्य के पार्थिव देह के दहन या विसर्जन की अगर कहीं कोई शास्त्रोक्त अनुमति है तो वह मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट पर ही है। ऐसे में काशी में मेरी और मेरे घाटों की अहमियत को समझा जा सकता है। हिन्दू धर्म में वैसे तो ढेर सारे तीज त्यौहार हैं। इनमें से बहुत सारे स्नान पर्व भी हैं। इन स्नान पर्वों को तुम सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं देख सकते। काशी में ये पर्व एक मेले के रूप में उत्साह के साथ मनाये जाते हैं। गंगा दशहरा और कार्तिक पूर्णिमा पर काशी में मेरे तट पर होने वाली भारी भीड़ इस बात की जमानत है कि मैं यानि गंगा यहां सिर्फ मोक्षदायिनी ही नहीं हूं। मैं तो यहां के जनमानस की जिंदगी का अहम हिस्सा हूं। वैसे तो काशी में दो ही मुख्य स्नान पर्व हैं लेकिन इनके अलावा मौनी अमावस्या, देवोत्थान एकादशी, निर्जला एकादशी और महालया भी यहां के मुख्य स्नान पर्व हैं। काशी में पितृ कार्य का विशेष महत्व है। पितृ पक्ष में तर्पण और पिंडदान के कार्य मेरे तट पर ही किये जाते हैं। हालांकि ये कार्य घर पर भी किये जा सकते हैं लेकिन काशी में मेरी महिमा अपरम्पार होने के कारण इसे यहां किया जाता है।


वैसे तो काशी में मेरे तीरे दीपदान नित्य की प्रक्रिया है लेकिन कार्तिक पूर्णिमा पर होने वाली देव दीपावली ने इस शहर में अब एक बड़े पर्व का रूप ले लिया है। इस दिन घाटों पर सूर्यास्त के साथ ही लाखों दीये एक साथ जलाये जाते हैं। वस्तुतः यह दीपदान का ही पर्व है। यह आयोजन पहले पंचगंगा घाट पर ही आयोजित होता था लेकिन अब सभी घाटों पर इसके आयोजन ने बनारस में एक नये उत्सव परम्परा की शुरुआत की है। काशी में मेरी अहमियत को इससे भी समझा जा सकता है कि यहां कई बड़े सांस्कृतिक आयोजन घाट किनारे ही होते हैं। घाट किनारे अखाड़ों का होना और उनमें सालाना दंगल का होना जैसे एक परम्परा है। गंगा महोत्सव जैसा गायन वादन का कार्यक्रम हो या रामलीला, नागनथैया की लीला या नरसिंह लीला के आयोजन घाट किनारे ही कराने की रवायत है। बनारस में मैं धार्मिक समभाव की प्रतीक भी हूं। यहां कई घाट ऐसे हैं जहां मुस्लिम बंधु मुझमें डुबकी लगा कर जकात से जुड़े दान भी करते हैं। मुहर्रम महीने की दसवीं तारीख को काफी तादाद में लोग कर्बला जाने के बजाय मुझमें ही ताजिये भी ठंडा करते हैं।


वैसे तो काशी में असि और वरूणा के बीच कुल 84 घाट हैं। हर घाट का अपना एक खास इतिहास है। सबकी अपनी दास्तां है लेकिन इन सबके बावजूद अगर काशी के दो प्रमुख घाटों के नाम पूछे जाएं तो शायद पहला नाम दशाश्वमेध घाट होगा और दूसरा पंचगंगा घाट। इन दोनों घाटों पर स्नान करने की अपनी खास अहमियत है। कहते हैं ईसा की दूसरी सदी में भारशिव राजाओं ने युद्ध में कुषाणों को हराने के बाद दस अश्वमेध यज्ञ किया था। इसके बाद उन्होंने इसी घाट पर मेरा आचमन कर स्नान किया था। इसी वजह से इस घाट का नाम दशाश्वमेध घाट पड़ गया। वैसे एक किवदंती यह भी है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किया था। पंचगंगा घाट के बारे में कहा जाता है कि यहां पांच नदियां मुझमें आकर मिलती हैं। हालांकि ये दृश्यमान नहीं हैं लेकिन कहते हैं कि इन नदियों का स्रोत मुझ में ही निहित है। पांच नदियों का संगम स्थल होने के कारण हर स्नान पर्व पर यहां आने वाली भीड़ दशाश्वमेध के बाद सर्वाधिक होती है। पुराणों में मेरा और मेरे घाटों का इतना ज्यादा बखान किया गया है कि यहां आने वाला हर शख्स भले ही वो किसी भी मजहब का हो लेकिन काशी की धरती पर कदम रखने के साथ ही उसका मन घाट किनारे पहुंचने के लिए मचलने लगता है। मेरे तट पर सूर्योदय का दृश्य अभिनव होता है। सुबह-ए-बनारस देखने के लिए हर रोज हजारों की तादाद में देशी विदेशी सैलानी मेरे तट पर पहुंचते हैं। उगते सूर्य की रश्मियां जब मुझ पर पड़ती हैं तो मेरे जल का रंग जैसे सुनहला सा हो उठता है। ऐसे लगता है जैसे मैं कोई सोने की नदी के रूप में बह रही हूं। काशी में मुझ में स्नान का एक अलग विधान है। यहां घाट किनारे बैठे पंडे स्नान के लिए आए शख्स को कुश देकर स्नान का संकल्प दिलवाते हैं। इसे दोहरा कर स्नानार्थी अपना नाम गोत्र लेता है। इस कुश को लेकर स्नान करता है। लौटने के उपरांत पंडा स्नानार्थी के माथे पर चंदन का तिलक लगता है और यजमान ब्राह्मण को दक्षिणा देता है।


एक जमाने में काशी में सारे घाट कच्चे ही हुआ करते थे। बाद के वक्त में देश के तमाम रजवाड़ों ने यहां के एक-एक घाटों को पक्का कराने का काम किया। दरअसल इसकी सबसे बड़ी वजह काशी में मेरे तट पर अपने रजवाड़े के नाम को जीवंत होते देखने की उनकी चाहत थी। यकीनन काशी में मेरा एक विशिष्ट स्थान है लेकिन मानना पड़ेगा कि यहां के घाट भी बेहद विशिष्ट हैं। इसीलिए घाटों को पक्का कराने के काम में मराठों ने भी खूब योगदान किया। इतिहास गवाह है कि आदि शंकराचार्य से लेकर तमाम संतों का वक्त बेवक्त काशी आवागमन लगा रहा। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य को स्वयं बाबा विश्वनाथ ने मेरे तट पर ही अद्वैत का बोध कराया था। महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस को संपूर्ण रूप काशी में मेरे तट पर ही दिया था। रामकृष्ण परमहंस ने स्वीकार किया था कि उन्हें मेरे तीर पर ही भगवान तारकेश्वर का साक्षात्कार हुआ था। उन्होंने देखा था कि काशी में किस तरह भगवान तारकेश्वर शरीर छोड़ रहे लोगों के कान में तारक मंत्र का उपदेश देते हैं।


गंगोत्री से गंगा सागर तक की सैकड़ों मील की यात्रा में हर जगह मुझे माता का स्थान हासिल है लेकिन काशी में अल सुबह से देर रात तक जिस तरह से मेरा जयकारा सुनायी पड़ता है वो विरल है। आज भी यहां मेरा पाट देश के कई शहरों की तुलना में बड़ा है लेकिन तनिक संकोच के साथ आज मैं यह भी कह रही हूं कि कि काशी में मेरी धारा में अब वो वेग नहीं रहा। अब मैं मैली हो गयी हूं। इतनी मैली कि आचमन तो छोड़िए अब मैं प्रक्षालन के काबिल नहीं रही। गंगोत्री से यहां आने तक कई जगहों पर बने बैराज और बांध मेरे प्रवाह को रोक रहे हैं। तमाम शहरों के गंदे नाले और सीवर के पानी मुझमें ही समाहित हो रहे हैं। तमाम तरह के अपशिष्ट मुझ में ही बहा दिये जा रहे हैं। मुझे गंगा मैया कहने वाले खुद तो साबुन लगाकर नहाते धोते हैं ही साथ ही पशुओं को भी बेशर्मी के साथ स्नान कराते हैं। इंसानों से लेकर पशुओं तक के शव बहा देते हैं। दोनों महाश्मशानों पर हर रोज बहाया जा रहा शवदाह का सैकड़ों टन राख मुझमें कितना प्रदूषण बढ़ा रहा होगा इसका अंदाजा सहज में लगाया जा सकता है। एक लम्बे मुद्दत से मैं प्रदूषित हो रही हूं और हमारा तंत्र इसे मौन साधे देख रहा है। ऐसा नहीं है कि मेरे निर्मलीकरण के लिए कुछ हुआ नहीं। काफी कुछ हुआ पर उनमें से ज्यादातर कागज पर था। इसीलिए उसका असर हकीकत में कहीं बहुत ज्यादा दिखा नहीं। इसके लिए सरकार से ज्यादा यहां का आवाम जिम्मेदार है। देखो, आज मैं यहां एक बात कहना चाहती हूं। इसे मेरी विनम्र प्रार्थना, गुजारिश, आग्रह या जो भी समझना है समझ लेना पर इसे सुनना और गुनना जरूर। अब भी वक्त है संभल जाओ और मुझे भी संभाल लो। मैं धरोहर हूं तुम्हारी, तुम्हारे पितरों की। मैंने तुम्हारे वंशजों को तारा है। क्या मेरे प्रति तुम्हारा इतना भी फर्ज नहीं है कि मुझे अविरल बहने दो ? मुझमें और गंदगी न गिराओ ? अगर मैं सचमुच में तुम्हारी मां हूं तो मुझे जिंदा रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है। मेरे बच्चों, मुझे मरने मत दो। मैं जिंदा रहना चाहती हूं। तुम्हारे लिए, तुम्हारी अगली पीढ़ी के लिए। अगर तुमने मुझे अब भी नहीं बख्शा तो याद रखना कि ईश्वर भी तुम्हारे गुनाहों को नहीं बख्शेगा। आने वाली पीढ़ी तुम्हें कभी माफ नहीं करेगी। सुनों, मैं गंगा हूं। गंगा, तुम सबकी माता। तुम सबकी जननी…

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