डॉ दिलीप अग्निहोत्री
शास्त्रीय संगीत में रागों के गायन का समय व मौसम निर्धारित होता है। वर्षा काल की राग मल्हार प्रसिद्ध है। भारत की चुनावी राजनीति में भी राग ईवीएम का सृजन महान गुणीजनों ने किया है। इसके भी गायन का समय तय है। चुनाव में भाजपा गठबंधन के विजयी होने ही इस राग का गायन होता है। अन्य कोई जीते तब इसका अलाप वर्जित है। इस राग के गायन से अनेक लाभ होते है। इसके माध्यम से पराजित नेतृत्व अपना बखूबी बचाव कर लेता है। वह गायन से अपनी लोकप्रियता व बेहतर छवि का सन्देश देता है। यह बताने का प्रयास करता है कि ईवीएम में गड़बड़ी ना होती तो उसकी पार्टी की सत्ता में पहुंचती। इसकर गायन का दूसरा लाभ यह कि वह आत्मचिंतन से साफ बच निकलता है। पराजय का पूरा ठीकरा ईवीएम पर फोड़ कर वह निश्चिंत हो जाता है। इसके बाद यह बताने की जहमत नहीं होती कि मतदाताओं ने उसे सत्ता में क्यों नहीं पहुंचाया। बिहार चुनाव परिणाम पर चर्चा दिलचस्प थी। एक ही दिन में कई बार ईवीएम को अच्छा व खराब बताया गया। महागठबन्धन के आगे होने पर ईवीएम से कोई शिकायत नहीं होती थी,लेकिन एनडीए कर बढ़ते ही उस बेचारी पर हमले शुरू हो जाते थे। जबकि विचार यह होना चाहिए कि पन्द्रह वर्ष बाद भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एडीए सरकार पर लोगों का विश्वास क्यों कायम है। क्यों आरजेडी का अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है। लालू यादव और राबड़ी के पन्द्रह वर्षीय शासन को छोड़ दें,तब भी तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव का सत्ता में ट्रेलर देखना चाहिए। तेजस्वी उपमुख्यमंत्री व तेज प्रताप कैबिनेट मंत्री थी। इनकी कार्यशैली कुछ ही महीने में विवादित हो गई थी। आर्थिक अनियमिता के आरोप लगने लगे थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का उनके साथ चलना असंभव हो गया था।
इस तरह नीतीश ने अपनी स्वच्छ छवि को बचाया था। ऐसे में महागठबन्धन को यह क्यों लगता है कि उसकी पराजय ईवीएम खराबी से हुई है। हकीकत यह कि नीतीश की छवि के सामने वह कमजोर पड़ गए थे। बिहार पुनः राजद के दौर में लौटना नहीं चाहता था। इसलिए लालू यादव द्वारा बनाया गया माई समीकरण विफल रहा। ईवीएम के बेसुरे राग पर विपक्षी नेताओं को कई बार शर्मिंदगी उठानी पड़ी। लेकिन उन्होंने हारने के बाद इसका आरोप बन्द नहीं किया। यह सीधा चुनाव आयोग पर आरोप माना गया था। इसलिए कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को ईवीएम में छेड़छाड़ करके दिखाने की चुनौती दी थी। इसके लिये पर्याप्त समय भी दिया गया था। अधिकांश पार्टियां जानती थीं कि उन्होंने पराजय से झेंप हटाने के लिये यह मुद्दा उठाया था। जब परीक्षण का समय आया तो इनकी हिम्मत जवाब दे गयी। इन्होंने किसी न किसी बहाने से चुनाव आयोग की चुनौती से बच निकलने का इंतजाम कर लिया था। सार्वजनिक फजीहत से अपने को अलग कर लिया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने कुछ हिम्मत दिखाई। ये चुनौती स्थल तक पहुंचे। यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया जैसे इनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत ऊंचा था। लेकिन ईवीएम ने सब पर पानी फेर दिया। लेकिन मशीन को सामने देखते ही पानी के बुलबुले की भांति इनका आत्मविश्वास बैठ गया। अन्ततः अंगूर खट्टे की तर्ज पर चुनाव आयोग पर आरोप लगाया,फिर भाग खड़े हुए। जबकि इन्होंने वहां जो भी प्रश्न उठाये थे,आयोग की ओर से उनका समाधान भी किया गया था। लेकिन मशीन नहीं वरन् सियासत करना ही इनका मकसद था। वह पूरा हो चुका था। इन नेताओं को यह अनुमान नहीं रहा होगा कि चुनाव आयोग इनकी बात को गंभीरता से लेगा। चुनाव आयोग ने उचित फैसला किया। कांग्रेस की स्थिति सर्वाधिक हास्यास्पद थी। उत्तर प्रदेश में वह कहीं की न रही,इसलिये यहां उसकी नजर में ईवीएम खराब थी। पंजाब,राजस्थान
छत्तीसगढ़,झारखंड में ईवीएम ठीक थी। गोवा व मणिपुर में वह सबसे बड़ी पार्टी बनी, तब तक ईवीएम ठीक थी। जब अन्य दलों ने भाजपा को समर्थन देकर सरकार बनवा दी,तो यहां ईवीएम खराब हो गयी।
इसका भी जवाब देना चाहिये कि इन नेताओं की परेशानी भाजपा के जीत के बाद क्यों शुरू होती थी। 2014 लोकसभा चुनाव से पहले दस वर्षों का समय भाजपा के लिये गर्दिश का था। लोकसभा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड कर्नाटक,असम राजस्थान में उसे निराशा का सामना करना पड़ रहा था। तब ईवीएम में गड़बड़ी नहीं थी,तब बैलेट पेपर से चुनाव की मांग नहीं उठी,तब विदेशों का उदाहरण नहीं दिया गया। सारी गड़बड़ी छह वर्षों में हो गयी। ऐसी बात करने वालों नेताओं को अपना गिरेबां देखना चाहिये। मतदाताओं ने नाराजगी के कारण उनको इस मुकाम पर पहुंचाया है। उन्हें मतदाताओं व चुनाव आयोग के अपमान से बचना चाहिए।