डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

एक सकारात्मक प्रयास पेरियार संस्कृति के विपरीत भारतीय दर्शन में ऐसे सभी लोग जिनको इस बात पर पूर्णतया विश्वास है कि सृष्टि की रचना ईश्वर प्रदत्त है वह इस तथ्य को सहजता से स्वीकार करते हैं कि इस पृथ्वी को भी बनाने में कोई ना कोई व्यक्ति जिम्मेदार होगा और इसीलिए हिंदू धर्म में 33 कोटि देवी देवताओं मैं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विश्वकर्मा को पृथ्वी पर जीवन निर्माण के तत्व उपस्थित करने के निर्देश दिए और इस तथ्य से कोई भी इनकार नहीं कर सकता इस वर्ग की परिकल्पना हो या लंका को सोने की बनाने का कार्य हो वह सब विश्वकर्मा जी द्वारा ही पूर्ण किया गया लेकिन जब पृथ्वी पर निर्माण का कार्य विश्वकर्मा को सौंपा गया तो उस निर्माण की परिधि में सबसे आवश्यक वह सभी तत्व ही थे जिनसे जीवन का सूत्रपात हो सकता था इसीलिए पृथ्वी किसी भी विभाजन के आधार पर निर्मित नहीं है बल्कि प्राकृतिक तत्व नदी झील समुद्र पहाड़ गैस सूर्य चंद्र तारों आदि से प्राकृतिक रूप से इस तरह निर्मित की गई है जिससे कालांतर में मानव द्वारा संस्कृति के निर्माण के बाद विश्वकर्मा के निर्माण कार्य को एक प्रतिनिधि के रूप में मानव भली-भांति कर सके यह सत्य है कि ईश्वर दिखाई नहीं देता यह भी सत्य है कि ईश्वर को देखने का प्रयास एक कठिन उत्तम प्रयास है ध्रुव प्रयास है लेकिन उसका सहजता से आभास मानव के ईश्वर द्वारा निर्मित प्रयासों में देखा जा सकता है और यही कारण है कि वर्तमान में विश्वकर्मा जयंती 17 सितंबर को मनाते हुए प्रत्येक मानव निर्माण की उस विधा में विश्वकर्मा जी की ही विधा को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है जिससे यह पृथ्वी सुंदर बन सकती है लेकिन यहां पर वर्तमान में इस विवेचना को भी किया जाना आवश्यक है कि केवल कल पुर्जों की पूजा करने तक ही विश्वकर्मा जी को सीमित कर देने से समेकित रूप से मानव के निर्माण के प्रयास को उपेक्षित किया जा रहा है।

ऐसा नहीं है कि विश्वकर्मा जी द्वारा निर्मित पृथ्वी के वह सारे तत्व सदैव से मानव के लिए सकारात्मक ही रहे हो चाहे वह नदी समुद्र का पानी हूं चाहे मौसम हो चाहे जलवायु हो या जंगल हो यदि सभी ने मानव के जीवन को और अन्य प्राणियों के जीवन को स्थापित करने में सहयोग किया है तो यह सभी प्राकृतिक तत्व मानव के और प्रकृति के दूसरे जीव जंतुओं के विनाश में भी सहायक रहे हैं इसलिए जब भी निर्माण के अंतर्गत एक देवता के किए जाने वाले प्रयासों के आगे हम नतमस्तक होते हैं तो उसके प्रतिनिधि मानव के प्रयासों को भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों स्थितियों में देखा जाना चाहिए क्योंकि प्रकृति यह जानती है कि उसे किस स्तर तक अपनी स्थिति को बनाए रखते हुए किसी के अस्तित्व को सुनिश्चित करना है और यही वर्तमान में भी दिखाई दे रहा है आज मानव विश्वकर्मा जी का प्रतिनिधि बनकर यदि अच्छे कार्यों का निर्माण कर रहा है तो वह अपनी मेधा शक्ति को एक ऐसे स्तर पर लेकर भी जा रहा है जहां पर एक विप्लव दिखाई देता है जिसे निर्माण का विचलन कहा जा सकता है जिसे सांस्कृतिक भाषा में अराजकता आतंकवाद अपराध कहा जा सकता है लेकिन है यह सब भी उस सकारात्मक निर्माण के तत्व जो किसी भी कार्य की किए जाने की स्थिति में अवशेष के रूप में प्रकट होते हैं यही कारण है कि जब भी विश्वकर्मा जयंती के मनाए जाने की बात आती है तो वह सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से एक ईश्वर या देवता तक सीमित नहीं होता है बल्कि वह विश्वकर्मा के प्रतीक के रूप में उस स्थिति में जाता है जहां पर निर्माण कार्य में लगे हुए प्रत्येक मानव की संकल्पना में वह दृष्टिगोचर होते हैं हमें उतना ही सकारात्मक हर निर्माण कार्य में होना चाहिए जितना सकारात्मक हम पानी के उस स्थिति में भी होते हैं जिसे बाढ़ कहते हैं बारिश कहते हैं तूफान कहते हैं हमें निर्माण के इस तथ्य को भी समझना होगा जहां पृथ्वी के स्थायित्व के साथ-साथ सहजता से हम पृथ्वी पर आने वाले भूकंप को स्वीकार करते हैं और निर्माण की प्रक्रिया में विश्वकर्मा जयंती पर हमें उन तथ्यों को भी स्वीकार करना होगा।

जहां पर हमारी सांसो के लिए जिम्मेदार गैसों के भयावहता को आंधी के रूप में भी हम स्वीकार करते हैं यही कारण है कि जो वास्तविक अर्थों में विश्वकर्मा जयंती को जानता है वह किसी भी व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कार्य को सिर्फ सत्तही आधार पर देखने के बजाय उस स्थिति में लेट जा कर देखता है जहां पर संतुलन की परिभाषा में विचलन विनाश का भी स्वर है क्योंकि अपने सामान्य स्थिति में मिट्टी भी निर्माण कार्य में ही निर्माण रहती है लेकिन वही मिट्टी धूल बनकर चक्रवात की स्थिति पैदा करती है वही मिट्टी आंधी बनकर वातावरण का संतुलन पैदा करती है फलों की संख्या को नियंत्रित करती है और पराग कणों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का भी कार्य करती है यही कारण है कि विश्वकर्मा जयंती को सिर्फ छोटे रूप में समझने के बजाय आदि से अनंत तक समझने की आवश्यकता है क्योंकि निर्माण कोई समय विशेष का कार्य नहीं है क्योंकि निर्माण एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें ब्रह्मा के निर्देश पर विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई पृथ्वी पर मानव उसका प्रतिनिधि बनकर अनंत तक अपने जीवन को उच्च कोटि का बनाने के लिए निर्माण कार्य में संलग्न होता रहेगा और इस प्रयास में मानव का उत्थान भी होगा मानव का पतन भी होगा मानव द्वारा सकारात्मक समाज का निर्माण होगा और मानव द्वारा नकारात्मक स्थिति अभी पैदा की जाएंगी जो निर्माण की परिभाषा में सकारात्मक शक्तियों द्वारा नियंत्रित होती रहेंगी इसी दर्शन को आज भारत जैसे देश में समझने की आवश्यकता है तभी रोटी की संस्कृति से ऊपर निर्माण की संस्कृति को समझा जा सकेगा और 17 सितंबर के उस अव्यक्त दर्शन को उस जन्म में देखने का प्रयास सभी द्वारा किया जाएगा जिसके द्वारा निर्माण उस अनंत प्रक्रिया में अपने बदलाव के दौर को दर्शा रहा होगा यही कारण है कि विश्वकर्मा जयंती किसी धर्म किसी जाति के संकुचित दृष्टिकोण तक सीमित ना होकर यह एक वैश्विक संकल्पना के रूप में समाज देश संसार में मानवाधिकार और प्रकृति के आधार को सुनिश्चित करने के लिए आदि से अनंत तक मनाया जाता रहेगा और इसी को आज समझने की आवश्यकता है

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