डॉ आलोक चांत्टिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
महिला दिवस से ५ दिन पूर्व अखिल भारतीय अधिकार संगठन आपके साथ संसार की उस कृति के बारे में कुछ विमर्श के साथ प्रस्तुत है जहा आप को भी सोचने का मौका मिलेगा कि क्या वोमन , औरत , महिला , रमणी, भार्या , माँ , बहन , प्रेमिका , चाची आदि नमो से जनि जाने वाली हाड मांस की एक जैविक प्राणी उसी तरह से इस पृथ्वी पर रह पा रही है जैसे अन्य जानवरों की मादा रहती है , यह सच है कि हम मानव ने अपने से बःतर इस दुनिया में किसी को नही पाया है और संस्कृति बनाने के बाद तो ऐसा लगा मानो भगवन के बाद अगर कोई दूसरा उसके पद के बराबर आ सकता है है तो वो है मनुष्य और मनुष्य ने अवतारवाद चलाकर इसको सिद्ध भी करनी की कोशिश की पर आज का विमर्श यही है की कोई धर्म औरत के द्वारा चलाना क्यों नही मानव जाती ने स्वीकार किया , औरत के गर्भ से पैदा होकर भी भगवन के पद पर मनुष्य खुद ही क्यों बैठा और यही पर सबसे पहले महसूस किया जा सकता है कि औरत पुरुष के बराबर नही है भले ही औरत के गर्भ से पैदा हुआ है . इस के बाद यह भी एक विचारणीय प्रश्न है औरत को माँ कहकर जो मनुष्य सर झुकाते नही थक रहा है वही मनुष्य माँ बन ने के मान्य संस्था विवाह को महिला के लिए इतना बड़ा प्रश्न चिन्ह बनाये दे रहा है कि महिला को अपने अन्दर ही माँ बनने के दर्द को कुचलना पद रहा है और अगर वह सहस करके इस पद को पाने के लिए विवाह कर रही है तो दहेज़ , दहेज़ हत्या , घरेलु हिंसा , आदती का दंश उसके सामने खड़ा है …
औरत के लिए कानून बनाने की आवश्यकता ने स्वयं समाज के नंगेपन को उजागर कर दिया है कि औरत के प्रति संवेदन शीलता का स्तर खत्म हो रहा है और ऐसे में औरत या तो अविवाहित रहे या फिर एकाकी माँ की अवधारणा पर अमल शुरू कर दे , पुरुष का अत्याचार सिर्फ भारत में हो ऐसा नही है बल्कि पूरा विश्व इस दर्द को झेल रहा है , आंकड़ो के अनुसार करीब २५०० महिलाये पुरे विश्व में डायन कहकर जिन्दा मर दी जाती है , अकेले भारत में हर साल ४५० औरत डायन कह कर मार दी जाती है , यही नही पुरुष के शारीरिक अत्याचार से ऊब कर आज से १० वर्ष पूर्व ब्रिटेन में करीब १०००० महिलाओ ने विवाह करने से इंकार कर दिया और यह निश्चय किया कि पुरुष के अत्याचार से बेहतर है कि प्रजनन में पुरुष की जो भूमिका है उसको कृत्रिम ग्राभाधन से पूरा किया जाये और यही कारण है कि पश्चिमी देशो में शुक्राणु और अंडाणु बैंक की संख्या दिनोदिन बढ़ रही है अगर एशिया ही चलता रहा तो भारत की महिला भी नारी सशक्तिकरण के पथ पर बढ़ते हुए इस तरह के प्रक्रिया को अपना सकती है जो पूरी संस्कृति के लिए एक गंभीर बात होगी . महिला दिवस का मतलब शायद ही कोई सही ढंग से जनता हो पर हम आपको बस इतन बता दे कि नारी को इसी दिन मनुष्य के तुल्य माना गया , १९२९ में उसी दिन उसे मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ पर यह सब तो इस देश कि महिला को हमेशा से ही हाशिल था फिर महिला दिवस भारत में क्यों ????????????
नही यह दिन विश्व महिला दिवस है और पूरे विश्व की महिला के गरिमा का दिन है और भारत की महिला को आज जिस तरह से समाज में स्तन प्राप्त है वह इतना अच्छा नही है ……मुझे मालूम है कि आपको मेरी बात सही नही लग रही है पर जरा आप सोच कर देखिये कि आप के घर में क्या ५० वर्ष की कोई अविवाहित औरत है ??????????????और पहले चाहे चेहरा कैसा भी हो , कद कैसा भी हो , पढ़ी लिखी कैसी भी हो पर उसके जीवन में विवाह और माँ बन ने का सुख था ही और लड़की की शादी बाप दादा के नाम प्रतिष्ठा पर हो जाती थी पर आज क्या ऐसा है जिस औरत को हम सब ने मिल कर सशक्तिकरण का जो स्वप्न दिखाया उसने औरत को व्यक्तिगत नाम दिया , प्रतीष्ठा दिया पर औरत को इतना अकेला खड़ा कर दिया कि जब जो जैसे चाहे लूटने लगा और समाज के कुछ लोग उसी लूटने के दर्द को कह कर महिला दिवस मानाने लगे पर क्या हम औरत को ऐसा मान पाए जो हम पुरुष कि तरह उन्मुक्त सांस ले सके अगर ऐसा नही है तो आइये महिला दिवस पर बस इतना करे कि हर महिला को हसने का मौका देंगे और हम उनके हसने में अपने विमर्श और अर्थ नही निकालेंगे और अगर आपको ऐसा नही लगता तो आइये अखिल भारतीय अधिकार संगठन २१ मार्च को विषमता पर एक राष्टीय संगोष्ठी करा रहा है , उसमे भाग लेकर औरत कि विषमता पर चर्चा कीजिये और औरत को माँ शब्द का अर्थ जानने दीजिये ………….